अंग्रेज चले गए,कमेटी छोड़ गये. एक जमाना था जब अंग्रेज नहीं थे. तब राजे थे, रजवाड़े थे, उनकी मर्ज़ी थी. इससे और पीछे चलें तो भगवान था. पत्ते तक इनसे पूछ कर ही खडका करते थे. आज कमेटी है. मजाल है जो कोई छोटा बड़ा काम बिना कमेटी बिठाये हो जाये. दरअसल कमेटी बड़े काम की चीज है. कमेटी की जादुई छड़ी के घुमाते ही तानाशाही फैसले लोकतांत्रिक बन जाते हैं. जो आपको करना है, उसे खुद न कर कमेटी से करवाओ. कमेटी के चश्मे से देखने पर आपकी मनमानी का भेड़िया लोगों को लोकमत का मेमना नजर आने लगेगा. लोकतंत्र में कोई बड़ा छोटा तो होता नहीं, जो आपका लिहाज़ कर चुप रहे. सो हमले लाजिमी हैं. ऐसे में कमेटी की ढाल को आगे बढ़ा कर आप पूरी तरह निरापद रह सकते हैं. कमेटी में एक और सिफ़त है. जब तक कमेटी है आपके राज-धर्म पर कोई उंगली नहीं उठा सकता. आप अंदर कमेटी की चादर तान कर मजे से सो सकते हैं. बस दफ़्तर के बाहर तख़्ती पर लिख छोड़ें- 'कमेटी चालू आहे'.
सवाल खड़ा होता है आखिर कमेटी है क्या? पांच सात भाई (एक दो कम ज्यादा भी चलेंगे) अथवा चार पांच भाई और एक दो बहनें यदि किसी पवित्र ध्येय से बैठतें हों, फिर-फिर बैठते हों, और इस अदा से बैठते हों कि फिर उठना भूल जाते हों, कमेटी कहलाते हैं. कमेटी का एक मुखिया होता है जो प्रायः संयोजक कहलाता है. संयोजक का काम आम तौर पर लोहे के चने चबाने जैसा होता है, एक आध अपवाद को छोड़ दें तो. मसलन, भरी दुपहरी में किसी वीरान खंडहर में तीन पत्ती की बैठक जमाते जुआरियों के गिरोह का संयोजन. हाथों में खुजली होने के कारण संयोजक की एक पुकार पर पास पड़ोस के नौनिहाल हाथों के कौर थाली में छोड़ बैठक ज़माने के लिए झटपट घरों से निकल पड़ते हैं. किन्तु, बाकी किसी कमेटी का संयोजक इतना सौभाग्यशाली नहीं होता। उसे अमूमन जहाँ-तहाँ चर रही गायों को हेर कर मांद तक लाने, ग्वाले की तरह दुहने से पहले उन्हें घंटों पावसाने और दूध उत्सर्जित करने के लिए सभी थनों को तैयार करने जैसे अतीव धीरज और हुनर वाले काम अंजाम देने होते हैं.
कमेटी बनाना एक हद दर्जे की ऊँची कला है जिसे सिद्ध करना हर किसी के बूते की बात नहीं है. कमेटी के सदस्य और संयोजक को चुनने में जरा भी ऊँच-नीच हुई तो अक्सर लेने के देने पड़ सकते हैं. इस काम में बहुत आगे का सोचना पड़ता है. अलबत्ता ऐसा होता नहीं, मगर फर्ज कीजिये कोई जांच कमेटी वाकई जांच कर दे, सच से पर्दा उठा दे तो यह कमेटी ही नहीं अपितु कमेटी के रचनाकारों का भी ठेठ निकम्मापन कहा जाएगा. अरे भाई, सच पर परदा था ही कब? वह तो पहले ही बच्चे बच्चे की जबान पर था. और जो सबको मालूम था उसे बता कर कमेटी ने क्या ख़ाक दायित्व निभाया . इससे बड़ा अनाड़ीपन भला और क्या होगा अगर कोई कमेटी एक और कमेटी की गुंजाइश न छोड़े, अपने ही साथियों के पेट पर लात मारे और कमेटी बनाने वाले अफसरों का ही निवाला छीन ले? इसी तरह किसी कमेटी का रेगिंग की घटना को व्यापक छात्र हित में आपसी झगड़ा साबित ना कर पाना दरअसल कमेटी के गठन में हुई गंभीर त्रुटि की और इशारा करता है. ऐसी गलतियां बार-बार होने लगें तो समझो अफसरों को कुछ दिन छुट्टी देने का सही वक़्त आ गया. ताकि वे अरण्य प्रस्थान कर किसी योग्य कमेटी-गुरु के श्री चरणों में बैठ कर अपनी कमेटी निर्माण क्षमता का संवर्द्धन कर सके.
