(वर्ष 2070 की एक कक्षा, विषय: इतिहास)
टीचर- बच्चों, आज हम कोरोना के बारे में पढ़ेंगे। चीन के
वुहान नगर में वर्ष 2019 के जाते-जाते प्रकट हुआ था प्रकृति का श्रीकोरोना अवतार।
नासमझ दुनिया इसे नया कोरोना वायरस कहने लगी। अपनी शैशव अवस्था में ही अश्वमेध यज्ञ के छोड़े गए
अश्व के समान यह बिना किसी लाव लश्कर के अकेला ही विश्व विजय पर निकल पड़ा था।
ताकतवर राज्यों के प्रधानों के शीश अपने कदमों पर झुकाता हुआ, संसार की अतिविकसित सभ्यताओं के दंभ चूर-चूर करता हुआ जिस सरजमीं पर यह पहुंचता
वही देश एकाएक ठहर जाता; जहां भी यह कुछ दिन ठहर जाता, वहीं राजा-प्रजा सभी इसके नाम की माला जपने लगते। वैसे ही जैसे फ़राज साहब
फ़रमा गए हैं:
रुके तो गर्दिशें उसका
तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के
देखते हैं।
रामदास- सर, समझे नहीं हम! थोड़ा विस्तार से बताएं।
टीचर- संसार के देशों की सीमाओं को धता बताता हुआ दुनिया के जिस राज्य में कोरोना
का अश्व पहुंचता वहीं बाज़ारों की रौनकें उड़ जाती, स्कूल-कॉलेजों के प्रांगण
सूने हो जाते, सिनेमाघरों में वीरानियां छा जाती, राजमार्गों की मांग का सिंदूर पुंछ जाता, उड़ते हुए विमान
धराशायी हो जाते, रेलगाड़ियों की आती-जाती सांसें टूट जाती, मंदिरों की घण्टियों पर फ़ालिज गिर जाता और मस्जिदों में गूँजती अजान की
सदाएं पथरा जातीं। लोग चूहों की तरह घरों में यूं दुबक जाते मानों शहर में एक अरसे
से खूनी सांप्रदायिक दंगा चल रहा हो। कोरोना के चलते जिंदगी ठप्प हो जाती- चालू रहता
सिर्फ मरीजों का अस्पताल जाना और अस्पताल से शवों का शमशान आना।
जुबेदा- किन्तु यह तो कोरोना का कहर हुआ, करम कैसे हुआ सर?
टीचर- एक तरह से कहर किन्तु दूसरी तरह से करम! इधर बाज़ारों की रौनकें उठीं तो
उधर उपवनों में रोनकें लौट आयीं। आदमी संक्रमित हुआ किन्तु आबो हवा साफ हो गए।
घण्टियों की आवाजें जरूर घुटी मगर परिंदों के कंठ से स्वर लहरियाँ फ़ूट पड़ी। इंसान
इतने नहीं मरे जितने समुद्री कछुए पैदा हो गए। सच है कि जब-जब मनुष्य के हाथों प्रकृति
की हानि हुई है, तब-तब प्रकृति-धर्म की स्थापना के लिए कुदरत ने एक नया अवतार
लिया है।
निशांत- सर! कोरोना पुरुषों के लिए ज्यादा जानलेवा साबित हुआ
कि महिलाओं के लिए?
टीचर- निशांत, कोरोना के कारण मरने वालों में महिलाओं की
अपेक्षा पुरुष कहीं अधिक थे, विशेषकर साठ वर्ष से अधिक आयु
वर्ग के!
निशांत (चौंकते हुए)- किन्तु ऐसा क्यों, सर? क्या कोरोना वायरस अपना शिकार करने में लिंग भेद करता था!
टीचर- अरे नहीं! तुम्हें तो पता होगा कि कोरोना वायरस उसे चपेट में लेता है
जिसकी इम्युनिटी कमजोर हो। अब पतंजलि च्यवनप्राश खाने अथवा जड़ी बूटियों का काढ़ा पीने
से इम्युनिटी नहीं बढ़ती। इम्युनिटी बढ़ानी हो तो हाथ में काढ़े का गिलास नहीं बल्कि
कुछ काम धंधा होना चाहिए। गीता में भी कहा गया है कि जीवन का सार कर्म है, कर्म
के बिना जीवन असंभव है। यही वजह है कि ऑफिस से रिटायर होने के बाद जिनके कर्म खत्म
हो जाते हैं, वे शीघ्र ही दुनिया से भी रिटायर हो जाते हैं। यानि
जिंदगी शोले फिल्म के वीरू की तरह है। इसकी सांसें तभी तक चलती हैं जब तक बसंती के
पैर चलते हैं...बसंती के पैर रुके नहीं कि वीरू की जिंदगी खलास।
प्रियंका- लेकिन सर इससे यह कैसे साबित हुआ कि कोरोना से पुरुषों को अधिक खतरा
होता है!
