अपने कभी गौर किया कि शायर, कवि आदि किसी किसी मिसरे को छह-छह बार
क्यों दोहराते हैं? यह मत सोचिए मैं छह-छह बार का कह कर कुछ ज्यादा ही हांक रहा हूँ! इसके उलट मेरी अर्ज़ है कि मैंने अपने पूरे होशो हवास में, जरूरी सतर्कता बरतते हुए ही ‘किसी किसी मिसरे’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है। वरना हकीकत तो यह है कि मुशायरों के कई महारथी अमूमन हर लाइन को चाहे वह मतला
हो या मकता बाकायदा ताल ठोक ठोक कर इतनी बार दोहराते हैं कि श्रोताओं को मजबूरन एक ही ग़ज़ल की कई कई प्रतियाँ श्रव्यस्थ करनी पड़ जाती हैं।
यही नहीं, कई कई ज़ालिम तो ‘अर्ज़ किया है...’ की बंदिश से बाहर निकलने में अरसा छटपटाते रहते हैं। सुनने
वाले लाख ‘इरशाद’ ‘इरशाद’ का ज़ोर क्यों न लगाते रहें, मजाल है जो ये मतले की डिलीवरी आसानी से
सम्पन्न हो जाने दें।
श्रोताओं की तरफ से किसी शेर को फिर-फिर सुनाने की फरमाइश हो रही हो, या किसी पंक्ति पर भरपूर दाद मिल रही हो
और शायर पेंदे तक की सारी दाद कबाड़ने कि जुगत में उसे दोहराता, तिहराता या चौहराता चला जाए तो बात फिर भी समझ में आती है।
किन्तु एक बेदम और लचर शेर को बार बार सुनाने की करतूत को आप क्या कहेंगे? ...एक शातिर
नटवरलाल का सभा को ठगने का मंसूबा या एक घटिया साबुन की बट्टी को जबर्दस्ती घिस
घिस कर वाह-वाह रूपी झाग उड़ाने का हसीन सपना! यह तो आप ही जानें। जहां तक मेरा
सवाल है मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि जिन श्रोताओं को खुद शायर इस पल सुधि जन, गुणी जन और कद्र दान के खिताबों से नवाज़ रहा हो
उन्हें ही अगले पल अदब के मदरसे में पढ़ रहे प्राइमरी के लौंडे समझ कर पाठ के घोटे लगवाना जरूरी समझता होगा।
यह समझना भी नादानी होगा कि शायर लोग सर्वोदयी किस्म के जीव होते हैं। जो ‘अनटु दिस लास्ट’ की तर्ज़ पर श्रवण तंत्र या श्रवण यंत्र
से बाधित अंतिम अर्द्ध श्रोता भी जब तलक कलाम को मुकम्मल ढंग से सुन समझ न ले तब
तक सुनाते रहना अपना धर्म समझते हों। ऐसा तो नहीं कि सुनाने के लुत्फ़ मैं शायर इतने गहरे जा उतरता हो कि बेखुदी में
उसे यह खयाल ही न रहे कि वह क्या और कितनी दफा कह रहा है! जी नहीं! नेताओं की कैमरे की भूख की तरह कवियों की तारीफ़ की भूख भी जग जाहिर है। सो, बेखुदी की बात हरगिज़ गले नहीं उतरती।
बचपन का एक सच्चा वाक़या याद आ रहा है जो इस शायराना लत की वजह पर शायद कुछ
प्रकाश डाल सके। हिन्दी के मास्साब हमें घर से प्रेमचंद की जीवनी याद
करके लाने को कहा करते थे। अगले दिन कक्षा के किसी बच्चे को खड़ा कर वे जीवनी
सुनाने को बोलते। अमूमन पहला बच्चा इस तरह शुरू करता, ‘मास्टरजी, प्रेमचंद का जन्म
ग्राम... मास्टरजी, प्रेमचंद का जन्म ग्राम... मास्टरजी, प्रेमचंद का जन्म ग्राम...मास्टरजी...’। वह तब तक यह जुमला दोहराता जब तक उसे ‘लमही’ याद न आ जाता। फिर वे दूसरे विद्यार्थी
को खड़ा करते और आगे का सुनाने को कहते। फिर तीसरे को। सभी का कुछ कम कुछ ज्यादा यही हाल होता। इन प्रतिभाओं में से आगे चल कर जब तक कुछ शायर और कवि बनते तब तक उनकी यह आदत पक चुकी होती। ...और नतीजा आज हमारे आपके सामने है!!
