Monday, December 1, 2014

वादा और तगादा

कर  लिया  था  वादा उन्होंने  पांचवे  दिन का
किसी से सुन लिया होगा,  दुनिया चार दिन की है

जी नहीं! पांचवे दिन का नहीं, पहली तारीख का वायदा किया था उन्होंने, जो इतनी दूर भी नहीं थी. तभी तो अचानक आन पड़ी जरूरत का हवाला देते ही हमने जरा भी सोचे बिना पांच हजार उनके हाथ पर धर दिए थे. वो दिन और आज का दिन... दसियों पहली तारीखें आई और आकर चली गयी. वही वादे वाली पहली तारीख नहीं आई.

ऐसा भी नहीं कि हमने डरते-डरते, इशारों-इशारों में उन्हें कभी याद दिलाने की कोशिश नहीं की. की, और बाजाफ्ता की. मगर ऐसी तमाम हरकतों के बीच वे राजा दुष्यंत की तरह मेनका की तरफ से बेखबर से ही बने रहे. कभी ज्यादा हुआ तो यूँ मुस्कुरा कर चल दिए जैसे फिल्म सदमा के आखिरी सीन में कमल हासन की कलंदरी पर श्रीदेवी मुस्कुरा कर चल देती है. इधर हम सोचते कि हो न हो उनकी जरूरत अभी तक बनी हुई हो. उधर खटका यह भी है कि वे भी कहीं यह न सोच रहें हों कि हमें जरूरत होती तो जरूर मांग लेते. कुल मिला कर मजाज़ वाली शायराना सूरत बनती नज़र आ रही है-

मुझे ये आर्ज़ू, वो निक़ाब उठायें ख़ुद
उन्हें ये इंतजार, तक़ाज़ा करे कोई

क्या करें! तक़ाज़े की विद्या में हम काला अक्षर भैंस बराबर हैं. रकम वापस माँगने के ख्याल भर से ही अपनी जुबान को लक़वा मार जाता है, चेहरा शर्म के मारे पानी-पानी हुआ चाहता है. कई बार तय कर लिया कि बस अब और नहीं! बाहर निकलने के गुर सीखे बगैर आइन्दा कभी देने के चक्रव्यूह में प्रवेश नहीं करेंगे.

मगर यह सब आइन्दा... अभी तो एक अन्य पारिवारिक मित्र का किस्सा बकाया है. मांगे तो उन्होंने पच्चीस थे किन्तु हमारी औकात देखते हुए पंद्रह पर ही मान गए थे. यह जरूर है कि रकम लेने के बाद शहर से लगभग लापता हो गए थे. शक है कि पंद्रह में से हजार पांच सौ देकर उन्होंने मोबाइल वालों को भी अपनी तरफ मिला लिया था. वर्ना सैकड़ों मर्तबा कॉल करने पर कंपनी की लड़की हर बार यही क्यूँ कहती- उपभोक्ता का मोबाइल फोन या तो स्विच ऑफ़ है या पहुँच क्षेत्र से बाहर है. भाई लोग बहुत पीछे पड़े कि घर तो लापता नहीं हुआ, जाकर ले क्यूँ नहीं आते. (मानों वे दरवाज़ा खोले हमारी राह ही देख रहे हों कि कब हम पहुंचें और कब वे उधार पटायें!) जवाब में हम यही कहते- पगलों, उन पर होते तो वे छुपते ही क्यूँ फिरते? पत्नी ने भी ताना दिया- तो क्या इतनी बड़ी रक़म यूँ ही डूब जाने दोगे! तो हमने सौदे का फायदा गिनाते हुए समझाया. भाग्यवान, गनीमत मानों बात पंद्रह हजार में निपट गयी. सोचो, पंद्रह लौटा कर अगर पच्चीस पचास मांग लेते तो हम कहाँ के रह जाते!


अलबत्ता गम है तो बस एक. गुम हो जाने के बजाय बाबा खड़गसिंह के घोड़े के प्रसंग की तरह अगर वे यह कह देते कि भैया भूल जाओ, तो मन मार कर चैन से एक तरफ तो बैठ जाते. और हाँ....परिजन भी आए दिन यूँ दिक् न करते!!    

