वे बड़े आदमी हैं….
उनके करीबी रिश्तेदार भी बिना अप्वाइंटमेंट के घर पहुँच जाएँ तो बुरा मान जाते हैं। फिर हम तो आखिर हैं किस गिनती
में? कभी-कभी तो हमें यह भी शक होने लगता है कि हम उनके परिचित
भी है कि नहीं! एक बार की बतायें। टेलीफोन से बाकायदा मिलने का वक़्त लेकर नियत समय
पर घर की घंटी बजाई तो एक सेवकनुमा शख्स बैठकघर की राह दिखा कर कहीं गुम हो गया। इसके बाद एक मुद्दत तक हमारे कान किसी तरह की हलचल को तरस गए। इस दौरान बैठे-बैठे हम उनकी बैठक का पूरा जायज़ा ले चुके थे। ढूंढ
रहे थे कि कहीं कोई खुली खिड़की, झरोखा या यहाँ तक कि झिर्री ही दिख जाए जिस
से बाहर का हाल पता लगे कि वहाँ क्या चल रहा है? मगर मालूम होता था कि बिना इजाज़त उन्हें हवा और रोशनी तक का घर में प्रवेश गवारा नहीं था। खैर, आखिर वह घड़ी आई जब वे नमूदार हुए- सूट, बूट और टाई समेत। हमने पूछा, ‘हम गलत वक़्त तो नहीं आ गए? किसी फंक्शन
वंक्शन में तो नहीं जाना आप लोगों को?’ बोले, ‘नहीं नहीं, आपको अप्वाइंटमेंट दे दिया था तो फंक्शन में कैसे जाते?’ ‘अच्छा, तो फिर ऑफिस से अभी हाल लौटे होगे?’, हमने जानना चाहा। ‘अरे नहीं आज तो हम ऑफिस से काफी जल्दी आ
गए थे’, उन्होने साफ किया। हम सोचने लगे, कि सुना तो था बड़े लोग मुंह में सोने की चम्मच लेकर पैदा होते है। आज पता चला
कि वे चम्मच के साथ-साथ गले में टाई, बदन पर सूट और पैरों मे बूट लेकर भी
पैदा होते हैं! हो न हो, बैठकखाने में भी देर से इसीलिए आ पाये
हों कि टाई से मैच करते हुए अंतर्वस्त्र ऐन वक़्त कहीं ढूँढे न मिल रहे हों!
कुछ देर बाद साहब फोन का जवाब देने बंगले के किसी अंदरूनी
हिस्से में चले गए। एकांत मिला तो हम सोचने लगे कि क्या अफसर के दिल पर दस्तक देने
से पहले इश्क़ को भी अनुमति लेनी पड़ती है? क्या अपने घट का पट भी वे किसी सेवक से
खुलवाते हैं? अपनी मोहब्बत को वे कितने नजदीक तक आने की
इजाजत देते होंगे? तभी एक बालक, जो चेहरे मोहरे पर जायेँ तो उनका बेटा रहा होगा, कुछ लेने बैठक में दाखिल हुआ। मनुष्य
जैसे प्राणियों में अंतरंगता के बिना संतानोत्पत्ति का रहस्य पहले पहल हमें समझ में नहीं आया। फिर खयाल आया कि साहब ने मैडम
को जरूर वही चमत्कारी फल खिलाया होगा जो त्रेता युग में महाराज दशरथ ने अपनी रानियों को खिलाया था। जो भी हो, हमने उनके बेटे को पास बुला कर धीरे से पूछा, “बेटा, मम्मी घर पर नहीं हैं क्या?” “क्यूँ? घर पर ही तो हैं!”, बच्चे ने कहा। “अच्छा, तो मेडिटेशन वगैरह कर रहीं होंगी?” जवाब में जो बेटे ने जरा घुमा कर, ज्यादा शरमा कर बताया उसका सार यह था। मम्मी की पार्लर वाली दो दिन की छुट्टी पर गयी है।
उनके लौटने तक मम्मी अज्ञातवास में ही रहेंगी और किसी भी खासो-आम से मिलने बाहर
नहीं आएंगी।
अब उनके घर गए थे
तो जाहिर सी बात है कि किसी रोज उन्हें भी बुलाते। काफी नाजो-नखरे के बाद वे आए सही, मगर बुझे-बुझे से यूं गोया कब्रगाह से किसी को सुपुर्दे-ख़ाक कर सीधे चले आ रहे हों। हम हुलस कर उन्हें गले लगाने
को आगे बढ़े तो वे मानों घबरा उठे कि कहीं उनके बड़प्पन के साथ कोई हादसा तो नहीं हो
जाएगा। जवाब में उन्होने एक हाथ के फासले से ही हाथ जोड़ लिए। शायद उन्हें डॉ बशीर
बद्र साहब द्वारा रचित अफसर नीति-निर्देशिका की वह कंडिका याद आ गयी, जिसमे लिखा है:
कोई
हाथ भी न मिलाएगा जो
गले मिलोगे तपाक से,
ये
नए मिजाज़ का शहर है जरा
फासले से मिला करो।
खैरियत की पूछताछ के बाद पत्नी ने बड़े चाव से