टीचर- होता है प्रियंका...देखो, लॉकडाउन अथवा कर्फ़्यू
में पुरुष हो या महिला दोनों को घर की चौहद्दी के अंदर रहना होता है। घर के अंदर
काम का बँटवारा तो महिलाएं यानि होम मिनिस्टर ही करती हैं न! होता यह है कि
महिलाएं बड़ी चतुराई से खुद के लिए सुबह से रात तीनों वक़्त का खाना, तीनों टाइम के बर्तन, कपड़े धोने आदि के फुल टाइम
काम चुन लेती हैं...जबकि पतियों के हिस्से में न्यूनतम ग्यारंटी योजना जितने काम
भी नहीं आने देती। उन्हें मिलता है रोजाना सिर्फ दस पंद्रह मिनट का झाड़ू तथा
सप्ताह में दो दिन आधे घंटे का पोछा, बस! नतीजा यह होता है
कि दिन भर काम करती रहने वाली महिलाएं अपनी इम्यूनिटी बढ़ा कर कोरोना जैसी बीमारी
को अपने ठेंगे पर रखती हैं। पति बेचारे घर के कोई काम नहीं करते, सो आसानी से कोरोना के हाथों मरा करते हैं।
नेहा- सर, कोरोना काल में देश के सामने कौन-कौन सी विकट समस्याएँ पैदा
हुई? कृपया इसका कुछ खुलासा करें तो हम पर महती कृपा होगी।
टीचर- यह पूछिए कि कोरोना ने हम पर क्या-क्या करम किए, हमारी किस-किस
जटिल समस्या को हल कर दिया। सदियों से देश की सबसे बड़ी समस्या सुरसा सी बढ़ती हुई
आबादी रही है। संजय गांधी अगर दो चार साल और जिंदा रह जाते तो इस समस्या को जड़ से
खत्म कर सकते थे। उन्होने जान लिया था कि समस्या के मूल में नस थी जिसे एक सूत्रीय
नसबंदी कार्यक्रम चला कर आसानी से बंद करवाया जा सकता था। सो, उन्होने अपने बंदों को
दो टूक आदेश दिया था कि जहां भी नस दिखे, काट दो। और हाँ, फालतू की चीज़ें मत देखना- यही कि सामने वाला बुजुर्ग है अथवा युवा, विवाहित है या अविवाहित, पुरुष है अथवा स्त्री, काटने के लिए बस एक नस दिखनी चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे अर्जुन को पेड़ नहीं
दिखता था, चिड़िया नहीं दिखती थी- दिखती थी तो बस आँख! तुम्हें
भी उसी तरह बस नस दिखनी चाहिए। उस महापुरुष का मानना था कि ऐसा करने से व्हाइट और
ब्लैक दोनों तरह के जन्म बंद हो जाएंगे और आबादी की अनवरत बहती धारा स्वतः ही सूख
जाएगी।
रश्मि- आप तो सर संजय पुराण बाँचने लग गए। जरा ये तो बताइये कि व्हाइट और
ब्लैक जन्म क्या हैं? और कोरोना से यह समस्या कैसे हल हो जाती है? क्या कोरोना के कारण इतनी ज्यादा मौतें होती हैं कि देश की जनसंख्या में भारी
गिरावट आ जाती है?
टीचर- अरे नहीं! कोरोना के कारण मृत्यु दर बहुत ज्यादा नहीं बढ़ती बल्कि जन्म
दर तेजी से घटती है!
परिणीता- हैं! मगर वो कैसे, सर?
टीचर- यह ऐसे कि कोरोना के समय स्कूल-कॉलेज, दफ्तर मॉल, सिनेमा-बाजार सब बंद होने से इश्क़ का धंधा सेंसेक्स की तरह धड़ाम से औंधे
मुंह जा गिरता है। देश के युवा दिल इस दिल जले कोरोना के कारण अपने-अपने घरों में
कैद हो जाते हैं। सोचो! बागों में पीपल और नीम ही नहीं होंगे तो प्रेम की पींगे कहाँ
पड़ेंगी? नतीजा यह होता है कि ब्लैक में औलादों के पैदा होने
पर खुद ब खुद रोक लग जाती है। सुनसान झाड़ियों और कचरे के ढेरों से नौनिहालों की बरामदगी
बंद होने से अनाथालयों और बालिका गृहों में धीरे-धीरे ताले पड़ जाते हैं। इस प्रकार
कोरोना के कारण समाज से चोरी-चोरी ब्लैक में पैदा होने वाले बच्चों की दर झटके से
गिर जाती है!
मोनिका- मगर सर ज़्यादातर जन्म तो व्हाइट में समाज की मर्ज़ी से होते हैं, उनकी
दर तो वही रहती होगी जो कोरोना से पहले थी?
