Tuesday, December 1, 2009

जाने क्या तूने कही......जाने क्या मैंने सुनी !!

*आगे अँधा मोड़ है
(आप आंख खोल कर चलें!)
* यह निमंत्रण-पत्र दो व्यक्तियों के लिए है
(मगर भीड़ नहो जुट पाई तो ज्यादा भी चलेंगे!)
* कृपया बच्चे साथ न लायें।
(कहाँ छोड़ कर आएं, ये आपकी टेंशन है!)
* यह आम रास्ता नहीं है।
(हम ही कोनसे आम हैं!)
* सावधान, बच्चे उतर रहे हैं।
(कोनसे प्रेत उतर रहे हैं, जो चिपट जायेंगे!)
* यह लिफ्ट ख़राब है।
(वैसे यह कल भी ख़राब थी और यही लक्षण रहे तो आगे भी ख़राब ही रहेगी!)
* कृपया समय से १५ मिनट पूर्व स्थान ग्रहण कर लें।
(किंतु इस मुगालते में न रहें कि समारोह समय पर ही शुरू होगा!)
* कृपया जूते यहाँ उतारें।
(वापस आने पर मिलें ही, उसी योनि में मिलें- यानि चप्पलों में तब्दील न हो जायें, यह हमारी जिम्मेदारी नहीं !)
* रेड लाइट पर- रुकें, देखें, चलें।
(रुकें, देखें कि कोई पुलिसिया तो नहीं देख रहा, चलें!)
* कृपया आते जाते गेट बंद करें।
(यानि कृपया की पगार पर चौकीदारी!)
* बीडी सिगरेट पीना मना है।
(वैसे आजादी की छोटी सी कीमत है- दो सौ रुपये। हो सकता है कल सरकार धुंआ उड़ाने का मासिक पास भी जारी कर दे!)

Wednesday, November 25, 2009

परिभाषाएं- कुछ अटपटी..... कुछ चटपटी

  • नाजुक बदन- वह गुलबदन जो जींस की जिप लगाने के भागीरथी प्रयास में फिसल पड़े, टी शर्ट के बटन लगाने में जिसकी उँगलियों के जोड़ उतर जायें तथा जो पीयर्स साबुन से हाथ मलते हुए हांफ उठे।
  • नाजुक मिजाज़- वह जीव जिसकी खड़ी व धारदार नाक पर मक्खी जैसे छोटे प्राणी के पिछवाडा टिकाने के लिए भी पर्याप्त स्थान न हो।
  • गले का पट्टा- कर्मचारी का वह मोबाइल जिसे कम्पनी ने दिलवाया हो.....और जिसमे आउटगोइंग बंद हो, सिर्फ़ इनकमिंग चालू हो।
  • गाल- चेहरे के दोनों ओर तनिक उभार लिए वह कोमल क्षेत्र , जिसे थपडियाने के लिए बारह वर्ष के लिए मास्टरजी को पट्टे पर दे दिया गया हो।
  • देश- वह गर्ल फ्रेंड जिसके रूप का रसपान करने वाले प्रेमी तो बहुत मिल जायेंगे किंतु जिसका हाथ थामने के नाम पर कोई नहीं मिलेगा।
  • सर्दी - वह मौसम जो हर किसी को अनुलोम- विलोम का साधक बनने पर मजबूर कर दे - फिर चाहे वे बाबा राम देव के शिष्य हों या न हों।
  • बुढ़ापा - वह एकल- इन्द्रिय अवस्था जिसमे स्वाद-इन्द्रिय के अलावा अन्य इन्द्रियां साथ छोड़ दें। डॉक्टर तथा आपके बच्चे षड्यंत्र कर ....उस पर भी पहरा बैठा दें।
  • ढर्रा- वही डेढ़ लीटर दूध..... रोज़।
  • जिद- मनुष्यों की तरह पेड़ पौधों को न कभी पायरिया होता, न डायरिया। इसी तरह केंचुए को स्पोंडीलायटिस नहीं होती, ना ही भैंस को अलजायमर। और तो और अमीबा को मोतियाबिंद नहीं होता, न ही साँप को वर्टिगो के चक्कर आते। ......तो भी मानव शरीर श्रेष्ठ है - यह जिद नहीं तो और क्या है!
  • साधारण बॉलपेन - पॉवर स्टीयरिंग के ज़माने में ऊबड़-खाबड़ हाईवे पर एक ओवर लोडेड ट्रक चलाने की माफिक, दम फुलाऊ।

