सर्दियाँ भी क्या खूब जलवा फरोश हैं! अपने परचम तले
पूरे हिंदुस्तान को एक कर देती हैं. बर्फ अगर कश्मीर के ऊपरी हलकों पर गिरती है,
तो नज़ला सीधा इंदौर आ कर गिरता है. तब शहर के लोग रोज के काम यूँ अंजाम देते नजर
आते हैं जैसे तेल से भरा पात्र लेकर नारदजी पृथ्वी की परिक्रमा पर निकले हों.
बेताब सर्दी है कि किसी षोडशी की जवानी सी नाक के बाहर छलकी पड़ती है. चुनांचे बहती
हुई नाक को घडी-घडी इस अदा से भीतर की ओर खींचते रहना पड़ता है गोया कोई लजाऊ युवती
आँचल से फिसलता पल्लू संभालने का घनघोर जतन कर रही हो. इस मौसम में कुछ अलग किस्म
के लोग भी पाए जाते हैं. ये नाक के चालू खाते से छोटी-छोटी रकमें सी निकाल कर रूमाल
के सुपुर्द करते हुए जल्दी ही एक बड़ी रकम खड़ी कर डालते हैं....ताकि सनद रहे और
वक़्त-जुरूरत काम आये! वहीँ कई बिंदास किस्म के लोग थोड़ी-थोड़ी देर बाद सड़क पर सरे
आम यूँ बलगम विसर्जित करते चलते हैं मानो अस्वच्छता की वेदी पर अपनी छोटी सी आहुति
के साथ-साथ मोदी जी को स्वच्छ भारत अभियान का मुफ्त आयडिया भी दे रहे हों.
शरद ऋतु राष्ट्र बाबा रामदेव के धंधे के लिए भी बेहद
मुफीद साबित होती है. ठण्ड के दस्तक देते ही च्यवनप्राश की बिक्री के साथ-साथ बाबा
के भक्तों की भीड़ भी कई गुना बढ़ जाती है. बाबा के अनुयायियों को वक़्त-बेवक्त वाश
बेसिन के आगे अनुलोम विलोम की क्रिया में रत देखा जा सकता है. इस सब का नतीजा यह
होता है कि कई नाजुक नासिकाओं के अग्र-भाग बार-बार पोंछे जाने के कारण लंगूर के
पृष्ठ-भाग जैसे लाल-लाल निकल आते हैं. अलावा इसके भी सर्दियों के काफी फायदे हैं. मसलन
घूंघट वाली बहुओं को खबरदार करने के इरादे से देहात के बड़े बूढों को झूठ-मूठ गला
खंखारने की कसरत से निजात मिल जाती है. क्यूंकि सर्दियाँ वो शै है जो आते के साथ
ही इनके गले में बिल्ली की घंटी की माफ़िक कुकुर खांसी को बाँध कर चली जाती हैं. यही
वजह है कि जिन घरों में बड़े बूढ़े पाए जाते हैं उन घरों में अक्सर रात-बिरात चोर
उचक्कों के डर से कुत्ता पालने की जरूरत नहीं पड़ती.
ठण्ड का मौसम आया नहीं कि छाती-गला मार्ग जम्मू श्रीनगर हाइवे कि तरह ठप्प हो जाता है और फिर एक अरसा बहाल नहीं हो पाता. इन दिनों
में 'चंचल' और 'किशोर कुमार' जैसे गायकों
के गले में सहगल और मुकेश उतर आते हैं. जहाँ 'किशोर कुमार' की आवाज़ का अल्हड़पन और
शोखियाँ गायब हो कर प्रौढ़ता में तब्दील हो जाती हैं, वहीँ सातवें सुर को साधने
वाले 'चंचल' पहले और दूसरे सुर पर बंद लगा कर सुबह-सुबह 'इक बंगला बने न्यारा, इक
घर हो प्यारा-प्यारा' जैसे रियाज़ ले कर बैठ जाते हैं.
सच में बड़ी करामाती हैं सर्दियाँ, ये जो न करायें सो कम है!!
बशक शरद ऋतु मे कुछ परेशानी होती है फिर भी
ReplyDeleteगर्मी बेशर्मी
जाड़ा प्यारा
गणपति
Naac meri aur kalam aapki...lajavab lekhan
ReplyDeleteNaac meri aur kalam aapki...lajavab lekhan
ReplyDeleteगुरुदेव, इस पोस्ट की इत्तिला मिली नहीं और आज आपने शिकायत लगा दी, तो हमें पता चला! खैर अगली पोस्ट से पहले आ गए, तो नाक रह गयी अपनी! वरना कट जाती!
ReplyDeleteहमारे अज़ीमाबाद के नवाब साहब के ज़िक्र के बग़ैर ये सर्दियों की कहानियाँ बेमज़ा है!
लखनऊ के नवाब हमारे यहाँ सर्दियों में तशरीफ़ लाये और खाने के बाद हाथ धोने के लिए जैसे ही पानी में हाथ लगाया उफ़्फ़ कर बैठे और बोले,"लाहौल विला क़ूवत! हाथ रह गया, कमबख्त!"
अज़ीमाबाद के नवाब हँसकर बोले,"अच्छा हुआ आपने पानी पीया नहीं, नहीं तो पेट रह जाता!"
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ख़ैर, मज़ाक दरकिनार... ये जिस बहती हुई नाक का ज़िक्र किया ना, उसे गरीब निकालकर फेंक देता है, मगर रईस लोग रुमस्ल में सहेजकर जेब के हवाले कर देते हैं!
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मस्त पोस्ट है गुरुदेव!!
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ReplyDeleteअब की तो हमने बचवा दी इत्तिला दे कर, आइन्दा आपको खुद अपनी नाक बचवानी पड़ेगी!(जुकरबर्ग से चौराहा-चौराहा इश्तेहार लगवा देता हूँ हर बार, हो सकता हो आपकी नज़र न पड़ी हो!)
ReplyDeleteक्या है कि आपके आने से एक करार सा आ जाता है
बेहतरीन अभिव्यक्ति.....बहुत बहुत बधाई.....
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