जिधर भी निगाह उठाओ उधर ही मसले-मसले कमेटी ऐसे बैठी मिलेंगी गोया फूल फूल भंवरे बैठे हों. बस फ़र्क इतना है कि भंवरों के बरक्स ये कमेटी कभी कभार ही उठती हैं. किसी मसले पर गुफ़्तगू को बैठी कोई कमेटी यदि उठ जाये और आप सोचें कि उठने के साथ ही मसले का कोई हल निकल आएगा, ऐसा नहीं होता .
सनम दिखलायेंगे राहे वफ़ा
ऐसा नहीं होता
बंदगी से मिलेगा ख़ुदा
ऐसा नहीं होता
ये जो तुम कहते हो
कि सब हो चुका
ऐसा नहीं होता
कारण साफ़ है. यदि ऐसा हो जाये तो सन्देश जायेगा कि कमेटी से ज्यादा काबिल कोई है ही नहीं। यानि कमेटी से ऊपर के लोग काबिल ही नही. सो होता यह है कि कमेटी मसले पर अपनी तजवीज़ एक बड़ी, ऊंची और ज्यादा काबिल कमेटी को बैठने के लिए दे देती है. चंद दफ़ा यह बड़ी, ऊंची और काबिल कमेटी बिना कायदे से बैठे एक दो उलटे-सीधे नुक्स निकाल कर मसौदा वापस पुरानी कमेटी को एक बार फिर बैठने का कह कर लौटा देती है. वैसे ही, जैसे फाल्स स्टार्ट के बाद धावकों को फिर से स्टार्ट लाइन पर भेज दिया जाता है. मुद्दे का मुकद्दर ठीक रहा तो बड़ी, ऊंची और काबिल कमेटी पिछली कमेटी की रिपोर्ट बैठने लायक समझते हुए बैठी रहती है. इस दौरान मुद्दई को ज़ब्त कर बैठे रहने का नेक मशविरा दिया जाता है.
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दआ
मसलों के हिसाब से कमेटियां किसिम किसिम की होती हैं. इक्की दुक्की कमेटी इस कदर भारी भरकम होती है कि कामकाज निपटाना तो दूर ये अपना आपा ही ढंग से नहीं संभाल पाती. मुद्दे में मामूली सा गहरा उतर जाने पर इनके तत्काल धंस जाने का ख़तरा रहता है. ऐसी सूरत में इन्हे गड्ढे में गिरे हाथी की तरह फिर से बाहर निकाल कर खड़ा करना भारी पड़ जाता है. अतः यह ध्यान रखा जाता है कि इस तरह की कमेटी अपने कार्य काल में एक बार भी ना बैठ पाए. इसी में सबकी भलाई होती है. मगर कमेटी न बिठा कर काम काज का हर्जाना तो किया नहीं जा सकता. लिहाज़ा सयानों द्वारा इसका तोड़ इस तरह निकाला जाता है. भीमकाय कमेटी के बदले एक छोटे डील डौल वाली एक ऐसी कमेटी बनाई जाती है जिसमे मूल कमेटी की पूरी पावर कूट-कूट कर भर दी गयी हो. इसीलिए इसे अक्सर हाई पावर कमेटी या स्टेंडिंग कमेटी जैसे नामों से पुकारा जाता है. इस कमेटी को यह अख्तियार होता है कि वह जो भी फैसले ले, वे बड़ी कमेटी की तरफ से लिए गए फैसले मान लिए जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे लाख पापड बेलने के बाद पकी उम्र में लड़की की शादी को भी परम पिता की असीम अनुकम्पा से आया हुआ प्रसंग मान लिया जाता है.
