Wednesday, April 9, 2014

कारोबार-ए-सेमीनार



(शेषशायी विष्णु और  ब्रह्मा-पुत्र नारद आकाश मार्ग से कहीं प्रस्थित)
( विष्णु नीचे देखते हुए, नारद से)

Ø  ये कौन सा देश है, मुनिवर?
आर्यवर्त मालूम होता है, प्रभु।

Ø  यहाँ तो कनातें तनी हैं, पकवानों की भीनी-भीनी खुशबू उड़ रही है। गहमा-गहमी भी ख़ासी नज़र आ रही है जैसे कोई उत्सव हो। क्या शादियों का सीज़न शुरू हो गया नारद?
      नहीं प्रभु, कार्यशालाओं/संगोष्ठियों का सीज़न खत्म होने को है।
Ø  समझे नहीं हम...तुम्हारा कहना है कि खाने पर कोई संगोष्ठी चल रही है!
      नहीं नारायण, नहीं।  यहाँ संगोष्ठी का खाना चल रहा है।
Ø  और उधर देखो। हवाई जहाजों से जो सूटेड बूटेड, हाथों में ब्रीफ़ केस लिए लोग उतर रहे हैं, वे कौन हैं, मुनिवर?
      वे स्रोत व्यक्ति हैं, भगवन।
Ø  स्रोत व्यक्ति क्या प्लेन से बुलवाने पड़ते हैं? अड़ोस-पड़ोस में नहीं मिलते?
      मिलते हैं भगवन, और इफ़रात में मिलते हैं। मगर जो जितनी दूर से आए वो उतना ही     पहुंचा हुआ स्रोत व्यक्ति माना जाता है। ठीक घर का जोगी जोगणा, बाहर का जोगी सिद्ध की तर्ज़ पर।
Ø  ऐसा क्यूँ भला? और ये व्यक्ति काहे के स्रोत होते हैं? क्या आय के?
      नहीं भगवन, ये व्यय के स्रोत होते हैं।
Ø  किन्तु कम दाम में काम हो तो ज्यादा दामों में कराना कहाँ की बुद्धिमानी है?
      है प्रभु, बिलकुल है! हाथ रोक कर खर्च करेंगे तो फंड कैसे ठिकाने लगाएंगे?
Ø  लेकिन फंड को क्यों ठिकाने लगाना, नारद?
      (मुसकुराते हुए) आप अंतर्यामी हैं प्रभु, फिर भी मुझसे पूछते हैं? आप तो जानते ही हैं      यह मार्च का महीना है और यह भी कि अप्रैल आते आते सब फंड लेप्स हो जाते हैं।
Ø  लेप्स माने?
      बताता हूँ, प्रभु। जैसे फलों को बहुत दिनों तक रखे रखो तो वे सड़ जाते हैं, खाने लायक    नहीं रहते। ठीक ऐसे ही फंड की मियाद मार्च तक होती है। मार्च खत्म नहीं हुआ कि सब सोना मिट्टी बन जाता है।
Ø  फिर?
      फिर क्या भगवन... फिर अप्रैल आ जाता है। अप्रैल के आते ही बाजार मुरझा जाते हैं।      बैठकें उठ जाती हैं। भट्टियाँ ठंडी पड़ जाती हैं। चलते चक्के जाम हो जाते हैं। चमकते बिल-बोर्ड बेवा की मांग की तरह सूने हो जाते हैं। मार्च के इश्क़ मे गिरफ्तार
      कई कारोबारी शायरी का धंधा पकड़ असली-नकली नामों से ग़ज़ल कहने लगते हैं। देखिये, फैज के छद्म नाम से एक व्यापारी द्वारा लिखी गयी मार्च को सदा देती हुई
      एक ग़ज़ल:
            गुलों में  रंग  भरे,  बादे  नौबहार   चले
            चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले....
Ø  बस भी करो नारद, तुम तो रूदाली ही गाने लगे। अच्छा ये बताओ सेमीनारों में खर्च के अलावा भी कुछ तो होता होगा न?
      नारायण... नारायण...! आप भी ठिठोली करते हैं प्रभु! सेमिनारों में बहुत कुछ होता है।      पेपर पढे जाते है, लेक्चर होते हैं, प्रशिक्षण होता है।
Ø  ठीक है, किन्तु इस से लाभ किसे मिलता है?
      आखिरकार तो विद्यार्थियों का ही भला होता है, तात।
Ø  किन्तु कब? हमें तो सब कक्षाएं खाली नज़र आ रही हैं! विद्यार्थी इधर-उधर भटक रहे हैं।
       क्या करें प्रभु, मजबूरी है, बड़ी भारी मजबूरी!
Ø  कैसी मजबूरी देव-ऋषि?
प्रभु, क्या है कि आधे शिक्षक प्रशिक्षण दे रहे हैं। बाकी के जो बचे, वे ले रहे हैं। ऐसे में आप ही बताएं कि पढ़ाये तो कौन?
Ø  अच्छा नारद, चलो देखें बंद कमरों के भीतर क्या चल रहा है?
       अंदर ज्ञान-मंथन चल रहा है, नारायण।
Ø  उत्तम! आओ, तनिक हम भी ज्ञान रस का पान करें।
(सेमीनार कक्ष में दबे पाँव प्रवेश। कोने की खाली सीट देख कर बैठते हैं।)
Ø  (कान में फुसफुसाते हुए) आप तो कह रहे थे ज्ञान-मंथन चल रहा है, मगर यहाँ तो आवागमन चल रहा है!
      माफ करें भगवन! इसे पृथ्वी-वासी वाचन कहते हैं...शोध पत्रों का वाचन!
Ø  ठीक है, पर वाचन ही कहाँ हो रहा है? ये तो तुरत-फुरत जहां-तहां पढ़ कर चलते बन रहे हैं।
      कुछ पढ़ तो रहे हैं, प्रभु। वरना शाम ढलते-ढलते तो कई शोध पत्रों को बिना वाचन ही      पढ़ा हुआ मान लिया जाएगा।
Ø  ऐसा क्यूँ नारद? यह तो अनीति हुई!
      अनीति नहीं प्रभु विवशता कहिए, विवशता!
Ø  वह कैसे नारद?
      क्योकि भगवन रजिस्ट्रेशन, उदघाटन, मिलन, भोजन, किराया-भत्ता वितरण और समापन     के सत्रों के बीच मंथन के लिए समय ही कहाँ बचता है?
Ø  किन्तु मंथन ही नहीं हुआ देव-ऋषि, तो सिद्धियाँ क्या मिली? समापन किस बात का?
      प्रमाणपत्र रूपी रत्नों का वितरण ही समापन है, भगवन।
      (इसी बीच मंच से लंच की घोषणा होती है)
Ø  चलो मुनिवर, उदर क्षुधा ही शांत कर ली जाए।
      हाँ प्रभु, भूख तो मुझे भी जोरों की लगी है।
Ø  (प्लेट वाले से) लाओ भाई, एक प्लेट इधर भी दो।
      पहले अपना कूपन दो।
Ø  कूपन? कूपन तो नहीं है।
      कूपन नहीं, तो भोजन भी नहीं। (डपटते हुए) लंगर समझा है क्या? चलो चलो रास्ता       नापो।

