हाँ तो मेहरबान, कद्रदान...आप सुन रहे थे सन्डे
क्रिकेट की दास्तान. अर्ज़ है कि यह न टी-ट्वेंटी है, न टेस्ट है, न वन डे है... यह
क्रिक्रेट तो हुजूर बस सन्डे है. यहाँ न कोई बी. सी. सी. आई को मानता है न किसी आई.
सी. सी को. अलबत्ता खेलने वाली टीमें जिन बातों पर राज़ी हो बैठें, उन्हें ही खेल
का 'काजी' मान लिया जाता है. इधर देखिये...यहाँ 'वन-ए-साइड' मैच खेला जा रहा है. बल्लेबाज
महाशय जो हैं वे गेंदबाजी को छोड़ कर बाकी जो भी करने का है वो सब कर रहे हैं!
खड़िया पुते हाथों से स्कूल की घंटी बजा रहे शख्स से बेटी का दाखिला कराने आये पिता
ने जब प्रिंसिपल के बारे में पूछा, तो बोला- मैं ही हूँ, कहिये! कुछ-कुछ ऐसी ही
सूरते हाल यहाँ है. उधर क्रिकेट की एक नई विधा ईजाद की जा रही है. विकेट कीपर की
जगह दूसरा बल्लेबाज छाया (डुप्लीकेट) बल्लेबाजी कर रहा है. चोंकिये नहीं! यह सन्डे
क्रिकेट है, इसकी अपना राजपत्र है...यहाँ कुछ भी चलता है.
अब देखिये न, मैदान तो एक है किन्तु मैच न जाने
कितने खेले जा रहे हैं! 'जिसने पेट दिया है, गिजा भी देगा' के भाव से भरे डंडियाँ हाथों
में लिए बच्चों-बड़ों के दल के दल हर सन्डे सुबह इस मैदान की ओर उमड़ पड़ते हैं. दशहरा
मैदान सी भीड़ होने के बावजूद भी किसी न किसी ठौर डंडे गाड़ ही लेते हैं. मजे की बात
यह है कि इस पर भी इक्का दुक्का झुण्ड मैदान के किनारे खड़ा हुआ देखा जा सकता है-
वीक एंड पर किसी रेस्टोरेंट में टेबल के खाली होने का इंतजार सा करता! ताकि ज्यूँ
ही मैदान का कोई हिस्सा खाली होने को आये, झपट्टा मार कर कब्ज़ा लिया जा सके. अब इस
मोड पर आगे बढ़ने से पहले गर कोई यक्ष-नुमा श्रोता पूछ बैठे- "किस्सागो! आखिर इतने मैच एक ही मैदान पर
खेले जा रहे हों तो आखिर इस जमघट में खिलाडी को इस बात का इल्म कैसे हो जाता है कि
उसे इसी गेंद को फील्ड करना है?" तो इस पर अपना युधिष्ठिराना जवाब होगा -
'गेंद में एक आसमानी ताकत होती है, वह बू से सही खिलाडी को यूँ ही पहचान लेती है
जैसे ढोरों के रेवड़ में कोई गाय अपना बछड़ा ढूंढ लेती है!!
चलो, अब आपको इस क्रिकेट की फील्डिंग का
मुजाहिरा कराने लिए चलते हैं. इन महाशय को देख रहे हैं, इनमें बड़ी सिफ़त है... ये
जिस जगह खड़े कर दिए जाते हैं वहीँ धरती को पकड वैसे ही खड़े रहते हैं जैसे शोपिंग
विंडो पर दिन भर के लिए किसी बुत को खड़ा कर दिया जाये. आइये, अब जरा अगली टीम पर ध्यान
लगायें. गौर करें तो इसके तमाम खिलाडी दो तीन ढेरियों में रखे जा सकते हैं. अव्वल
तो वे हैं जिन्हें देख कर ऐसा मालूम होता है गोया उन्हें कैच छोड़ने की प्रेक्टिस
करायी जा रही हो. दूसरी ढेरी में वे खिलाडी हैं कि अगर गेंद उनके बीचो-बीच से गुजर
रही हो तो वे बूढी माँ की तरह गेंद के रक्षण का भार एक दूसरे के कन्धों पर डालते
नजर आते हैं. तीसरी और आखिरी किस्म के खिलाडी वे हैं जो उस सूरत में, जब दूर-दूर
तक कोई दूसरा मौजूद ना हो और गेंद सीधे उनकी छाती पर चढ़ी जा रही हो तो गेंद के साथ
अजीबो-गरीब हरकत को अंजाम देने लगते हैं. देखो तो यूँ मालूम होता है मानों दोनों
हाथों से ट्यूबवेल की मोटी धार को रोकने के नाम पर हर ओर से पानी निकलने का रास्ता
दे रहे हों.