अपने हाथ के बने बेसन के लड्डू परोसे। मगर क्या मजाल जो लड्डू के साथ उन्होने कोई
ऐसी वैसी हरकत की हो जब तक कि इन्हें छुरी काँटा नहीं दे दिया गया! मैडम को भी
पानी के गिलास को हाथ न लगाते देख पत्नी ने सूझ-बूझ से काम लिया और फौरन गिलास में दो स्ट्रॉ डाल दिये।
एक होली का किस्सा है। सोचा, आज तो रुतबे के लबादे को उतार
फेंक कर फाग के रंगों में डूबे, अलमस्त झूम रहे होंगे। मगर गए, तो क्या देखते हैं कि आँगन में एक तयशुदा जगह पर खड़े हुए हैं। आगंतुक बारी-बारी आते। आधी चुटकी गुलाल से मांग में सिंदूर भरने की अदा के साथ माथे पर तिलक लगाते। फिर चार कदम पीछे हट कर खड़े हो
जाते। तमाम क्रियाओं के दौरान वे मात्र उतनी ही मात्रा में तरंगित होते रहे जितना कि देवी सरस्वती की मूर्ति अपने तिलक रोली कराने पर होती दिखाई पड़ती हैं। रंग के किसी छींटे ने भी इतनी जुर्रत नहीं की, जो छिटक कर इनके बदन या लिबास पर जा पड़े। घंटे भर के मिलन के समापन पर भी उनका बाना मुकम्मल तौर पर साफ शफ़्फ़ाक ही बना रहा।
खुदाया, उस दिन अगरचे छुट्टी नहीं रही होती तो
वे बाहर के बाहर सीधे दफ्तर चले जाते।
बहुत खूब :)
ReplyDeleteशुक्रिया हुजूर!
Deleteबड़े लोगों की बड़ी बातें... ये हमारे जैसे मिडिल क्लास टाइप लोग क्या जानेंगे!! इनकी नाक पर मक्खी भी बैठे तो पहले अपने सेक्रेटरी से जाँच करवायेंगे कि इस मक्खी ने अप्वाइण्टमेण्ट लिया है कि नहीं और अगर नहीं लिया तो इसकी जुरत कैसे हुई हमारी नाक पर तशरीफ़ रखते हुये. इसे धक्के मारकर बाहर निकालो.
ReplyDeleteइनसे बड़े लोग तो वो हैं जो फ़िल्मों में सींखचों के पीछे दिखाई देते हैं और उनसे मिलने वाला अपनी बात कह भी नहीं पाता कि द्वारपाल यह घोषणा कर देता है - मिलने का समय समाप्त हुआ! ये बड़े लोग भी ऐसे ही आडम्बरयुक्त सींखचॉं के पीछे रहने वाले क़ैदी हैं. ये वो लोग हैं जो अपने घर में भी मोज़े पहने होते हैं, इन्हें ख़ाली पाँव ज़मीन पर बैठ ने का सुख क्या मालूम!!
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आज की क्लास में सीखा - टाई के साथ मैचिंग अंतरवस्त्र.
और भी मज़ा आता जो श्मशान के साथ सुपुर्देआग देखा होता!!
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कुल मिलाकर, आपकी ट्रेडमार्क या हॉलमार्क पोस्ट, त्यागी सर!
लो जी! जो बात हमने फेसबुक पर कही थी, उसमे दम था कि नहीं?
Deleteचलो, जो शमशान से आए थे उन्हें मैचिंग बनाए रखने को हमने कब्रगाह भेज दिया....!
चलो बेटा अब री-टेक करो, और आओ कब्रगाह से....!!
आपका कमेन्ट, यानि पैसा वसूल...!!!
बडे लोग और उनकी बातें......................।
ReplyDeleteएक बढ़िया कटाक्ष बड़े लोगो के इस्टाइल पर!!!
ReplyDeleteसाधुवाद .
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ReplyDeletebade logon ka mullamma chadha kuchh log jeena bhool gaye hain ..........jiwant abhiwayakti .....sir .....
ReplyDeleteलेखक का इस शीर्षक पर लिखना क्या इस बात का संकेत हैं की लेखक भी उस महकमे क अंदरूनी घेरो में दाखिल हो चुके हैं? ध्यान रखियेगा!
ReplyDeleteक्या लेखक इन लोगो की चपेट में आएंगे? क्या आने वाले दिन कायापलट का संकेत समेटे हुए हैं? ये परिवर्तन अगर हुआ तो इस का क्या प्रभाव होगा? जानने के लिए पढ़ते रहे : त्यागी-उवाच!!
"टाई से मैच करते हुए अंतर्वस्त्र" हा हा हा हा, ऐसे ऐसे नमूने तो मेरे मोहल्ले में ही हैं. मजा आ गया सर जी.
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