कई नादान यह समझते हैं कि मोहम्मद इब्राहीम जौक़ ने अपनी मशहूर ग़ज़ल 'लाई हयात आये कज़ा के चली चले, हम अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले' अपने इन्तेकाल के वक़्त कही थी. अरे मरदूदों! जानते नहीं कि शोक सभा उस वक़्त की जाती है जब मुर्दे को सुपुर्दे खाक़ कर दिया गया हो या फिर उसकी कपाल क्रिया की जा चुकी हो. ऐसी सूरत में बन्दे के पास कुछ कह सकने की गुंजाइश ही कहाँ रह जाती है! अब आप को बताएं कि यह ग़ज़ल प्रोफ़ेसर जौक़ साहब ने उस दिन कही थी जिस दिन उन्हें समारोहपूर्वक सेवा से निवृत्त किया जा रहा था और आखिर में मंच से चंद अल्फाज़ बोलने को बुलाया गया था.
उनका कहना था कि वे अपनी मर्जी से न तो पेशे में आये थे न ही अपनी मर्जी से रिटायर ही हो रहे हैं. क्या है कि वे एक के बाद एक क्लास पास करते गए और तब तक पढ़ते रहे जब तक किसी दूसरी नौकरी के काबिल न रहे. इस विश्वविद्यालय में भी वे डंके की चोट पर आये हों ऐसी बात नहीं है. उन्होंने कई जगह अर्जियां डाल रखी थी. बस इत्तेफ़ाक था कि वे यहाँ सेलेक्ट हो गए और इधर के होकर रह गए. यहाँ से चलने के वक़्त भी किसी ने उनसे पूछा थोड़े ही था. वे धोनी, तेंडुलकर की तरह सोने का अंडा देने वाली मुर्गी तो थे नहीं कि कोई उनसे यह पूछता कि वे कब रिटायर होना चाहेंगे. पूछते तो वे जरूर कहते कि ऐसी भी क्या जल्दी पड़ी है! मुओं, सेकंड ईयर वालों को कोर्स तो पूरा कर लेने देते. फर्स्ट ईयर वालों का यूनिट टेस्ट लेने दिया है तो उन्हें कॉपी दिखाने की मोहलत तो दे दी होती. ये भी कोई बात हुई कि मुकर्रर दिन चार भाइयों को इकठ्ठा किया और पहुँच गए विदाई हॉल में चलता करने!
अपने भाषण को आगे बढाते हुए प्रोफ़ेसर साहब ने अगला मिसरा यूँ सुनाया...
हो उम्र-ए-खिज्र तो भी कहेंगे ब-वक्ते-मर्ग
हम क्या रहे यहाँ अभी आये अभी चले
फिर सभा को समझाने के लहजे में वे बोले- पैंसठ के हो गए हैं, रिटायरमेंट की बेला आ गयी है मगर फिर भी ऐसा लग रहा है जैसे हम अभी-अभी यहाँ आये हों. जुम्मा-जुम्मा चार दिन तो हुए हैं अभी यहाँ! अभी हमारी पढाई हुई चेली ही विभाग की हेड बन पाई है, अभी तो उनके शागिदों को गद्दी संभालना बाकी है. उम्र का क्या है, वह तो बेल की तरह चढ़ती जाती है. उम्र के चढने से जिस्म जरूर कुछ ढला है, मगर पढाने का जज्बा नहीं! क्लास में परफॉर्म कर रहे हैं. जेहन उतना ही तेज़ है जितना बत्तीस साल पहले था. मजाल है जो कोई सूत्र भूल जायें या गुणा-भाग में कोई गफलत कर बैठते हों. बेशक कुछ दांत गिरे हैं मगर आवाज़ की बुलंदी नहीं....और आप हैं, अभी से हमें बोरिया बिस्तर समेटने को कह रहे हैं!!