अपने लम्बे तजुर्बे से कई कमेटीबाज इस कदर खुर्रांट हो जाते हैं कि उन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि कमेटी का मकसद क्या है. बिलकुल उन पेशेवर गवाहों की तरह जिन्हें यह बताने की जरूरत नहीं होती कि मुक़दमा फौजदारी का है या दीवानी का. इन घाघ कमेटीबाजों को पता रहता है कि इन्हें क्या करना है- हाजिरी रजिस्टर पर सही करना, यात्रा भत्ता, बैठक शुल्क और स्व-अल्पाहार लेना तथा रिपोर्ट के आखिरी पन्ने पर नीचे चिड़िया बैठा देना। यदा कदा कोई नादान कमेटीबाज भी टकर जाता है. गरूर खा कर जो सोचने लगता है कि अपनी सिफारिशों से वह दुनिया पलट देगा, भटकी हुई व्यवस्था की भैंस को रिपोर्ट के लट्ठ से सही रास्ते पर डाल देगा। जरूर....! मगर रिपोर्ट लिफ़ाफ़े से बाहर आएगी, तब ना! वरना जंगल में मोर नाचा, किसने देखा?
Apne ghar ki kameti ki sanyojak to main hi hun...yahan mor jungle me nhi nach sakta....! Nicely written..
ReplyDeleteJungle to bahut door ki baat hai, patiyon ke aise naseeb kahan? Ye bechara jeev bas patniyon ki ungli tak hi naach sakta hai!!
DeleteBeautifully explained the topic , Nice
ReplyDeleteयदा कदा कोई नादान कमेटीबाज भी टकर जाता है. गरूर खा कर जो सोचने लगता है कि अपनी सिफारिशों से वह दुनिया पलट देगा, so bat ki ak bat par kahan ho pata aissa .?....bahut sundar warnan ...with illustration
ReplyDeleteआप लोगों ने पोस्ट पर अपना संडे कुर्बान किया और टिपिया कर हमें तवज्जो भी दी, आभार....
ReplyDeleteKaun si committee ban gayi Edu Dept mein? Inspiration of this?
ReplyDeleteSIR WAH KYA KAHNE COMMITTEE KE BARE MEIN COMMITTEE HI HOTI JISASE KUCHH KAAM BANTE BANTE BIGAD JAATE HAIN
ReplyDeleteजब आपने बताया तब देखा.. अब तो ऑफिस का समय हो गया.. शाम को मरम्मत करता हूँ और मज़ा लेता हूँ आपकी इस धारदार पोस्ट का!! लौतकर कहता हूम अपनी बात!! पहले पता चलता तो हम प्रोफेसर साहब की क्लास में फर्स्ट आते.. !!
ReplyDeleteA well discussed topic with a tinge of freshness in the illustration!
ReplyDeleteसोचा था ऑफिस से आकर ही पोस्ट पढूँगा, लेकिन आपकी पोस्ट का नशा तो ऐसा है कि बिना चखे जी भी नहीं मानता. सो बैठ गया पढने.
ReplyDeleteदेश के ऐसी-तैसी कारकों ने "किस्सा कुर्सी का" देख रखी है या उन्हें सबसे पहले वही दिखाया जाता है ताकि वे देश की समस्याओं को बरकरार रखकर कमेटी धर्म का पालन कर सकें. मगर मुझे तो लगता है कि ऊपर वाले के ख़िलाफ़ भी एक कमेटी बिठाने की ज़रूरत है कि परसाई, शरद जोशी और आप जैसे व्यंग्यकारों को एक प्रदेश विशेष में ही क्यों डिस्पैच किया जा रहा है.
त्यागी सर! तेल और तेल की धार तो बहुत देखी, मगर यह तो वो धार है जिससे बन्दे की नाक भी कट जाए और वो इसे फैशन मानकर नककटा फ़ख्र से घूमता फिरे. प्रणाम.
पुनश्च:
लगता है लिंक में ही कोई तकनीकी समस्या है. मैंने कई बार फेरबदल कर देखा, लेकिन आपकी पुरानी पोस्ट ही बता रहा है!!