Monday, November 16, 2009

साक्षात्कार......बनाम मृदा-कुंडली का मिलान

आपका नाम?
जी, किसन लाल।
किस वर्ग के हो?
जी, मैं आरक्षित वर्ग का हूँ।
शाबाश! समझो आधा मैदान तो तुमने मार लिया। अच्छा किसन जी, आप बाहरी तो नहीं हो ना?
कतई नहीं सर, मैं तो पैदायश से ही हिन्दुस्तानी हूँ।
हिन्दुस्तानी तो हम सब हैं! भला उसमे कौन सी अनोखी बात है? .......मेरा मतलब था कि तुम बिहार, यूपी के तो नही हो?
नहीं सर, मैं बिहार, यूपी का नहीं हूँ। और तो और मेरी सात पुश्तों में भी कोई बिहार, यूपी का नही रहा।
गुड, गुड। ....तो हम यह मानें कि तुम यहीं के हो?
यस सर-सौ फीसदी। मैं बाकायदा इसी प्रदेश का हूँ।
तब तो तुम्हारी मातृभाषा भी हिन्दी हुई। क्यों, ठीक है ना?
निश्चित ही सर। यूँ तो मेरी औकात नहीं, पर कभी विधानसभा जाने का मौका आन ही पड़ा तो में विश्वास दिलाता हूँ कि शपथ हिन्दी मैं ही ग्रहण करूंगा।
खैर छोडिये इसे। अब सब बातों की एक बात! ....ये बताओ कि तुम्हारी मिट्टी क्या हमारी कम्पनी की मिट्टी से 'मैच' करती है?
मैं ......कुछ समझा नहीं सर?
समझाता हूँ। समझाता हूँ। तुमने बचपन में कबड्डी तो जरूर खेली होगी?
खूब खेली है सर, बल्कि मैं तो गाँव की कबड्डी टीम का कप्तान भी रहा हूँ।
फिर तो जरूर जानते होगे कि तुम्हारे जिस्म पर चढ़ने वाली धूल किस मिट्टी की थी?
सर, वैसे भूगोल मैंने आठवें दर्जे तक पढ़ कर छोड़ दिया था। जहाँ तक मेरा ख्याल है वह हमारे गाँव की .....काली मिट्टी थी।
हूँ! और यह कम्पनी जो तुम्हारे गाँव की नहीं है, यह किस गारे से बनी है....किस मिट्टी से उठी है-कुछ पता है?
जी, वह तो लाल मिट्टी है-शायद?
शायद नहीं, बेशक लाल ही है। अच्छा तुमने इतिहास पढ़ा है?
हाँ जी, पढ़ा तो है- थोड़ा थोड़ा ।
यक्ष ने पूछा था-सबसे बड़ा अजूबा क्या है? युधिष्ठिर की जगह मैं होता, तो जानते हो क्या जवाब देता?
नहीं सर, मैं मूढ़ भला क्या जानूं!
मैं कहता कि यह पता होते हुए भी कि तुम इस मिट्टी के लाल नहीं हो.....तुम्हारी मिट्टी यहाँ की मिट्टी से 'मैच' नहीं करती फिर भी नौकरी की उम्मीद में आवेदन कर देना ही दुनिया का सबसे महान आश्चर्य है।
जी...जी सर।
जी क्या?....आप जा सकते हैं।