अब थोडा बल्लेबाजी का भी दीदार कर लीजिये तो
बेहतर हो. इस बल्लेबाज को देख कर लगता है कि इसे बाउंसर खेलने का अभ्यास कराया जा
रहा है. किसी बॉल पर बल्ला चल जाये तो ठीक वरना ऐसा नजारा नजर आता है जैसे रोटी
बेलती गृहिणी बेलन की चोट से मच्छरों को रसोईघर की सीमा रेखा से बाहर भेजने की जुगत
में भिड़ी हो. खुदाया शॉट लग जाये तो भी बल्लेबाज रन के लिए नहीं दौड़ता. सोचता है कि
"क्यूँ भागूं...अगली बार इकठ्ठा चार रन ले लूँगा!" विकेटकीपर भी नहीं
भागता, क्यूंकि बल्लेबाज क्रीज से बाहर ही नहीं निकला तो रन आउट किसे करे. फील्डर
के भागने का सवाल इसलिए नहीं पैदा होता क्यूंकि उसे पता है सैर कर रहे कोई न कोई
अंकल गेंद उठा कर फेंक ही देंगे. कुल मिला कर कस्बे की जिंदगी की तरह सब कुछ दुलकी
चाल से चलता रहता है जब तक थके-हारे ट्रक
ड्राइवर को झपकी आ जाने पर हादसा सा कुछ न घट जाये और बल्लेबाज खुद की गलती से
बोल्ड ही न हो जाये! ऐसे में टीम के तमाम खिलाडी बॉलर को घेर कर बधाइयों से यूँ
दाब देते हैं मानों कस्तूरीरंगन ने पाकिस्तान की तरफ मुंह कर के कोई मिसाइल दाग दी
हो.
क्रिकेट का अफ़साना कहा जा रहा हो और दर्शकों का
जिक्र ही न आये तो यह उनके साथ नाइंसाफी होगी. मैदान के बाहर खड़े मैच देख रहे चंद
युवकों को देख कर लगता नहीं ये मैच देख रहे होंगे. देख रहे होते तो कभी उछलते,
डूबते-उतराते, चीखते-चिल्लाते. दिनकर के 'प्रलय पुरुष' की तरह यूँ ही सलिल प्रवाह
नहीं देखते.... इसी तरह कुछ कमसिन युवतियां अपने सख्तजान भाई या बाप के पहरे से
निकल कर मैदान के कोने में खड़ी अपने प्रेमी से मोबाईल पर चैट में नहीं लगी रहतीं!
सन्डे क्रिकेट से देश और देशवासियों को बहुत बड़ा
फायदा हो सकता है. यदि आई. पी. एल. सन्डे क्रिकेट की तर्ज़ पर कई मैच एक साथ एक ही
मैदान पर खिला ले तो पांच सात दिन में ही यह झंझट ख़त्म हो सकता है! ऐसा हो जाये तो
देश महीनों तक बंधक न रहे.... और हमारी आपकी भी बस फुर्सत ही फुर्सत!
आज तो आपने बचपन से लेकर जवानी की तमाम यादों के बाउंसर एक साथ डाल दिये. न विकेट कीपर की तरह सम्भाला जा रहा है, न बल्लेबाज की तरह इसपर चौका-छक्का जमाया जा सकता है. अलबत्ता चियरलीडर्स की तरह झूमते, मटकते हुये उसे खोये हुये दिनों का ऐक्शन रिप्ले ही जिया जा सकता है.
ReplyDeleteकोलकाता में हड़ताल का मतलब हड़ताल होता है. यानि पूरा शहर ख़ामोश और ऐसे में क्या मेन रोड और क्या गलियाँ... सब क्रिकेट का मैदान बन जाती हैं! और बचपन का गाँधी मैदान... सारा नज़ारा एक साथ घूम गया.
आपने सबका ज़िक्र किया, बेचारे कमेण्टेटर को छोड़ दिया... फिर हमने सोचा कि एक मैच की कमेण्टरी तो कोई भी कर लेगा, लेकिन एक साथ इतने मैचों की कमेण्टरी तो हमारे गुरुदेव के बस की ही है!
छा गये गुरू(देव)!!
सही कह रहे हैं सलिल भाई, कैमरा मैन की मुसीबत का भी बस अंदाज़ ही लगाया जा सकता है. हर छोर से अलग-अलग कमेंटेटर कमेंट्री कर सकते हैं, पर सुनने वाले को ब्रह्मा का मुंह लगाना पड़ेगा!
Deleteआभार आपका भी, शिवम् भाई!
ReplyDeleteBariki se kiya gaya...sundar vishleshan..vividh rango ke sath...
ReplyDeleteBlog par najar e inayat ka shukriya
DeleteHum to rasoi ki cricket se aur class ki cricket se bahut achhi tarah vakif hai...ye maidan ki cricket door se dekhkar khush ho jate hai.. shaandaar kalam chalai hai...
ReplyDeleteRasoi ke balle se to Facebook achchi tarah vakif hai...
ReplyDeleteSunday hi kyu.. St paul k maidan me har PT period mein ye hi mahaul rahta tha.. Waiting me hamesha junior class wale rahte the.. Jo agar maidan par khel bhi rahe hote the to seniors dwara khaded diye jaate the..
ReplyDelete'Survival of the fittest' ki theory Darwin ne Sunday cricket ko dekh hi di hogi
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeletethanks dear
Deleteलेख रोचक है.
ReplyDeleteThanks for liking madam
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