Thursday, December 18, 2014

सन्डे मैच [‘त्यागी उवाच’ ब्लॉग की सेंचूरियन पोस्ट]

यह क्रिकेट मैच न टी-ट्वेंटी है न वन-डे है, बल्कि सन्डे है. इसे फुटबाल के आधे मैदान पर ब्रेकफास्ट से पहले खेला जाता है. पूरे मैदान के चारों तरफ चक्कर लगा रहे सुबह की सैर करने वाले बुजुर्ग अथवा मैदान के दूसरे आधे हिस्से में खेले जा रहे मैच के खिलाडी इसके दर्शक होते हैं. सन्डे मैच में दोनों टीमों को मिला कर भी ग्यारह खिलाडी हो जाएँ तो बहुत माने जाते हैं. आम तौर पर खिलाडी खेल के जरूरी सामान के अलावा अम्पायर लेकर घर से नहीं निकलते. मैदान पर ही अम्पायर का बंदोबस्त हो भी जाये तो लोकसभा के सभापति की तरह उसकी कोई नहीं सुनता. टीम में खिलाडी चुनने समेत सारे फैसले शोर-शराबे अर्थात ध्वनि मत से ले लिए जाते हैं. बल्लेबाजी का क्रम अक्सर बाजुओं के बल के आधार पर तय होता है और गेंदबाजी उस जांबाज को नसीब हो पाती है जो छीना-झपटी की कला में पारंगत हो. यही वजह है कि टीम में कप्तान के लिए कोई खास काम नहीं बचता.

खिलाडियों के टोटे के चलते कोई टीम स्लिप पर खिलाडी तैनात करने का नहीं सोच सकती. हाँ, विकेटों के पीछे एक विकेटकीपर और उसके ठीक पीछे एक और बेकअप विकेटकीपर जरूर लगाया जाता है. ध्यान से देखो तो पता चलता है कि प्रमुख विकेटकीपर का मुख्य काम बैकअप विकेटकीपर के लिए गेंदों को छोड़ना होता है. ठीक वैसे ही जैसे दफ्तर के बॉस का प्रमुख काम बाबुओं को काम सौंपना होता है. इन मैचों में हो सकता है मिड-विकेट हो ही ना, वरन उसकी जगह थ्री-फोर्थ विकेट हो. डीप थर्ड मैन या लॉन्ग ऑन पर खड़ा खिलाडी फील्डिंग कम और वाट्स एप ज्यादा करता देखा जा सकता है. इस खेल में बल्ले के प्रहार से निकली गेंद के पीछे आजू-बाजू के फील्डर नहीं भागते, बल्कि हाथ उठा कर यह बताते हैं कि किसे भागना था! जब तक यह तय हो कि फील्डिंग किसकी थी तब तक गेंद सीमा रेखा के बाहर चली जाती है. ठीक उसी तरह जैसे सम्बंधित थाने जब तक यह तय करें कि वारदात किसके क्षेत्र में हुई थी तब तक लुटेरे शहर छोड़ चुके होते हैं. यहाँ किसी फील्डर द्वारा कैच टपकाए जाने को पिछली दफा उसकी गेंद पर बॉलर खिलाडी द्वारा टपकाए गए कैच का बदला मान लिया जाता है. जिसका कोई खास बुरा भी नहीं माना जाता. 

बल्लेबाजी अमूमन एक ही छोर पर की जाती है. दूसरे छोर पर वैसे की भी नहीं जा सकती. क्योंकि उस छोर पर न तो विकेट होती हैं न ही बल्लेबाज के हाथ में कोई बल्ला. रन आउट वगैरह के लिए डंडों की जगह चप्पल आदि बिखरा कर काम चला लिया जाता है. यूँ एक रन लेने से बचा ही जाता है. कारण कि रन लेने के बाद स्ट्राइकर एंड पर पहुंचे बल्लेबाज को चल कर बल्ला देने जाना होता है. सो कौन जहमत उठाये? इस प्रकार के मैच में जीत या हार होने की नौबत के आने से पहले ही झगडा हो जाया करता है. झगडा न भी हो तो बारी की इंतज़ार कर रहे बड़ी उम्र के खिलाडियों द्वारा धोंस-पट्टी देकर मैदान को खाली करा लिया जाता है. इस तरह मैच बे-नतीजा समाप्त हो जाता है. लेकिन मजेदार बात यह है कि दोनों पक्ष अपनी-अपनी टीम को विजेता मान हंसी-ख़ुशी घर लौटते हैं. विन-विन सिचुएशन, मैच में पिछड रही टीम के लिए भी! क्यूँकि जिस तरह लेट चल रही भारतीय रेलें समय बना कर सही समय पर भी पहुँच सकती हैं, उसी तर्ज़ पर सोचा जाता है कि फिसड्डी टीम बचे हुए समय में तेजी से रन बना कर जीत भी सकती थी!! 