Sunday, November 8, 2009

भाई दूज पर तारी सवारी और सुगम टीका-करण की चंद तरकीबें जुदा

इस साल भाई दूज पर मेरा भी गाँव जाने का योग- पाठक ही बता पाएंगे कि 'सु' या 'दु'- हुआ। देखता क्या हूँ कि सुबह से ही सड़क पुल्लिंग भरपूर वयस्कों, वयस्कों और अल्पव्यस्कों से पटी हुई है। देश की आधी आबादी शेष आधी आबादी से टीका कराने को यूँ उमड़ रही है जैसे किसी ज़माने में आजादी के परवानों की टुकडियां सड़कों पर निकल पड़ती थी। जल्दी ही हमने भी बाकियों की तरह सड़क पर डेरा डाल दिया। करवा चौथ पर चाँद देखने को उतारू सुहागिन की तरह हम किसी सवारी वाहन की एक झलक पाने को रह रह कर सड़क की मंझधार में कूदते। दूर सड़क और आसमान के संधि-स्थल से जो वाहन भ्रूण उभरते, उनकी बढ़त पर लगातार नजर गडाये रखते। जब वे इतनी नजदीक आ चुके होते कि अंग-प्रत्यंग विकसित कर कोई शक्ल अख्तियार कर सकें तो वह शक्ल अमूमन किसी कार, ट्रक, ट्रेक्टर, ट्रैक्स अथवा अनुबंधित बस की होती। हमारी घनघोर तपस्या से किंचित प्रसन्न हो कर कभी-कभार परम पिता हमारी ओर टेंपो आदि धकेल देता। उसे देख कर ही अपना कलेजा मुंह को आ जाता क्योंकि उस पर चढ़ कर सफर करना किसी सर्कस में करतब दिखाने से कम न होता। छप्पन गोधन पुजवा चुके हमसे इस उम्र में खतरों के खिलाड़ी बन जाने की उम्मीद रखना हमारे साथ नाइंसाफी होता। दुपहर होने को आई, भाई-भतीजों में जो भाग्यवान थे, गंतव्य पर पहुँच कर मुंह मीठा करा चुके, मगर हम बस सड़क के किनारे से सड़क के मध्य के बीच दोलक की तरह गति करते ही रह गए।
कोई चारा रहते न देख, हमने पास के शहर में ट्रेवल्स वालों से संपर्क किया। पता चला कि शहर की तमाम टैक्सियाँ पहले ही बुक हो चुकी हैं। कुछ जो बची हैं वे बुक नहीं हो सकती चूँकि उनके पुरूष ड्राईवर टीका कराने हेतु गमन कर चुकें हैं। इसी बीच मौका ताड़ कर कुछ ट्रैक्टर- ट्रोली मालिकों ने बड़ी चतुराई से अपने वाहनों को टीकाच्छुकों को इधर से उधर धोने में जरूर जोत दिया था। परन्तु उनकी सेवाएं इस समय लेने से तो दीया-बत्ती तक भी पहुँच पाना मुमकिन न होता। झक मार कर मैंने पास पड़ा डंडा उठाया और तडातड मन को मार दिया। मन बेचारा एक कोने में बैठकर सिसकने लगा, मैं भी उसी कोने में बैठ गया।
बैठ तो गया, मगर चिंतन को तो मारा नहीं था चुनांचे वह नहीं बैठा। नाथ-पगहा खींच फिर टीके की दिशा में दौड़ने- मचलने लगा। मैंने झोले में से तरकीबों को उठाया और उन्हें आपस में भिड़ाने लगा। जो स्वर्ग नहीं सिधारी.... उनमे से कुछ प्रस्तुत हैं। आने वाली संततियां उन्हें काम में लेना चाहें तो माबदौलत को कोई उज्र नहीं होगा।
पहली तरकीब- भारतवर्ष में सभी प्रमुख पर्व तिथियों पर पड़ते हैं। अक्सर कैलेंडर में दो तीज, दो अमावस, दो अष्टमी, दो पूर्णिमा आदि होते हैं। यह महज संयोग नहीं है। यह इस बात का सबूत है कि हमारे पुरखों ने आदि काल में ही मात्र एक तिथि पर तीज-त्यौहार पड़ने की दिक्कतों को सफलतापूर्वक भांप लिया था। इसलिए अपनी सुविधानुसार पर्व मनाने का विधि-विधान वे पहले ही कर के गए थे। किंतु में ठहरा उनके बलशाली कन्धों पर आरूढ़ उनका अर्वाचीन उत्तराधिकारी, सो उनसे ज्यादा दूरअंदेशी तो मुझे होना ही था। मेरा युग-प्रवर्तक सुझाव है कि धनतेरस से शुरू कर दूज तक आपसी समझ से किसी एक दिन यह त्यौहार मना लिया जाए तो दुनिया को भारी आप-धापी से बचाया जा सकता है।
दूसरी तरकीब- दो दूरस्थ भाई अपनी प्रिय बहनों की अदला-बदली कर लें, यानि 'सिस्टर स्वापिंग'। मैं तुम्हारी बहन से जो यहाँ मेरे गाँव में है टीका करा लूँ, बदले मैं तुम मेरी बहन से वहीं अपने गाँव में टीका करा लो। ठीक वैसे ही, जिस तरह दो कर्मचारी 'म्यूचुअल ट्रान्सफर' करा लेते हैं। इससे टीका-करण में सुगमता तो होगी ही, साथ ही राष्ट्रीय खजाने पर पड़ने वाला बोझ भी कुछ कम हो सकेगा।
तीसरी और आखिरी तरकीब - सर्व ज्ञात तथ्य है कि दूर बसे भाइयों को प्रतिवर्ष बहनें डाक द्वारा राखी पहुँचाती हैं। इसके एवज में भाई लोग
भी अपना आशीर्वाद और स्नेह मनीऑर्डर द्वारा भेज कर निश्चिंत हो जाते हैं। मुझे कोई वजह दिखाई नहीं देती कि इसी माकूल व्यवस्था को रोली-टीका के लिए भी लागू न किया जा सके। टेलेफोन, ई -मेल के हाथों बुरी तरह पिटे डाक विभाग के स्वास्थ्य के लिए भी यह गुणकारी होगा। अलावा इसके, मेरे जैसों के मस्तक भी बिन टीका सूने नहीं रहेंगे।

Wednesday, November 4, 2009

श्री कर्स्टन की त्रिगुणी माया

- जीत का सामना

माथा तो मेरा तभी ठनक गया था, जब तुमने विदेशी जमीन पर पहली ट्राई सीरीज़ जीत ली थी। फिर मैंने अपने दिल को समझा लिया था कि यह तुक्का भी तो हो सकता है! किंतु एक के बाद एक, पाँच सीरीज़ में जीत, वो भी घरु मैदानों के इतर। यह सब तो संयोग नही हो सकता। अब तो मेरा शक यकीन में बदल गया है कि परदेस में रंगरेलियां मनाने को जरूर तुमने गोरी चमड़ी वाली मेरी सौतें पाल रखी हैं । चूल्हे में जाए मरी ऐसी जीत, और ऐसा किरकेट! कहे देती हूँ, कल ही सन्यास ले लो वरना मेरा मरा मुँह देखो।

