Monday, November 7, 2011

सुबह सुबह सैरगाह से लाइव




सवेरे सवेरे जब आप विश्वविद्यालय परिसर की लंबी सड़क पर सैर के लिए चेक इन करते हैं तो अक्सर पंचतारा पथ पर रात भर स्टे का लुत्फ़ उठा चुके ढोरों के रेवड़ चेक आउट कर रहे होते हैं। ये मुफ्तखोर सरकारी अफसरों की तरह अकड़े-अकड़े फिरते हैं, आपका धर्म है कि भीरु प्रजा की तरह चुपचाप इनसे बच कर निकल जाएँ। नीम अंधेरे उठ कर घूमना काफी फायदे की चीज है। एक तो घर परिवार की बहुओं को पर्दे की जरूरत नहीं पड़ती, दूसरे जवान लड़कियाँ बुरी नजर वालों से बची रहती है। पहचाने न जाने से उद्योगपतियों और सीईओ जैसे मालदारों को भी फिरौती के लिए उठाए जाने का डर नहीं होता। कोई निजी लाभ न होने पर भी मैं मुंह अंधेरे निकलता जरूर हूँ अलबत्ता वक़्त का उतना पाबंद नहीं हूँ। जब कि दो एक जालिम तो इतने मुस्तैद हैं कि इन्हें देख कर भ्रम होता है कि ये सूरज निकलने से एक घंटा छत्तीस मिनट पहले निकलते हैं या सूरज इनके निकलने के एक घंटा छत्तीस मिनट बाद निकलता है।
खैर, थोड़ा आगे बढ़ने पर रास्ते में स्वामिभक्त और जागरूक किस्म की नस्ल के कुत्ते मिलते हैं। ये अपने परम आलसी और नासमझ मालिकों को जबरन चेन से घसीटते हुए सैर करा कर उन पर परोपकार करते देखे जा सकते हैं। सधवा पुरुष अमूमन अपनी पत्नियों के साथ घूमते हैं। जिनकी पत्नियाँ मायके गयी हों या परमानेंटली परम पिता के घर जा बैठी हों वे उसका कडक प्रतीक-रूप यानि डंडा बगल में दबा कर घूमते हैं। बाकी के जो अविवाहित पात्र हैं वे यूं ही दुर्घटना को आमंत्रण देने के लिए चले आते हैं। एक संत किस्म के इंसान हर रोज एक हजार एक सौ ग्यारह बार जय राम जी के जाप का दृढ़ संकल्प ले कर घर से निकलते हैं। टार्गेट पूरा करने के चक्कर में ये मनुष्य तो मनुष्य बल्कि मनुष्येतर प्राणियों को भी नहीं बख्शते। दो कारणों से ये लगभग रेंगते से चलते हैं। एक तो यह कि दिन में ज्यादा से ज्यादा जीवों से, संभव हो तो लौट फेर दोनों बार भेंट हो सके और दूसरे यह कि कहीं गिनने मे गलती न हो जाए।
यदि आप में तेज चलने का कुटैव  है तो कई बार अपने आपको जज़्ब करने को तैयार रहिए। क्योंकि भैंसों का झुंड तो एक बार आपकी राह छोड़ भी सकता है मगर सड़क घेर कर दीवार की तरह जा रही स्त्रियॉं के जत्थे के उस पार तो हवा की भी क्या मजाल जो जा सके। फिर आप किसी किसी खेत की मूली हो कर कैसे जा पाएंगे? हाँ, ऐन उसी वक्त किसी दैव योग से मोटर साइकिल पर मंदिर के लिए निकलने वाले पुजारी जी या फिर छुट्टी मना कर अलसुबह स्टेशन से ऑटो मे लौट रहे होस्टेलर्स गुजरें और हैड लाइट से बिदक कर वे आपको जगह दे दें तो आपका सौभाग्य! वरना जो रास्ते बचते हैं वे हैं: या तो आप डिवाइडर फांद कर रोंग साइड पकड़ लें या फिर यू टर्न ले कर वापस मेन गेट तक पहुँचें और दुबारा अपनी सैर शुरू करें। आगे चलने पर हनुमान मंदिर मिलेगा। वहाँ परिजनों द्वारा मंदिर की चौखट पर सत्तर अस्सी साला बुजुर्ग बिना कोई झंझट पाले पवन-पुत्र से उसी तरह बल ग्रहण करते नजर आएंगे जैसे बिना मीटर लगाए बिजली के खंभे पर तार डाल कर गुणी जन सीधे बिजली खींच लेते हैं।
अब जहां आप पहुँचते हैं वहाँ कसरत के नाम पर की जा रही बे सिर-पैर की हरकतें देख कर आप वाकई चकरा जाएंगे कि कहीं ताजमहल के बाद आगरा का दूसरा विश्व प्रसिद्ध मुकाम कहीं यही तो नहीं! आगरा के आबाद वार्डों में फिर भी हंसने, गाने, रोने और कपड़े फाड़ने जैसी इनी गिनी क्लासिकल क्रियाएँ ही संपादित होती हैं, जबकि यहाँ मैदान में प्रदर्शित हरकतों की बेहद मौलिक और विस्तृत रेंज देखी जा सकती है। इधर देखिये, बेतहाशा ताली पीटी जा रही है। शक्लों से नहीं लगता कि ये जनाब न मर्दों में आते हैं न जनानों में, मगर ताली पीटने की  अदा बिलकुल वैसी ही है। उधर कई मरदूद नाक की सीध चलने के जमाने के दस्तूर के उलट नितम्बों की सीध चल रहे हैं। दूर झुटपुटे में एक दो फिलोसफर बंधु ऐसे हैं जो लगता है घंटों से खड़ी दौड़ पर पिले पड़े हैं। खड़ी दौड़ वह विचित्र दौड़ है जिसमे आदमी दौड़ने का उपक्रम अवश्य करता है किन्तु कहीं पहुंचता नहीं हैं। बहुत हुआ, अब इन्हें इनके हाल पर छोड़ते हैं। ये अपनी दुनिया में मुब्तला रहें, हम अपनी दुनिया मे लौटते हैं।