Wednesday, February 3, 2010

ठिठुरन के वो रात दिन

क्या दिन थे वो?...कड़ाके की ठण्ड थी। शौच के बाद करंट मारता पानी एक वैश्विक सोच उत्पन्न करता प्रतीत हो रहा था। पश्चिम के ठंडे देशों में टायलेट पेपर के चलन का राज़ खूब समझ में आ रहा था। उन दिनों हमें एक और इल्हाम हुआ- यही कि अँगरेज़ हाकिमों द्वारा लगाए जाने वाले हैट (कनटोप) के अविष्कार के पीछे भी यकीनन सर्दी ही रही होगी। भारी शीत के चलते टोपी को कानो पर मोड़ कर हजामत बनाने वाले किसी मजबूर ने ही इसके इजाद कि प्रेरणा दी होगी। मन और समय को मार कर सुबह सैर पर निकले तो रोज़ दिखने वाले बुजुर्ग आज लदे फदे ऐसे लग रहे थे मानो हवाखोरी को नहीं बल्कि गोताखोरी को निकले हों, या फिर किसी दूसरे गृह के वासी धरती पर उतर आये हों। सैर से लोटते हुए झोंपड पट्टी के बाहर एक बच्चा रोता दिखाई दिया, जिसके आंसू जम कर सचमुच के मोतियों कि शक्ल में झर रहे थे। बस स्टैंड पर एक पोस्टर चिपका मिला। पता चला कि सर्कस के पहले शो में एक खास आईटम दिखाया जा रहा है। दर्शक जोकर के नाक के भीतर बह रहे तरल पदार्थ को अवस्था परिवर्तित कर हिमप्रपात के रूप में देखने को उमड़े पड़ रहे थे। दूसरी तरफ पार्क में एक अलग ही नज़ारा था। कुछ नटखट बच्चे फूँक से बर्फीले तीर छोड़ कर एक दुसरे को घायल करने पर तुले थे।
दिन चढा। हाड़ कंपकंपाती हवाएं, हुडदंगी कार्यकर्ताओं की तरह जबरन शहर बंद कराने को चौराहा-चौराहा गश्त लगाती घूम रही थी। सर्द हवाओं के खौफ़ से सूरज भी बादलों के मोटे लिहाफ में जा दुबका था और कभी-कभी ही मुँह उघाड़ कर धरती की तरफ झाँकने की हिम्मत कर पा रहा था। ज्यादातर लोग घरों में क़ैद थे। पानी परोसने पर संयोग से आये आगंतुक ऐसे बिदकते थे गोया हाइड्रो फोबिया के शिकार हों।
अपनी सेहत पर तो यह जाड़ा कहर ही बरपा रहा था। नजला था कि ऐसा नाजिल हुआ कि दोनों कानों के अन्दर अभूतपूर्व घना कोहरा सा छा गया। ओडिबिलिटी नियर जीरो हो गयी। पूरा वजूद कान बना देने के बावजूद हाथ भर की दूरी पर बैठा आदमी भी ढंग से न सुनाई पड़े। कई बड़े-छोटे हादसे भी होते-होते रह गए। ऐसा ही एक वाकया सुनाएँ - एक महिला ने सड़क पर हमसे मिल का रास्ता पूछा, हम उसे दिल का रास्ता बताने लगे। ...बस पिटते -पिटते बचे।
जैसे-तैसे दिन बीता। रात को बिस्तर पर पहुंचे तो लगा कोई शरारती तत्व चुपके से अभी हाल में बिस्तर पर पानी बिखरा गया हो। रजाई में भी हर तरफ सुराख़ दिखने लगे, तमाम हिकमतों के बाद भी जिनसे रिस कर हवा अन्दर आना बंद नहीं हुई। जब लगने लगा कि अभी अभी मीठी नींद आई है, तभी कमबख्त सुबह हो उठी।

2 comments:

  1. अँगरेज़ हाकिमों द्वारा लगाए जाने वाले हैट (कनटोप) के अविष्कार के पीछे भी यकीनन सर्दी ही रही होगी। भारी शीत के चलते टोपी को कानो पर मोड़ कर हजामत बनाने वाले किसी मजबूर ने ही इसके इजाद कि प्रेरणा दी होगी।

    एक महिला ने सड़क पर हमसे मिल का रास्ता पूछा, हम उसे दिल का रास्ता बताने लगे। ...बस पिटते -पिटते बचे।

    उपरोक्त पंक्तियाँ मन को गुदगुदा गईं। वैसे सारा का सारा आलेख हीं प्रशंसनीय है।

    बधाई स्वीकारें।

    -विश्व दीपक

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  2. हमारी खुशनसीबी कि आपको रचना पसंद आई।

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