- हार के पार

चैम्पियंस ट्राफी के एक अहम् मैच में पहले नंबर पर काबिज़ भारत की पाकिस्तान के हाथों करारी हार पर बवाल खड़ा हो गया है। आरोप है कि मैच में एकाधिक अनफिट खिलाड़ी खिलाये गए थे। एकाधिक ही क्यों? मैं तो कहूँगा कि सारे के सारे खिलाड़ी ही अनफिट थे। यूँ देखा जाए तो इसमे खिलाड़ियों का कुछ दोष भी नहीं है। हिंदुस्तान जैसे देश में जहाँ चित्त कि वृत्तियों के निरोध का पाठ घुट्टी में पिलाये जाने का रिवाज़ रहा हो, वहां आख़िर जीत के लिए फिट खिलाड़ी पैदा भी कैसे हो सकते हैं? तो क्या हम भारतवासियों के भाग्य में पराजय के अलावा कुछ भी नहीं बदा है? नहीं, ऐसा नहीं है - दो तीन रास्ते हैं। अव्वल तो छद्म राष्ट्रवादी इजाजत दें तो कोच, मेंटल कंडीशनर, चीयर लीडर्स की तरह ही फिट खिलाड़ी भी आयात किए जा सकते हैं। मगर देशभक्ति कुछ ज्यादा ही अंगडाई ले रही हो तो खिलाड़ियों की स्नायु-दुर्बलता दूर करने हेतु जैतून का तेल, शिलाजीत या स्वर्ण- भस्म सरीखे देसी नुस्खे आजमा कर देखे जा सकते हैं। फायदा महसूस न होने की सूरत में टीम को एक सेक्सोलोजिस्ट की सेवाएं तो दी ही जा सकती हैं, जो उपलब्ध घरेलू अनफिटों में से ही सर्वाधिक फिट खिलाड़ी चुनने में हमारी मदद कर सके। हाँ! टीम में चयन के दावेदार उम्र-दराज खिलाड़ियों की फिटनैस पर खास निगाह रखने की जरूरत है, क्योंकि उम्र ढलने से कुदरती तौर पर कमजोरी आ कर छा जाया करती है।

-अनदुही प्रतिभा

हिंदुस्तान के नौजवानों , मैं तुम्हारा आव्हान करता हूँ। हे युवाओं! दुनिया को दिखा दो, कि तुम्हारे होते किसी के लिए भी देश की नाक के साथ छेड़-छाड़ करना मुमकिन नहीं। सर्कुलर रोड पर शाम के झुटपुटे में पार्क मोटर सायकिलों की आड़ में खड़े बेखबर आलिंगनबद्ध जोडों, जागो! और स्वयं का मोल पहचानो, पहचानो की तुममे देश को जिताने की अकूत क्षमता है। जमाने की निगाहों से ओझल हो, बुद्धा गार्डन की सूनी झाडियों के तले लुक-छिप कर काम-क्रीडा में रत प्रेमी युगलों! तुम्हे तनिक भी अहसास नहीं कि तुम अपने साथ-साथ राष्ट्र की भी प्रतिभा निखारने में किस कदर जी-जान से जुटे हो। तुम्हे नहीं पता तुम क्रिकेट के आसमान के उभरते नक्षत्र हो,विश्व कप
के संभावित हो, भावी टीम के कर्णधार हो। व्यर्थ का संकोच और लोक-लाज त्याग कर अपनी साधना का बेधड़क और खुल्लम-खुल्ला अभ्यास करो ताकि लोगों की नजरों में आ सको। .....तभी तो इने-गिने चेहरों में से ही उठा-गिरा कर टीम खड़ी करने की कवायद में लगे चयनकर्ताओं को पञ्च-तारा होटलों के वातानुकूलित कक्षों से बाहर निकाल अपनी ओर खींच सकोगे। श्रीकांत और उनकी मण्डली को भी चाहिए कि वे गेंद ओर बल्ले से आगे जा कर बिखरी हुई कुदरती प्रतिभा को सहेजें , जिसे क्रिकेट का अल्पकालीन कोर्से करा कर विश्वकप की जंग में उतारा जा सके।

Sunday, September 27, 2009

नाच-नचैय्या, हम हूँ ना

गउओं को क्यों खेत चराना
घास चरैय्या, हम हूँ ना !
सूरत-सूरत, बाना -बाना
रूप धरैय्या, हम हूँ ना !
चप्पू छोड़ो, कुछ मत सोचो
नाव खिवैय्या, हम हूँ ना !
क्या बस्ती-बस्ती स्वांग रचाना
रास रसैय्या हम हूँ ना !
लगा यहाँ है आना जाना
युग विचरैय्या, हम हूँ ना !
बनना, मिटना, रोना, गाना
नाच नचैय्या, हम हूँ ना!

Saturday, September 19, 2009

नया टर्मिनल १(म)