(दोनों मुंह लटकाए पुनः आकाश मार्ग पकड़ लेते हैं!)





     














13 comments:

  1. आपने जो सेमिनारायण की कथा यहाँ बाँची है वह वास्तव में एक गुप्त कथा प्रतीत होती है, जिसे श्री सूत जी ने अपने श्रीमुख से आपके समक्ष रखी थी ताकि कलिकाल में क्षुद्र मानव इस कथा का श्रवण कर मार्च-योग से मुक्ति पा सके.
    आपने इस कथा का जो वर्णन किया, यह सुनकर मन में अपार श्रद्धा का जन्म हुआ है विप्रवर. इसकी महिमा और महात्म्य के प्रचार प्रसार में जितना योगदान हो सकेगा करने की चेष्टा रहेगी. इस व्रत का प्रत्येक कैलेण्डर वर्ष की प्रथम तिमाही में तथा वित्तीय-वर्ष की अंतिम तिमाही में सम्पूर्ण तन्मयता से पालन करने पर समस्त दु:ख-दारिद्र्य समाप्त हो जाते हैं.
    एक बार पुन: इस गुप्त कथा के सार्वजनिक करने हेतु जगतकल्याण की आपकी भावना का आदर करते हुये आपको प्रणाम करता हूँ!

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    1. श्री श्री 108 सेमीनारायण कथा पर सलिल भाष्य एवं टीका प्राप्त कर यह अकिंचन कथा वाचक धन्य हुआ, गदगद हुआ। आभार।

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  2. Superb,
    Classical satire of the present scenario of so called Seminar, Conference culture!
    Kiran

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    1. I am indeed grateful to you Kiran (Dammani??) ji for your kind attention.

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  3. क्योकि भगवन रजिस्ट्रेशन, उदघाटन, मिलन, भोजन, किराया-भत्ता वितरण और समापन के सत्रों के बीच मंथन के लिए समय ही कहाँ बचता है? bahut badhiya ........katu hai par satya hai ....bahut sundar aur sajeev warnan......

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    1. सच की कड़वी ख़ुराक, यानि ज़हर का प्याला...सही फ़रमा रही हैं निशा जी!!

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  4. नज़रे इनायत का शुक्रिया, मिश्रा साहब...!

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  5. gajab ki shabd rachna ke sath sateek varnan...

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  6. दोनों मुँह लटकाये पुनः आकाश मार्ग तो पकड़ लेते हैं मगर इस प्रण के साथ कि अगले मार्च किसी न किसी संगोष्ठी में खुद स्रोत व्यक्ति बन कर आएंगे

    लो जी आपका sequel तैयार !!

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  7. सही कहा, हनु। एक बात और ....जब स्रोत व्यक्ति बन कर आएंगे तो एयर फेयर भी लेंगे! सरकारी संगोष्ठी में अपने निजी उड़न खटोले से क्यों आयें भला?

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