Monday, December 1, 2014

वादा और तगादा

कर  लिया  था  वादा उन्होंने  पांचवे  दिन का
किसी से सुन लिया होगा,  दुनिया चार दिन की है

जी नहीं! पांचवे दिन का नहीं, पहली तारीख का वायदा किया था उन्होंने, जो इतनी दूर भी नहीं थी. तभी तो अचानक आन पड़ी जरूरत का हवाला देते ही हमने जरा भी सोचे बिना पांच हजार उनके हाथ पर धर दिए थे. वो दिन और आज का दिन... दसियों पहली तारीखें आई और आकर चली गयी. वही वादे वाली पहली तारीख नहीं आई.

ऐसा भी नहीं कि हमने डरते-डरते, इशारों-इशारों में उन्हें कभी याद दिलाने की कोशिश नहीं की. की, और बाजाफ्ता की. मगर ऐसी तमाम हरकतों के बीच वे राजा दुष्यंत की तरह मेनका की तरफ से बेखबर से ही बने रहे. कभी ज्यादा हुआ तो यूँ मुस्कुरा कर चल दिए जैसे फिल्म सदमा के आखिरी सीन में कमल हासन की कलंदरी पर श्रीदेवी मुस्कुरा कर चल देती है. इधर हम सोचते कि हो न हो उनकी जरूरत अभी तक बनी हुई हो. उधर खटका यह भी है कि वे भी कहीं यह न सोच रहें हों कि हमें जरूरत होती तो जरूर मांग लेते. कुल मिला कर मजाज़ वाली शायराना सूरत बनती नज़र आ रही है-

मुझे ये आर्ज़ू, वो निक़ाब उठायें ख़ुद
उन्हें ये इंतजार, तक़ाज़ा करे कोई

क्या करें! तक़ाज़े की विद्या में हम काला अक्षर भैंस बराबर हैं. रकम वापस माँगने के ख्याल भर से ही अपनी जुबान को लक़वा मार जाता है, चेहरा शर्म के मारे पानी-पानी हुआ चाहता है. कई बार तय कर लिया कि बस अब और नहीं! बाहर निकलने के गुर सीखे बगैर आइन्दा कभी देने के चक्रव्यूह में प्रवेश नहीं करेंगे.

मगर यह सब आइन्दा... अभी तो एक अन्य पारिवारिक मित्र का किस्सा बकाया है. मांगे तो उन्होंने पच्चीस थे किन्तु हमारी औकात देखते हुए पंद्रह पर ही मान गए थे. यह जरूर है कि रकम लेने के बाद शहर से लगभग लापता हो गए थे. शक है कि पंद्रह में से हजार पांच सौ देकर उन्होंने मोबाइल वालों को भी अपनी तरफ मिला लिया था. वर्ना सैकड़ों मर्तबा कॉल करने पर कंपनी की लड़की हर बार यही क्यूँ कहती- उपभोक्ता का मोबाइल फोन या तो स्विच ऑफ़ है या पहुँच क्षेत्र से बाहर है. भाई लोग बहुत पीछे पड़े कि घर तो लापता नहीं हुआ, जाकर ले क्यूँ नहीं आते. (मानों वे दरवाज़ा खोले हमारी राह ही देख रहे हों कि कब हम पहुंचें और कब वे उधार पटायें!) जवाब में हम यही कहते- पगलों, उन पर होते तो वे छुपते ही क्यूँ फिरते? पत्नी ने भी ताना दिया- तो क्या इतनी बड़ी रक़म यूँ ही डूब जाने दोगे! तो हमने सौदे का फायदा गिनाते हुए समझाया. भाग्यवान, गनीमत मानों बात पंद्रह हजार में निपट गयी. सोचो, पंद्रह लौटा कर अगर पच्चीस पचास मांग लेते तो हम कहाँ के रह जाते!


अलबत्ता गम है तो बस एक. गुम हो जाने के बजाय बाबा खड़गसिंह के घोड़े के प्रसंग की तरह अगर वे यह कह देते कि भैया भूल जाओ, तो मन मार कर चैन से एक तरफ तो बैठ जाते. और हाँ....परिजन भी आए दिन यूँ दिक् न करते!!