जब से मवेशियों के दिन फिरे और वे हवाई सफर करने लगे तभी से देश की दिग्गज एयरलाइंस ने उडान में मुफ्त नाश्ता सर्व करना बंद कर दिया। इसके कई कारण थे, कुछ छोटे, कुछ बड़े। एक तो इन नव-यात्रियों को छुरी-कांटा सभ्यता छू तक नहीं गई थी। दूसरा, इनकी मन पसंद डिश पैक करने वाली कोई बहुराष्ट्रीय कम्पनी अभी तक हिंदुस्तान में नहीं आ पाई थी। और तीसरा जो है वह ये कि जानवरों को क्या खेत चराना? अब दिव्य पुरुषों की तरह इस क्लास को ऊंचे किस्म के दुखों का सुभीता तो था नहीं, जो भी दुःख थे सारे के सारे दैहिक ही थे। सो पेट के भरण, स्वाद-तंतुओं के पोषण और शारीरिक कष्टों के निवारण के लिए एक प्रतिनिधि मंडल को नागरिक विमानन मंत्री से मुलाकात के लिए दिल्ली भेजा गया। बैठक में प्रतिनिधियों ने सरकार के सामने हर घरेलू विमान तल पर एक कैटल-फ्रैंडली टर्मिनल बनाये जाने की पुरजोर मांग की- एक ऐसा टर्मिनल जिसमे चाहरदीवारी के स्थान पर चरने-योग्य बागड़ उगी हो तथा जहाँ सोफ्टी , चाकलेट और केक के बदले ताज़े चारे के हरे-हरे गुच्छे या फ़िर चोकर-खली मिक्स्ड भूसे की लुगदी के कोन मिलते हों। टर्मिनल में फ्रेश होने के लिए एक पोखर अथवा जोहडी तथा फुर्सत के लम्हों में तसल्ली से जुगाली करने के लिए मखमली दूब युक्त लॉबी होना बेहद जरूरी है। एक (म) के नाम से नए टर्मिनल की मंजूरी को लगभग तय माना जा रहा है क्योंकि चौतरफा अलगाव की मार झेल रही सरकार 'कैटलिस्तान' के लिए एक नया मोर्चा खोलने का जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं है।

आत्म-बोध

स्वयंवर के लिए उधार लिया विष्णु-रूप धर कर नारद मुनि के मन में एक श्रेष्ठि-भाव घर कर गया जिसे उस युग में अहंकार कहा जाता था। इधर मैंने भी सरकारी खर्चे पर दो-चार हवाई यात्रायें क्या कर डाली कि मेरे हृदय में भी यही ग्रंथि पनपी और बाकायदा जोर भी मारने लगी। स्वयं को प्रभु-लोक का वासी मान मैं अपने ही बन्धु-बांधवों को ओछा समझने लगा। मैं खल कामी ताउम्र इसी माया में पड़ा रहता यदि संयोग से थरूर गुरु ने मुझे दिव्य दर्शन न दिए होते। यह उन्ही की असीम अनुकम्पा थी जिसकी बदौलत मैं समझ सका कि विमान के अन्दर मेरी अगल-बगल की सीटों पर जो जीव विराजमान रहा करते थे वे और कोई नहीं बल्कि जुगाली-सम्राट चौपाये ही थे। बस उसी क्षण मेरी आँखे खुल गई और मुझे अपने सच्चे यानि मवेशी स्वरुप का बोध हो उठा। मेरा झूठा अहम् भाव एक ही झटके में कहीं तिरोहित हो गया।

इतिहास की धोखाधडी ....उर्फ़ वो मेरा गाँधी बनते बनते रह जाना

चलो मान लिया कि मेरी जबान से अंग्रेजी बोल नहीं झरते ,बस मैं रम्भा भर लेता हूँ, और यह भी कि मैं पिज्जा- बर्गर नहीं, घास-फूस पर बसर करता हूँ। इस से क्या फर्क पड़ता है अगर मैं टॉयलेट नहीं गोबर करता हूँ, पांच -सितारा होटल में नहीं, एक देसी बाड़े में रहता हूँ और धरती पर चलने में दो की जगह चारों पैरों का सहारा लेता हूँ। लब्बो-लुआब यह कि मैं केटल क्लास का सही मगर वायुयान का टिकेट तो मेरे पास अपर क्लास का था। लेकिन ऊँचे लोगों को मेरा ऊँचे दर्जे में बैठ कर सफर करना गवारा नहीं हुआ। फिर वही हुआ जो १८९३ में दक्षिण अफ्रीका के एक रेलवे प्लेटफोर्म पर हुआ था। यानि मेरी जन्म-पत्री बांचते हुए उन्होंने सामान समेत मुझे उठा कर रनवे पर पटक दिया। मैं अपनी जाति के अपमान का कड़वा घूंट पी कर रह गया। वाकये के दिन से ही पानी पीते समय मैं बड़ी हसरत से पोखर में अपना अक्स गौर से देखता आ रहा हूँ, लेकिन हाय रे, फूटे करम ! मैं हर बार गाँधी बनते बनते रह गया। अब तो मुझे यकीन हो चला है कि इतिहास भी हमारी कौम के साथ मजाक करता है, जो एक बार दोहराना शुरू तो कर देता है पर पूरी तरह दोहराने से रह जाता है।

Thursday, September 17, 2009

ख़बर की मौत

शहर के लोग मर रहे थे
हर शक्ल, हर मिजाज़
उम्र के हर पड़ाव पर
लोग बराबर मर रहे थे।
डर लगने लगा था
कि न जाने किधर से निकल मौत
कब हम में से किसी को ही न दबोच ले।
फिर कुछ रोज़ बाद लगा कि
मौत शहर छोड़ चुकी है
हर सिम्त निरापद है, हर ओर मौज है।
मगर यह ग़लत था
लोग अभी भी मर रहे थे
बदस्तूर मर रहे थे
और भी ज्यादा तादाद में मर रहे थे
पूरी ईमानदारी के साथ मर रहे थे।
यह जरूर है कि अब
खबरचियों कि भूख मर गई थी।

Wednesday, September 16, 2009

डेंगू देव प्रसन्न हों!

