हम सुर संध्या में शिरकत करने जा रहे थे। संध्या स्थल करीब था, संध्या की घड़ी भी करीब थी किन्तु सड़क पर मुर्दनी सी छाई हुई थी। दूर-दूर
तक अपनी गाड़ी के अलावा कोई दूसरा वाहन दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। ड्राइवर को गाड़ी
साइड में लगाने का बोल हमने कार्ड पर डली तारीख की जांच परख करना उचित समझा। देखा
तो पाया कि तारीख तो आज ही की थी।
फिर साथियों से तसदीक की कि आज वही तारीख थी भी
कि नहीं जो कार्ड पर डली थी। कहीं
ऐसा तो नहीं कि हम एक आध दिन आगे पीछे चल रहे हों। तय पाया कि सब कुछ ठीक था मगर पता नहीं क्यूँ लग रहा था कि कुछ भी
ठीक नहीं है। ...ऑडिटोरियम के प्रवेश
द्वार पर भी वीरानी पसरी थी। अलबत्ता पार्किंग स्थल
पर दो चार लोग बारिश में भीगी
चिड़ियाँ से जरूर गुमसुम खड़े थे। अंदर पहुंचे तो सभागार का भी यही हाल था। यहाँ-वहाँ इक्के
दुक्के श्रोताओं की दूब को छोड़ दें तो हॉल एक गुडा निरा खेत सा नजर आ रहा था।
हमें बैठे बैठे अमूमन आधा पौना घंटा बीत चला था। श्रोताओं
की कई नई कतारें उग आई थीं। अब मंच पर आ चुके कलाकारों ने अपने-अपने माइक को ठोक बजा कर देखना शुरू
किया। वे कभी एक माइक में वॉल्यूम बढ़वाते, कभी दूसरे में
घटवाते। कार्यक्रम के सूत्रधार बीच-बीच में स्टैंड पर आ खड़े होते और न जाने काहे
का जायजा लेने लगते। कभी लगता
मानो गिन रहे हों कि पुरुषों की तादाद एक सौ तेईस और स्त्रियॉं की नब्बे पहुंची कि नहीं! टार्गेट में कमी देख कर
फिर पर्दे के पीछे गुम हो जाते। इसी बीच तबलची ने एक मिनी हथोड़े से किनारे-किनारे
ठुक ठुक करके देखा कि तबले के मुंह से कैसी आवाजें आती हैं, फिर बीच में थपकी देकर देखा कि कहीं उसका पेट कुछ नरम गरम तो
नहीं? पास वाले साज़िंदे ने दुल्हिन की तरह सजे-धजे
मटके को घुमा घुमा कर खूब अच्छी तरह उसकी ऊंच नीच निकाली और पेंदी को ठीक से जमाया। साथ ही एक पत्थर से टनटना
कर देखा कि कहीं ससुरा प्रस्तुति के दौरान दगा तो नहीं दे जाएगा? गिटारिस्ट ने एक ढिबरी से गिटार के पेच कसे और तारों की
तनातनी टेस्ट की। उनके संगतबाज एक कलाकार ने घण्टियों की लड़ की हर घंटी को एक छोटे सरिये से पीटते हुए लड़ की मजबूती
टेस्ट की। वे मदारी के झोले में से तरह
तरह के औजार जैसे पाना, पेंचकस, सीटी, झुनझुने, घंटी, ढपली, थाली-चम्मच, बच्चों के चूँ चूँ बोलते खिलोने आदि बरामद करते, फिर
उनसे विचित्र विचित्र किस्म की आवाजें निकालते और वापस झोले के सुपुर्द करते जाते। इसी बीच हमने गौर किया कि सूत्रधार एक बार फिर कोने में पोजीशन लेकर आ खड़े हैं और श्रोताओं
की हरकतों पर निगाह रखे हुए हैं। सीट
लेने के बाद मुमकिन है अभी तक हर श्रोता ने कम से कम अट्ठारह
लोगों से हाथ नहीं मिलाया था, चौबीस जंभाइयाँ नहीं ली थीं, बीस बार मोबाइल पर
मिस काल चेक नहीं की थी, और
ग्यारह बार मुड़ मुड़ कर नहीं देखा था कि हाल अभी कितना भरा, सो उन्होने संध्या को बढ़ा कर निशा की ओर ले जाना मुनासिब नहीं समझा।
संध्या में तब नया मोड आया जब कलाकारों को प्लास्टिक के ऐसे गिलासों में कोई अज्ञात पेय
पेश किया गया जो डाबर जन्म घुट्टी की शीशी के ढक्कन से क्या ही बड़े रहे होंगे। पेय
पदार्थ की खुराक, उसके परोसने के अंदाज़ तथा सेवन की विधि से उसके चाय, जलजीरा अथवा सोमरस होने के सभी अनुमान गलत सिद्ध हो रहे थे। यही वजह है कि मैंने इसे अज्ञात कहा। थोड़ी
देर बाद मंचासीन कलाकारों को न जाने क्या सूझी कि वे
एकाएक उठ कर सामूहिक रूप से अन्तः गमन कर गए, जैसे मरीज के परिजनों से पिट कर सरकारी अस्पताल के रेजीडेंट डॉक्टर त्वरित हड़ताल पर चले जाते है। जानकारों से खबर लगी कि आयोजकों के कम से कम तीन सौ डेसिबेल
तक की तालियों की गड़गड़ाहट के झूठे
वायदे से खफ़ा होकर वे सब कोप भवन में जा
बैठे हैं। इससे पहले कि कलाकार मंच पर लौट कर अलाप छेड़ते, हमारे
समेत कई अगुणी श्रोताओं ने हॉल छोड़ कर घर का रुख
करने में ही भलाई समझी।
Yeh (Dur)Ghatnaa kab ki hai? Kahan pahumch gaye the?