टीचर- उस पर भी आते हैं, तनिक धीरज तो रखो। दरअसल कोरोना के चलते
सरकार ने सख्त एड्वाइज़री जारी कर दी थी कि आपस में कम से कम दो गज़ की शारीरिक दूरी
बना कर रखी जाए। तुमने भी सुना होगा- दो गज़ दूरी, बहुत
जरूरी! वहीं दूसरी ओर हम अपनी उस प्राचीन विद्या को भी विस्मृत कर चुके थे जिसकी
सहायता से पति अपनी पत्नी के आव्हान पर एक सुरक्षित फासला रखते हुए भी संतान प्राप्ति
करा सकता था। इस सब का असर यह हुआ कि व्हाइट में भी बच्चे पैदा होने बंद हो गए। आप
सोच रहे होंगे कि सभी लोग सरकारी एड्वाइज़री का अक्षरशः पालन कहाँ करते हैं। कुछ
दम्पतियों ने तो फासले की एड्वाइज़री को मानने से जरूर इंकार कर दिया होगा! आपका ऐसा
सोचना अपनी जगह सही है। अक्सर लोग सरकारी एड्वाइज़री को ऐसे ही लेते हैं जैसे
फिल्मों में धूम्रपान और शराब के सेवन न करने वाली वैधानिक चेतावनी को लिया जाता
है। किन्तु फासले की इस लक्ष्मण रेखा को कूदने का भी कोई खास नुकसान नहीं हुआ
क्योंकि कोरोना से दिन प्रतिदिन होने वाली मौत की खबरों के बीच अधिकांश दंपत्तियों
की मानसिक दशा मंटो की ठंडा गोश्त नामक कहानी के ईशर सिंह जैसी हो गयी थी। इस तरह सदियों
से चली आ रही जनसंख्या की समस्या कोरोना की रहमत से चुटकियों में हल हो गयी।
शैलेंद्र- सर कोरोना महामारी से नागरिकों के नैतिक और आध्यात्मिक चरित्र पर
क्या प्रभाव पड़ा?
टीचर- इस मामले में कोरोना युग की तुलना सतयुग से की जा सकती है। इस काल में
लोग सिर्फ कोरोना से मरते थे। नगर में न कोई हत्या होती थी न ही चोरी, डकैती
और राहजनी। यहाँ तक कि जेल में बंद क़ैदियों को भी छोड़ दिया जाता था। लोग बेफिक्र
हो कर रात के समय घर के मुख्य द्वार पर ताला तक नहीं लगाया करते थे। खरीद कर लाया सौदा
सुल्फ़ा कई दिनों आँगन में ही पड़ा रहता था। किसी की जेब से असावधानीवश रुपये सड़क पर
गिर पडें तो वे वहीं पड़े रहते थे। आसपास कोई देखने वाला न भी हो तब भी उन्हें कोई
उठाता तक नहीं था। सुरक्षा उपकरणों से लैस नगर निगम का विशेष प्रशिक्षित दस्ता
उन्हें उठा कर राजकोष में जमा करवा देता था। नैतिक क्षेत्र के अतिरिक्त आध्यात्मिक
क्षेत्र में भी कोरोना राज में काफी उन्नति नजर आई। कई घटनाएँ ऐसी देखी गई जब
कोरोना से मृत्यु के बाद अन्त्येष्टि हेतु पुत्रों ने पिता का शव लेने से इंकार कर
दिया, परिजनों और पड़ोसियों ने जनाजे को कांधा देने से मना कर
दिया। मजबूरी में पुलिस, प्रशासन को ही शव का अंतिम संस्कार
करना पड़ा। अर्थात भगवान श्रीकृष्ण द्वारा
दिया गया उपदेश- कि संसार में न कोई किसी का पिता है और न ही पुत्र, न कोई सगा है न संबंधी, रिश्ते नाते सब मिथ्या हैं, लोगों ने आत्मसात कर लिया था।
संजय- एक अंतिम प्रश्न सर! क्या कोरोना अवतार धरती पहली बार अवतरित हुआ था
अथवा इससे पूर्व भी कोरोना की मौजूदगी के प्रमाण मिलते हैं?
टीचर- कहा तो जा रहा है कि कोरोना को दुनिया में 2019 के अंत में पहली दफ़ा
देखा गया। लेकिन क्योंकि इसे नया कोरोना वायरस का नाम दिया गया, इससे यह
संकेत मिलता है कि पूर्व में भी कोई पुराना कोरोना वायरस धरती पर जरूर विचरा
होगा...ठीक वैसे ही जैसे कि हेनरी अष्टम से पहले एक हेनरी सप्तम होता है, नई शिक्षा नीति से पहले पुरानी शिक्षा नीति होती है। वैसे भी धरती की हानि कोई पहली बार तो हुई नहीं। इसे देखते हुए कुछ विचारकों का मत है कि मिर्ज़ा ग़ालिब के जमाने में भी अगर कोरोना नहीं तो कोरोना से मिलती जुलती कोई
महामारी जरूर आई थी। ऐसा नहीं हुआ होता तो ग़ालिब साहब को यह शे'र क्यूँ कहना
पड़ता!
मुद्दत हुई है यार को
मेहमां किए हुए
जोश-ए-कदह से बज़्म चरागाँ किए
हुए।
जिसका भावार्थ है कि लॉकडाउन
के कारण देसी-विदेशी शराब के सब ठेके बंद हैं और लोग अपने–अपने घरों में क़ैद हैं।
यही वजह है कि एक अरसा हो गया घर में न कोई यार दोस्त ही आया और न ही शराब की
प्यालियों से कोई महफ़िल ही रौशन हुई। इति।