सहमे हुए परिजन
कतार में आगे बढ़ रहें हैं
तीन-तीन, चार-चार की टुकडियों में।
रिसता हुआ रक्त फाहे से थामे हुए
पहली टुकडी जैसे ही वापस लौटती है
दूसरी चुपचाप
उसकी जगह ले लेती है
दूसरी के बाद तीसरी
फ़िर चौथी....सातवीं ....... ।
न जाने ताज़ा लहू के
कितने चढावों के बाद
प्रसन्न होगा तू , रक्त-पिपासु
एडीज ऐजिप्ट।

Saturday, September 12, 2009

तू ही जीता, बेटा!

हमेशा की तरह
उन दोनों में
एक दिन फिर ठन गई।
तबाही का कौनसा साजो-सामान नहीं है
मेरे पास?
मिसाईल है, रॉकेट है, परमाणु बम है।
बता, तेरे पास क्या है ?
बोली, बेटा मेरे पास मच्छर है।
बेटे की बोलती बंद!
सिर शर्म के मारे झुक गया।
ना बेटा, जी छोटा नहीं करते
इनको पालने- पोसने का बंदोबस्त
तो तू ही करता है ,
पनाह तो तू ही देता है
इसलिए तू ही जीता बेटे, मै हारी।

Tuesday, September 1, 2009

जश्न के कोलाहल में

जश्न के जबरदस्त कोलाहल में
आज इतने गहरे उतरो
कि एक मनहूस स्तब्धता कल
ढूँढ़ते-ढूँढ़ते तुम तक आ पहुंचे
तो तुम्हे ज़रा भी मलाल न हो।
पूरी शिद्दत से आज
इस कदर पंख फडफडाओ
कि कल किसी दिशा से अचानक
कोई क्रूर शिकारी
तुम्हारे सुनहरे-नर्म पर
चिंदी-चिंदी कर हवा में बिखरा दे
तो तुम बेहाल न हो।
कारूं का खजाना हैं
धूप के ये उड़ते हुए टुकड़े भी
देखना! कहीं हाथों से न फिसलें
ताकि कल अगर मौसम पलटे
तो जीना मुहाल न हो।

सामूहिक कृत्य

वह अस्पताल के बैड पर
लेटी थी निशब्द और निश्चेष्ट
मरीज़ देखने एक अन्दर गया
अन्दर वाले उसी क्षण बाहर आ गए।
उसके बाद अगलों की बारी थी
लोग बारी-बारी अन्दर बाहर होते रहे।
शून्य में ताकती वैसे ही पड़ी रही वह, निर्विकार
यह सिलसिला बिना टूटे यूँ ही चलता रहा
जब तक कि पूरे
'विजिटिंग आवर्स' समाप्त नहीं हो गए।

Monday, July 13, 2009

काबू

शांतिपूर्ण आन्दोलन उस वक़्त हिंसक हो उठा जब प्रदर्शनकारियों में से किसी ने अचानक पुलिस पर पथराव शुरू कर दिया। मामले की गंभीरता भांपते हुए दंगा निरोधक बल की एक टुकडी तत्काल घटना स्थल की और रवाना कर दी गई। उग्र भीड़ को बेकाबू होते देख जिले के आला अफसर भी मौके पर पहुँच गए। फायरिंग की चेतावनी समेत खूनखराबे पर उतारू भीड़ को तितर-बितर करने के सभी उपाय बेअसर रहे। तभी जिला अधिकारी ने माइक संभाल कर दंगाइयों को संबोधित किया। उनकी घोषणा के चंद मिनटों के अन्दर घटना पूरा स्थल खाली हो गया।
सभी प्रदर्शनकारी पानी भरने के लिए अपने अपने घरों को खिसक चुके थे।

हिया बेकरार हो उठे

ज्यूँ ही बरसात का
पहला खड़ा दोंगडा पड़ा
कि बावले हो चले नाले
कंगले ताल-तलैय्या
सब हो उठे मालामाल!
चलने लगीं ठहरी हुई
अनगिन खड्डीयां
बुने जाने लगे खुले में
उधर,हरे गुदाज़ गलीचे।
सजने लगी हर ठौर
मकरंद की मंडियां
जहाँ तहां डोलने लगीं
मत्त पतंगों की टोलियाँ
एक ही झटके में
कैसा चमकने लगा कुदरत का
मंदा पड़ा कारोबार!
देखो! उसे क्या हौसला मिला
कि चट्टान का ताबूत तोड़
आँख मलती फ़िर उठ खड़ी हुई
दफ़्न जिंदगी।
सरे शाम फ़िर एक बार
जुड़ने लगे मेघ मल्हार मंडली के
सभी बिखरे हुए मेंढक।
दिन ढले रोज़
रचने लगा सूरज
रंगों का एक अदभुत तिलिस्म
फ़िर हवा बदन में
जगाने लगी एक अजीब जादू
हिया यूँ ही बेकरार हो उठे।