ReplyDeleteAise mauko par time pe pahuch k jagah veerani paane k to aap aadi ho chuke hoge.. Yaad hai vo anginat shaadiya jaha samay par jana to paap hai!
ReplyDeleteLekin shayad asali sawal ye ki kalakaar bheed ki ummeedo par paani fir jaane ki vajah se zyada mayoos hue ya aap kalakaaro k gayab ho jane se?! Shayad kisi kalakaar ka blog is baat ka jawab dega :)
शरद जोशी जी ने एक बार लिखा था कि "हेलो... हेलो... माइक टेस्टिंग" बतर्ज आपके छोटे हथौड़े और अन्य उपकरण/ औजार/यन्त्र आदि का वाद्ययंत्रों पर प्रयोग ऐसा प्रतीत होता था मानो बकरे (आप जैसे सुधि श्रोता जन) को हलाल करने के पहले चाकू की धार (आवाज़ के डेसीबल के किलोबेल होने की प्रक्रिया) देखी जा रही हो.. अच्छा हुआ कि आप हलाल होने के पूर्व भाग खड़े हुए!! कीर्ति चक्र या शौर्य पुरस्कार में नामित होने योग्य कार्य.. त्यागी सर, शानदार!!
ReplyDeleteसलिल भाई, हम तो भगोड़े साबित हुए सो अपकीर्ति चक्र के हकदार हैं!
ReplyDeleteलाजवाब. आपका भी अच्छा मनोरंजन हो ही गया होगा. जब कोई कार्यक्रम प्रारंभ ना हो तो उसकी भूमिका का ही आनंद लिया जा सकता है. शबे मालवा का हिस्सा!
ReplyDeleteचलिए अच्छा हुआ कि वह सुर-संध्या सज नहीं पाई, नहीं तो न आप बोर होते और न हीं आपके कर-कमलों से यह कृति निकलती।
ReplyDeleteवाद्य-यंत्रों को/का आपने जिस तरह बजाया है, उसका कोई सानी नहीं।
बधाईयाँ!!
जीवन में कभी - कभी ऐसे अवसर आ जाते हैं .....याद के पल कुछ और होने चाहिए और याद कुछ और बन जाती है ....जीवन भी क्या विरोधाभास है ....!
ReplyDeleteयह भी हो सकता है की उन लोगो को यह खबर लग गयी हो की आप यहा पधार चुके है और यदि ज़रा भी कोई ग़लती वो लोग अपने संगीत के कार्यक्रम मे करते तो "त्यागी उवाच" के माध्यम से निसंदेह ही वीरगति को प्राप्त हो जाते इस कारण उन्होनो वहा से पिंड छुड़ाने मे ही अपनी भलाई समझी !
ReplyDeleteअपन कोई विश्वामित्र ठहरे क्या जो अपने डर से धरती वीरों से यूं खाली हो जाए....???
DeleteSir, 2*4 Contigency Table: 123M, 90F: 9-9 (18) hath milana, 12-12 (24) jambhaiyan, 10-10 (20) mobile check, 5.5-5.5 (11) mud-mud k dekhna!!........ hypothesis definitely reject hogi, direction chahe kuch bhi ho....:))
ReplyDeletegood girl!...doing your home work on chi-square sincerely!!
DeleteAye Aye, Sire!
Deleteआज एक ज्ञान हुआ कि आपकी पोस्ट पान घुला कर नहीं पढ़नी चाहिए। जोर की हंसी आई तो लैपटॉप रंग जाने का खतरा है। आज तो बच गया नोटेड फॉर फ्यूचर। वैसे आपको पूरा समय देना था। कुछ और खिंचाई पढ़ने को मिल जाती।:)
ReplyDeleteHahaha.. paan! :)
Deleteइससे पहले कि कलाकार मंच पर लौट कर अलाप छेड़ते, हमारे समेत कई अगुणी श्रोताओं ने हॉल छोड़ कर घर का रुख करने में ही भलाई समझी। ghar to aa gye pr khali hath nhi aaye sir ik anubhav to sath aa hi gaya jo blog ki shobha bdha rha hai aur hm jaison ko ik sikh de rha hai.
ReplyDeleteसही कहा आपने, अब गए थे तो कुछ तो लाते ही न! यूं भी आनंद उठाते, यूं ही आनंद उठा लिया...!!
Deleteआइंदा हम भी पूरी प्रस्तुति में मौजूद रहेंगे...आपके शब्दों में बोले तो 'नोटेड फॉर फ्यूचर'!
ReplyDeletemahttv poorn prasstuti ke liya sadar abhar.
ReplyDeleteजो हुआ सही हुआ या सही नहीं हुआ(सुविधानुसार पढ़ लें), संगीतकारों के जाने की वजह शायद मैं आपको बता सकूँ। दर्शकों में नारीशक्ति की संख्या अपेक्षा से कम रही होगी, जिसके कारण अपेक्षित डेसिबल स्तर नहीं पाया जा सका होगा।
ReplyDeleteवे सब कोप भवन में जा बैठे हैं
ReplyDeletelol
nice post
सशक्त व्यंग्य रचना।
ReplyDelete