Friday, February 6, 2015

कुहरे का कहर- उर्फ़ पहली कसम


कल घडी के काँटों के साथ बढ़िया रेस खिली. ९:२० पर दिल्ली के एयरपोर्ट पर उतर कर नयी दिल्ली से १३:५५ पर छूटने वाली कटिहार की राजधानी पकडनी थी. यही कोई साढ़े चार घंटे थे हाथ में. किन्तु इंदौर से टेक ऑफ ही १२:२० पर हुआ, लेंडिंग डेढ़ बजे. ट्रेन मिलने की उम्मीद छोड़ी नहीं थी. आखिर कुहरे की कोई फ्लाईट से ही दुश्मनी तो थी नहीं, राजधानी भी तो लेट हो सकती थी! एयरपोर्ट से नयी दिल्ली की मेट्रो पकड़ी ही थी कि खबर मिली कि राजधानी छूटे हुए पाच मिनट से ऊपर हो चुके हैं. ऐसा लगा जैसे विदेशी धरती पर टीम इंडिया एक बार फिर जीतते-जीतते रह गयी हो.

बेटे को फोन कर अगले दिन पटना की फ्लाईट बुक करायी. सुबह दिल्ली के गुलाबी बाग़ से जब निकले तो हल्का कुहरा नज़र आ रहा था. मेट्रो स्टेशन पहुंचते-पहुंचते यह कैंसर की तरह सब तरफ फैल चुका था. एयरोसिटी स्टेशन से टर्मिनल १ की तरफ जाते-जाते तो इसने विकराल रूप धर लिया था. दिन ज्यूँ-ज्यूँ चढ़ता गया, कोहरा त्यूं-त्यूं गहराता गया. लगा 'दर्द बढ़ता गया, ज्यूँ-ज्यूँ दवा की' लिखने की प्रेरणा मोमिन को जरूर दिल्ली के कुहरे से ही मिली होगी. संतों की वाणी याद आई. जहाँ "मैं" है, "तू" नहीं है. "तू" है, वहाँ "मैं" नहीं है. कोई एक ही हो सकता है. पहली बार आज इसका मर्म समझ में आया. यही- कि धुंध है तो जग नहीं, जग है तो धुंध नहीं. ता में दुई ना समाहीं. ख़याल आया जैसे बर्फ़ काट कर सड़क खोल देते हैं, ऐसे ही धुंध काट कर रन वे खोलने की मशीन कहीं तो जरूर होती होगी!

वेटिंग लाउंज में बैठे बाहर कोहरे पर नजर गडाये बचपन के दिन याद आ रहे हैं. थोड़े बड़े हुए ही थे कि इंटर कालेज में बड़ों की सोहबत का असर पड़ना शुरू हो गया था. गर्मियों के दिनों में अक्सर रोटी-अचार-गंठा लेकर घर से निकलते. मगर स्कूल नहीं पहुँचते. बरला गाँव के ठीक पहले  पड़ने वाली गरभी (छोटी नहर) में डुबकियाँ लगा कर बालू में लोट रोटी-अचार-गंठा खाते और घर लोट आते.

मालूम होता है आज वही इतिहास दोहराया जायेगा. भतीजी के बाँध कर दिए गए परांठे खा कर वापस घर जाना पड़ेगा. 'तीसरी कसम' के 'हीरामन' की तरह इस पहली कसम के साथ:

      कुछ हो जाये आइन्दा जनवरी के महीने में कभी उत्तर भारत का रुख नहीं करेंगे!!  

5 comments:

  1. aapko lagta hai k january aapki baat sunegi aur uttar bharat mein nahin bulaegi!!!!.. :)

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  2. पहली बार आज इसका मर्म समझ में आया. यही- कि धुंध है तो जग नहीं, जग है तो धुंध नहीं. ता में दुई ना समाहीं. ख़याल आया जैसे बर्फ़ काट कर सड़क खोल देते हैं, ऐसे ही धुंध काट कर रन वे खोलने की मशीन कहीं तो जरूर होती होगी! sir hamne bachpan usi kohre me bitai hai ...aap ik bar badh me bhi jaiye bahut sare rahasy khulenge ..sundar prastuti ....

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  3. आधी रात के बाद मोबाइल पर पढ़ लिया है। अपनी बात कल कहेंगे!!

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  4. कोहरा को हरा कर यात्रा करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है गुरुवर! अगर विमान और रेलगाड़ियाम सही वक़्त पर चल रही हैं तो आँख मूँदकर किसी से भी सर्त लगा लीजिये आठ आने की - ज़रूर चौबीस घण्टे विलम्ब से चल रही होंगी. और आपने यह कैसे अनुमान लगाया कि दिल्ली से चलने वाली राजधानी भी विलम्बित सुर में आरोह लेगी? गुरुदेव, बकहपन में राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह का एक आलेख/कहानी पढा/पढ़ी था/थी जिसकी ये पंक्तियाँ आज भी मस्तिष्क में अंकित हैं - चमन में फूल खिलते हैं, वन में हँसते हैं.
    जनवरी में उत्तर भारत की यात्रा में उन पंक्तियों का इस प्रकार रूपांतरण हुआ है - कोहरे में रेलगाड़्याँ लेट होती हैं - लेट छूटती नहीं! अर्थात राजधानी ने दिल्ली सही समय पर छोड़ा लेकिन रास्ते में कोहरे का चमत्कार!
    कोहरे और धँए पर एक लमबा लेक्चर याद आ रहा है प्रिय ओशो का भगवद्गीता के सन्दर्भ में. लेकिन वो फिर कभी!!
    "तीसरी कसम" के अंचल में जाने को निकले आप, पहली कसम के बाद ही वहाँ पहुँच पाये, हम तो कहेंगे - मारे गये गुल्फ़ाम!! :)

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  5. लेख बहुत पसंद आया.सुगठित था.यातायात व्यवस्था कबीर के दोहे व हीरामन का उल्लेख रोचक लगा.

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