Saturday, June 20, 2009

मुमकिन है जी उठो तुम,सृष्टि भी

लुटाने को अब बचा ही क्या है
इन्द्रदेव के पास
कब का खाली हो गया है उनका खजाना
देते-देते हो चुके हैं
वे अब राजा से रंक ।
हवियों को सीढियां बना कर भी
अब नहीं पहुँचा जा सकता जलधरों तक
यज्ञाहुतियों से पसीज कर भी
नहीं उतरेगा कुपोषित बादलों के
अंक से दो बूंद जल।
और कितने गहरे उतरोगे
धरती के भीतर तुम?
फ़िर हाथ भी क्या लगेगा वहां
जो तर कर सके सूखे हलक।
मेधा के बल पर
(खूब इतराते हो तुम जिस पर )
शायद ही कभी निकल पायेगा
प्यास का कोई मुकम्मल हल।
बस एक ही रास्ता है
गर लगा सको लगाम लालच पर
कर सको वामनी खुदगर्जी स्वाहा
और तोड़ सको कुदरत से छल का
सदियों से चला आ रहा सिलसिला
तो मुमकिन है इन्द्रदेव
फ़िर से हो उठें मालामाल
फ़िर नाच उठे ताज़गी हवाओं पर चढ़ कर
धरती से फ़िर फूट पड़ें अनजान सोते
आसमान से झमाझम बरसने लगे सुकून
और जी उठो तुम, तुम्हारे साथ सृष्टि भी।

2 comments:

  1. kya baat hai.. din-b-din tarakki par.. ise padh k hi indra ko apne rank hone ka ehsaas hoga.. :)

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  2. Kaash, Paani bhi aapke khyaalon ki tarah hota... jo kabhi khatam hi naa ho !!

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