शिव, शिव, शिव, ....! क्यूँ पाप के गड्ढे में ढकेलते हो, सलिल भाई? कुजा राम राम कुजा टप टप! कहाँ शरद जोशी जी और शंकर परसाई जी और कहाँ ये मामूली कलम घिस्सू...! उनकी बगल में बैठने की सोचने की हिमाकत हम नहीं कर सकते!! जिस दिन शरद जोशी जी के पासंग भी हो गए, परसाई जी की परछाई भी बन गए, उस दिन खुद को धन्य समझेंगे।
ReplyDeleteअलबत्ता, आप के प्यारे अल्फ़ाजों ने हमे लूट लिया....
ये नसीब बना रहे, यही इल्तिजा!!
आमीन!
शिव, शिव, शिव, ....! क्यूँ पाप के गड्ढे में ढकेलते हो, सलिल भाई? कुजा राम राम कुजा टप टप! कहाँ शरद जोशी जी और शंकर परसाई जी और कहाँ ये मामूली कलम घिस्सू...! उनकी बगल में बैठने की सोचने की हिमाकत हम नहीं कर सकते!! जिस दिन शरद जोशी जी के पासंग भी हो गए, परसाई जी की परछाई भी बन गए, उस दिन खुद को धन्य समझेंगे।
ReplyDeleteअलबत्ता, आप के प्यारे अल्फ़ाजों ने हमे लूट लिया....
ये नसीब बना रहे, यही इल्तिजा!!
आमीन!
वहाँ भी तकनीकी समस्या, यहाँ भी ऐसा ही कुछ... वहाँ छप नहीं रहा, यहाँ दो दो बार छप रहा है।
ReplyDeleteआज दो दो त्रुटियाँ दिखाई दे रही हैं.. लेकिन आपका मेल आई डी है नहीं इसलिय मेल में कह नहीं पा रहा और यहाँ लिखना मुझे अशोभनीय लग रहा है!! :)
ReplyDeleteअच्छा गुरु वही है जिसमें चेला भाव बना रहता है। सो, गुरु के सदा कई-कई गुरु होते हैं। कोई कोई चेला गुरु का भी गुरु बन जाता है। आपको चेला बनाने का सौभाग्य तो इस जिंदगी में प्राप्त नहीं हुआ, किन्तु गुरु तो बनाया ही जा सकता है।
ReplyDeleteकृपया संकोच न करें और हमारा शिष्यत्व स्वीकारें। एक और विकल्प है मित्र-गुरु का- अर्जुन कृष्ण वाला.... वो भी चलेगा।
मेरा ई-मेल है: sktyagi.sk@gmail.com मुझे आपकी मेल की प्रतीक्षा रहेगी। दूसरे, खुशी है कि एक ऐसा चेनल भी खुलेगा जिसमे निजी बातें भी शेयर की जा सकेंगी।
सलिल भाई, मसाइल (एक वचन /बहु वचन) वाली त्रुटि ठीक कर दी है..... कमेन्ट में (लफ़्ज़/अल्फ़ाज़) वाली अभी ठीक नहीं कर पा रहा।
ReplyDeleteदक्षिणा फिर कभी, अभी तो ‘आभार’ से ही काम चलाना पड़ेगा।
शर्मिन्दा कर रहे हैं आप!! आपका सान्निध्य मिला और व्यक्तिगत रूप से आपको जानने का अवसर प्राप्त हुआ... यह दक्षिणा नहीं, ईनाम है अपने गुरु का प्रिय शिष्य होने का... मेरा उत्तरदायित्व और बढ़ा दिया आपने.
Deleteकभी हमारे तईं भी कुछ ऐसा-वैसा निकल आये तो हिसाब बराबर कर लीजियेगा गुरुदेव!! :)
आपने देखा है और पक्का देखा है शरमाइये मत कह डालिये देखा है :)
ReplyDeleteलाजवाब ।
आभार जोशी जी, हौसला देने के लिए. अंकुर जैन साहब, प्रशंसा के वास्ते!
ReplyDeleteआज लेखक के माध्यम से कमेटी का महत्व जाना . विस्तारपूर्ण व्याख्या की गयी . सुन्दर प्रस्तुति .
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