Saturday, July 4, 2009

छापा

गई रात शहर की सीमा से करीब पॉँच किलोमीटर दूर पुलिस के एक गश्ती दल ने जब एक लोडिंग ट्रक को जांच हेतु रुकने का इशारा किया तो चालक अँधाधुंध गति बढाकर ट्रक ले भागा। कड़कड़ नाके पर तैनात दल को तुंरत वायरलैस से सूचना भेजी गई, जिसने बैरीकेड्स गिरा कर वाहन को रुकने पर मजबूर कर दिया। रुकते ही ट्रक को जवानों द्वारा घेर कर तलाशी ली गई। पता लगा कि शराब कि पेटियों में चोरी छुपे पानी ले जाया जा रहा था। पानी की पेटियां जब्त कर चालकों को अवैध जल व्यापार कानून, २००९ के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।

चिकित्सा जगत का नया रोग

डॉक्टर साहब, मेहरबानी करके जरा इन्हें देख लीजिये। पता नहीं इन्हें कौनसी बीमारी लग गई है। न जाने कैसी कैसी ऊलजुलूल हरकते करते रहते हैं। ओझा से झाड़-फूँक भी करवाई कि कहीं उपरी हवा न लग गई हो, पर कोई फायदा नही हुआ। अब तो इनकी जान बस आपके हाथों में है।
अजीब हरकते करते हैं, मतलब? कुछ खुलकर बताओ।
जैसे, उत्तेजित होकर इधर से उधर चक्कर काटना... अचानक बाहर का रुख करना, फ़िर लपकते हुए अन्दर आना।
हूँ, और?
घड़ी दो घड़ी बाद नीचे जीने कि तरफ़ झांकना... सोते से हडबडा कर उठ बैठना... रह-रह कर घड़ी के काँटो की तरफ़ देखना... किसी से सीधे मुंह बात न करना और सारे घर को सिर पर उठा लेना गोया कोई आयला तूफ़ान आया हो।
अच्छा, अच्छे से सोच कर बताओ, क्या ये लक्षण इनमें हर रोज देखने में आते है? मेरा मतलब है बिना नागा?
नही, हैरानी कि बात तो यही है कि एक रोज़ ये बिल्कुल नोर्मल रहते है, पर अगले ही रोज़ न जाने कौनसा जुनून इन पर सवार हो जाता है।
बस बस, समझ गया मैं। इस बीमारी कि कोई दवा अब तक नही बनी पर फिक्र मत करो, इसमे जान जाने का खतरा कतई नही है। कुछ दिनों बाद इन्हें अपने आप आराम आ जाएगा।
ठीक है, पर ये अजीबोगरीब बीमारी आख़िर है क्या?
कुछ खास नहीं। अक्सर तेज गर्मी क मौसम में इस रोग के वायरस पनपते हैं। चिकित्सा जगत में इस रोग को "नल रोग" कहा जाता है।

Tuesday, June 23, 2009

धमकी का असर

रोज-रोज की लूटपाट, गाली-गलौच और हाथापाई की घटनाओं से आजिज़ कर उन्होंने बेमुद्दत हड़ताल पर जाने की धमकी दे डाली । नज़दीक आते चुनावों के वक़्त जनता में रोष फूटने के डर से सत्ता के गलियारों में हड़कंप मच गयामुख्यमंत्री के निवास पर ताबड़तोड़ बुलाई गई कैबिनेट की आपात बैठक में उनकी प्रमुख मांगें मानते हुए पानी के प्रत्येक टैंकर पर लालबत्ती और हूटर लगाने तथा उसके साथ स्वचालित हथियारों से लैस पैरामिलिट्री फोर्स के चार मोटरसाइकिल सवारों के विशेष दस्ते की तैनाती की फौरन मंजूरी दे दी गई

तिथि का रहस्य

हाल ही में मैंने एक नितान्त उपेक्षित विषय पर शोध किया है -यही की रचना के अंत में या ठीक पहले हर रचनाकार आख़िर दिन अथवा दिनांक या दोनों क्यों लिख छोड़ता है। मैं यहीं पर नहीं रुका बल्कि मशहूर रचनाओं की तिथियों पर अंधाधुंध और ज्यादा घनघोर शोध सम्पन्न कर कई महत्वपूर्ण निष्कर्षों तक भी पहुँच गया। इन्हीं में से एक निष्कर्ष में मैंने पाया कि गुलज़ार साहब ने अपने गीत ' दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन.........' तथा दुष्यंत कुमार ने अपनी गज़ल ' कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए, कहीं ये शाम सिरहाने लगा के बैठ गए.....' जिस दिन लिखी थी वो पानी ना आने वाला दिन था।

Saturday, June 20, 2009

मुमकिन है जी उठो तुम,सृष्टि भी

लुटाने को अब बचा ही क्या है
इन्द्रदेव के पास
कब का खाली हो गया है उनका खजाना
देते-देते हो चुके हैं
वे अब राजा से रंक ।
हवियों को सीढियां बना कर भी
अब नहीं पहुँचा जा सकता जलधरों तक
यज्ञाहुतियों से पसीज कर भी
नहीं उतरेगा कुपोषित बादलों के
अंक से दो बूंद जल।
और कितने गहरे उतरोगे
धरती के भीतर तुम?
फ़िर हाथ भी क्या लगेगा वहां
जो तर कर सके सूखे हलक।
मेधा के बल पर
(खूब इतराते हो तुम जिस पर )
शायद ही कभी निकल पायेगा
प्यास का कोई मुकम्मल हल।
बस एक ही रास्ता है
गर लगा सको लगाम लालच पर
कर सको वामनी खुदगर्जी स्वाहा
और तोड़ सको कुदरत से छल का
सदियों से चला आ रहा सिलसिला
तो मुमकिन है इन्द्रदेव
फ़िर से हो उठें मालामाल
फ़िर नाच उठे ताज़गी हवाओं पर चढ़ कर
धरती से फ़िर फूट पड़ें अनजान सोते
आसमान से झमाझम बरसने लगे सुकून
और जी उठो तुम, तुम्हारे साथ सृष्टि भी।