विभाग में मंजूर अहमद सर, जौक़ साहब के बेहद करीबी रहे है. दोनों बीसियों साल से एक अलहदा किस्म के कार्यक्रम में कदम से कदम मिला कर साथ चलते आये हैं. मंजूर साहब भी अगले महीने रिटायर हो रहे हैं. जौक़ साहब उम्मीद कर रहे थे कि विभाग में सालों साल उनके दोस्त रहे अहमद सर भी आखिरी वक़्त उनके साथ चल देंगे. (आखिर स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति भी कोई चीज़ है!) सेवा काल में साथ दिया है तो क्या सेवा निवृत्ति में नहीं देंगे! लेकिन जब समारोह में मंजूर साहब ने उनकी तरफ रस्मी गुलदस्ता बढाया तो दुनिया की बेवफ़ाई के ख्याल से वे सीधे धरती पर आन गिरे. जी में आया कि बढा हुआ गुलदस्ता नामंजूर कर दे, मगर फिर कुछ सोच कर गुलदस्ता रख लिया. सोचा- यहीं तक सबका साथ है, जितना मिले जैसा मिले वैसा निभाते चलो. कल विभाग में जाओगे तो कौन पूछेगा! पता चलेगा कि मंजूर साहब क्लास ले रहे है, या किसी बैठक में भाग ले रहे हैं या इंस्पेक्शन पर शहर से बाहर गए हुए हैं. तब उन्होंने बेहद उदासी और बेबसी की फिजां में यह शेर कहा...
दुनिया ने किसका राह-ए-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूँ ही जब तक चली चले
सुनते हैं कि आखिरी सफ़र पर चलते वक़्त आदमी की आँखों के सामने उसके सभी गुनाह और गलतियाँ किसी फिल्म की रील की तरह गुजर जाती हैं. जौक़ साहब को भी बड़ा मलाल हुआ कि उन्होंने एहसान साहब के मशविरे पर 'सी. पी. ऍफ़.' क्यों ऑप्ट कर दिया था काश उस दिन उन्होंने पेंशन ली होती तो रिटायरमेंट के बाद भी 'सेवेंथ पे कमीशन' का लाभ मिल गया होता. उनके मन में जो चल रहा था वह उन्होंने इस शेर में बांधा...
जाते हवा-ए-शौक़ में इस चमन से जौक़
अपनी बला से बादे सबा अब कभी चले
और यह कहने के बाद कुछ पल वे खामोशी से अपनी जगह खड़े रहे. फिर आहिस्ता-आहिस्ता चलते हुए अपनी कुर्सी पर पतझर की तरह ढेर हो गए और अपने पीछे चमन को गुलज़ार कर गए.
खैर! चलते-चलते आपको एक पते की बात बताते चलें....हैरत मत करना! उस ज़माने के इब्राहीम जौक़ ही आज के प्रोफ़ेसर त्यागी कहलाये!!
अद्भुत वर्णन .... अद्भुत प्रसगों एवम उदाहरणों के साथ ..सर ..👌👌👌
ReplyDelete👌
बेहद धन्यवाद जी आपका
Deleteअत्यंत सुंदर
ReplyDeleteआभार भाई
Deleteबहुत खूबसूरत वर्णन
DeleteThanks madam
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ReplyDeleteIs post ko to live sunne ka mauka haath laga tha Indore mein! Vaise live version pe badhiya "third-person" ka tadka lagaya hai!!
ReplyDeleteHum to pahla nivala jaise Hai ... Sabse pahle sunte Hai .. SOE ke prati pyar aur samarpan saaf dikhai de raha hai lekhan me ... Good luck..
ReplyDeleteYes...aadi dev Ganesh ji....!
DeleteTo,
ReplyDeleteA never to be retired teacher
Dear sir,
You might have retired as per the office norms but as per teaching norms you can never be in that zone... Don't know about the others but you yourself won't let you to even think about of getting retired... Aur yahan aap hi marzi chalegi... Professor Zauk sahab...
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Siddhi
To
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Dear Siddhi
Khushwant Singh ki autobiography me ek sher padha tha:
Jahan mein Ahle Imaan surate khursheed jeete hain
Idhar doobe udhar nikale, udhar doobe idhar nikale
Meri marzi....
Professor Tyagi urf Ibrahim jouk
Udhar doobkar idhar nikale fir bhi doobe rahe, yeh bhi shayrana marzi hai... Bas hamari tairne me madad karte rahiega life jacket bankar... 😊
Deleteअद्भुत वर्णन। कलेजा निकाल कर ब्लॉग पर धर दिया! प्रणाम।
ReplyDeleteहम निसार हुए
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ReplyDeleteक्या बात है सर क्या बात है बहुत ही उम्दा एवं अद्भुत वर्णन......
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