खुशामदीद X 6 :)
ReplyDeleteस्वागत है सरजी!!
शुक्रिया हुजूर !
Deleteआपने बहुत ज़ुल्म सहे हैं !
ReplyDeleteअर्ज़ किया है
ReplyDeleteआपका साथ, साथ फूलों का,
आपकी बात, बात फूलों की!
/
सर जी, ये जो आपने ऋषि कपूर माफिक एंट्री मारी है ना, तो हमारे दिल में बजने लगी हैं घण्टी और शायरों का बजा दिया है आपने नगाड़ा... लमही के लमहे को याद करते हुये बस यही रिक्वेस्ट/गुज़ारिश/अनुरोध है कि जमे रहिये!!
अब मज़ा आएगा खेल में!! खुश आमदीद!!
जिंदगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें
Deleteये जमीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें
...आपने पुकारा और हम चले आए, आपकी बज़्म में!!
वाह जी वाह,
ReplyDeleteबसंत के आगमन से आप का ब्लॉग भी फल फूल उठा.. दुनिया के सामने इस पर्दे को सहजता से उठाने का शुक्रिया। देस बिदेस के न जाने कितने शेरलॉक होम्स चैन कि नींद सोयेंगे
अब बस रहो मुन्ना भाई
लगा रहूँगा जब तक कोई सर्किट साथ देता रहेगा....!
Deleteवो कवि और लेखकों के जीवनी, वो सन्दर्भ प्रसंग के रट्टे। याद आ गया मुझको गुजरा ज़माना।
ReplyDeleteKya indore me bhi koi ganv ke master jaisa tha?
Deletebahut acchha laga aapke bachpan ka kissa padhkar sir ....tahedil se swagat hai aapka ..shayad kuchh aur atse hi dilchasp sansmaran padhne ko mil jaaaye .....
ReplyDeletejaroor milenge madam ji, bas apki tavajjo bani rahe...krapa bani rahe...
Deleteबचपन के रट्टे और घिसे साबुन के बट्टे, रोचक तारतम्य।
ReplyDeleteThanks for visiting Anurag ji
Deleteपढते समय बरबस हँसी आती रही और समझ में भी आया कि हम क्यों अच्छी कविता पर भी श्रोताओं की दाद नही ले पाते । मेरी एक परिचित ठीक कहती है कि आपकी रचनाएं तो ठीक हैं पर आपको बोलना नही आता । नान स्टाप बोलती चली जाती हो । एक श्रीमान र हैं श्रोताओं की आँखों में आँख डालते हुए इसतरह पंक्तियों को दोहराते रहते हैं कि श्रोता मजबूरन वाह ,बहुत बढिया ,अच्छा है , कह ही देते हैं । अभी ग्वालियर में एक बहुत ही नाम कमाए कविश्री पधारे । मैं चकित होगई उनके प्रस्तुति कौशल पर । वे हर बन्ध के बीच कम से कम दो बार जरूर कहें कि मुझे लगना चाहिये कि मैं ग्वालियर में कविता पढ रहा हूँ । और ग्वालियर के मासूम श्रोता इसे सिद्ध करने उतनी ही बार जोरदार तालियाँ बजादें । छोटी सी गजल कहने में उन्होंने कम से कम बीस पच्चीस मिनट लिये । यह है मंचीय कौशल जिसे सीखने हमें तो शायद पूरा जीवन भी कम पड जाएगा । ऐसे मंच सिद्ध कवियों के बीच जाने का साहस ही नही होता । बहुत जानदार हास्य और व्यंग्य भी ।
ReplyDeleteअहो भाग्य गिरिजा जी, जो आपने श्रेष्ठ टिप्पणी से हमें नवाजा!... और यह कहने में मैं कोई व्यंग्य नहीं कर रहा हूँ!! दिल से आभार।
ReplyDeleteye kalam ab thamni nahi chahiye...umda rachna!
ReplyDeleteBohot sahi uncle.. :)
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