Friday, June 12, 2009

ये जो एक शहर था

इस नगरी में अब कोई नहीं रहता - न कोई मानुस, न चौपाया और न ही परिंदा। सड़कें तो हैं मगर वीरान हैं; फैक्ट्रियों में मशीनों के हमेशा घूमते चक्के पूरी तरह जाम हैं। हाट-बाज़ार अब यहाँ किसी रोज नहीं सजते और न ही नुमायशें या मेले ही भरते। मंदिरों में भजन और मस्जिदों में अजान की गूंजें कब की गुम हो चुकी हैं। स्कूलों और कोलिजों के प्रांगन एक अरसे से सूने है। सब तरफ़ एक मुर्दनी सी छाई हुई है।
सुनते हैं, जब यहाँ पानी था तो एक शहर हुआ करता था।

2 comments:

  1. very deep n touching... a sad reality in the not so distant future ! i'v suddenly started feeling guilty about having been passive. you have inspired one follower sir!

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  2. sadistic touch hai is mein.. one of my favorites!

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