14 comments:

  1. सर्वप्रथम आपके कमेण्ट के इस अंश "पहले पढ़ चुकते तो आज अपनी पोस्ट नहीं डालते!" पर मेरा हृदय से आदर स्वीकारें... आभार कहकर आपकी भावनाओं का अपमान नहीं करना चाहता गुरुवर!
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    अब ज़रा आपकी ख़बर ली जाए... वादा और तगादा...
    एक शरीफ इंसान को बदनाम करने की नीयत से लिखी गयी है यह पोस्ट. जिन्होंने पच्चीस माँगे थे और अपनी औकातानुसार आपने जिसे सिर्फ पन्द्रह दिये, तो उल्टा दस उस बेचारे के ही निकलते हैं न? एक तो उसके दस आपने दबा लिये, दूसरा जो व्यक्ति आपकी इज़्ज़त की ख़ातिर शहर छोड़कर चला गया (कि कहाँ इतने बड़े आचार्य जी से दस के लिये औकात औकात खेले) उसके ऊपर आप बाकायदा पब्लिकली इतने संगीन इल्ज़ाम आयद कर रहे हैं. वाजपेयी जी स्वस्थ होते तो अपना हाथ घुमाते हुये कहते - ये अच्छी बात नईं है. या एसीपी प्रद्युम्न अपने हाथ नचाते हुये कहते - कुछ तो गड़बड़ है!!
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    अजी हम तो उस धन्धे में हैं जहाँ ऐसे न जाने कितने वादे-तगादे रोज़ देखने पड़ते हैं. कभी गुस्सा, कभी खीझ, कभी गाली और कभी तो दुम दबाकर भागने तक की नौबत आती है वसूली में. लेकिन गुरुदेव, कभी कभी तो आँखों में आँसू भी आ जाते हैं कमबख़्त.
    एक शख्स के घर जब वसूली को पहुँचा तो देखा जितना बड़ा मेरा बाथरूम है उतने में उसका सारा परिवार रहता था. लौट कर चला आया और ऊपर वालों को कह दिया - सस्पेण्ड कर दो मुझे, मगर मैं शायलॉक नहीं हो सकता!
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    इसलिये गुरुवर! आपको साहित्य की कसम (हमारा तो दूर दूर का वास्ता भी नहीं साहित्य और शेक्सपियेर से) इन हाथ के मैल को जाने दीजिये और दुआ कीजिये कि उन बेचारों को कभी किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े कभी. परमात्मा उनकी चादर उनके पैरों के बराबर कर दे! आमीन!!

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    1. अद्भुत! ....आज आपके श्री वचनों से हमारी अक्ल पर पड़ा पर्दा हट गया. हम मूर्ख खल कामी थे जो हाथ के पैसों को अपना समझते रहे. भूल गए थे कि माया होती ही चंचला है. आज आपने हमारे बंद दिव्य चक्षु खोल दिए. इस अल्पज्ञ आचार्य को उस परम वेद वाक्य का तनिक भी ज्ञान नहीं रहा जिसमे कहा गया है कि, 'दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम'. प्रभु, यह भक्त आज आपके समक्ष प्रण करता है कि जब तक अपने 'मित्र' को ढूंढ कर (चाहे वे पाताल में ही क्यूँ न छुपे हों) उनका हक यानि बचे हुए दस अदा नहीं करता, चैन से नहीं बैठेगा!!

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  2. ह्म्म! भैया की सलाह के साथ एक मेरी ओर से भी सुन लें .... याद जरूर करें , एक दुआ की जरूरत सदैव रहती है ऐसों को ... जो सच्चे दिल से देने वाले आप ही है...

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    1. आप दोनों भाई बहनों ने हमारी आँखें खोल दी.....आपका आदेश हम सर माथे पर रखेंगे जी !

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  3. Damn, seems like my own story. In my case the amounts are even higher. :P

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  4. रकम औकात के अनुसार कम ज्यादा हो ही सकती है, अलबत्ता अनुभव एक ही है.

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  5. कर लिया था वादा उन्होंने पांचवे दिन का
    किसी से सुन लिया होगा, दुनिया चार दिन की है-सुन्दर और प्रासंगिक

    इस चार दिन में महीने के २६ दिन कहाँ कहाँ निकल जाते हैं पता ही नहीं चलता ----धन्यवाद पी.एच डी कोर्स वर्क-- धन्यवाद सर।

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  6. बहुत खूब! ....आप भी चार दिनों की मारी हुई है!!!

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  7. ब्लॉग लिख कर दूसरों को सचेत करने का आईडिया बढ़िया है! जो दूसरों की गलतियों से सीख ले, वही परम बुद्धिमान है

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  8. इसे कहते हैं वादा खिलाफी और विश्वास का खून

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  9. सुन्दर प्रस्तुति .

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  10. Yani neki kar kooen me daal...

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  11. आपकी पोस्ट और सलिल दा का कमेंट पढ़कर आनन्द आया।

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    1. आप आये तो आये और छप्पर फाड़ कर आये, बैक डेट से!
      वाह! अपनी तो लाटरी लग गयी!!

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