Friday, June 19, 2009

जलोपदेश

पानी के मिल जाने पर इतना अहंकार मत कर, न ही नल के चले जाने पर नाहक शोक कर। पानी एक आनी जानी चीज़ है। हमेशा खुले नल के नीचे रखी बाल्टी को ही परम सत्य मान।

न्यूनतम साझा कार्यक्रम

*सीमा सुरक्षा बल की तर्ज़ पर जल सुरक्षा बल /नल सुरक्षा बल का गठन
*स्विस बैंकों में जमा जल राशियों का पता लगा कर देश में वापस लाना
*जमीन के अन्दर से जमीन के अन्दर दुश्मन की पेय जल पाइप लाइन पर अचूक वार करने वाले मध्यम दूरी के जल प्रक्षेपास्त्र का परीक्षण करना
*शासकीय कर्मचारियों को अपने घरों के लिए पानी भरने हेतु स्ट्रेटेजिक टाइम आउट की मंजूरी
*गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों के लिए सस्ती दरों पर (एक रूपया प्रति ड्रम ) पानी मुहैय्या कराना

Thursday, June 18, 2009

नल घनत्व पैमाना

एक या कम घर प्रति नल- यानी कुलीन वर्ग
प्रति नल दर्जन भर तक घर- यानि साधारण वर्ग
प्रति नल दर्जन से अधिक घर- यानि निम्न वर्ग
( इस वर्गीकरण के दायरे से बाहर- यानि वंचित वर्ग)

मल्टीलेयर वॉशिंग

( समय- खाना खाने के फौरन बाद, स्थान- वॉश बेसिन )
सुनती हो !सभी बच्चों को ले कर आ जाओ और हाथों को एक के ऊपर एक रख कर खड़े हो जाओ। हाँ ऐसे, अब मै धीरे-धीरे पानी डालूँगा, सभी के हाथ एक साथ धुल जायेंगे।
नोट- एक ही पानी से कुल्ला करने पर शोध अभी जारी है।

जल ऑडिट

सर्व जल अभियान से सम्बंधित एक याचिका की सुनवाई करते हुए माननीय न्यायालय ने सरकार को निर्देशित किया कि वह शीघ्र एक जल नियामक तंत्र विकसित करे। साथ ही सरकार को आदेश भी दिया कि वह हर घर के जल खर्च का वार्षिक ऑडिट कराये। माननीय न्यायालय ने यह भी कहा कि शौच जैसे अत्याधिक महत्व के कार्यों पर खर्च की गई जल राशि को ऑडिट से मुक्त रखा जाए।

पानी के प्रकार

पानी के तीन भेद हैं। पहली प्रकार का पानी वह है जो स्वयं नलों में आ जाता है। दूसरी प्रकार का पानी मोटर आदि से जबरन खींच कर नलों में लाया जाता है। और तीसरी प्रकार का पानी वह है.....जो टैंकर-युद्ध में अपने घोर पराक्रम से प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर प्राप्त किया जाता है.

Tuesday, June 16, 2009

अथ श्रीमदजलगीता

जलक्षेत्रे नक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः
बालका नर नारीश्चैव किमकुर्वत संजय।
(अर्थात, हे संजय, जल क्षेत्र यानि नल के मुहाने पर जल-युद्ध के लिए तत्पर बालकों, नर और नारियों ने क्या किया?)

टैंकर प्रस्थान पर

जलपति बप्पा मोरया
अगले पसर तू जल्दी आ।

अथश्रीजलगीता

जलक्षेत्रे नलक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः
बालका नरनारीश्चैव किमकुर्वत संजय।
(अर्थात, हे संजय, जलक्षेत्र यानि नल के मुहाने पर जल-युद्ध के लिए तत्पर बालकों, नर और नारियों ने क्या किया?)

Sunday, June 14, 2009

अदा-ए-नल

वो तेरा इस लहज़ा आना ...
कि एक लम्हे की झलक, फ़िर दूर कहीं खो जाना,
मुद्दतों तडपना
जाने जानां...
वो तेरा इस लहज़ा आना।

पहरा

जिसके घर में जवान लड़की हो या खुली छत पर पानी से भरे भांडे, उसकी आंखों में नींद कहाँ?

जहर

अरे! अरे! क्या कर रहे हो? नीट पीओगे तो लीवर का सत्यानाश हो जाएगा। पानी में कुछ मिला क्यों नहीं लेते? सोडा, व्हिस्की, पेप्सी.... कुछ भी।

Saturday, June 13, 2009

जल मैनिफेस्टो

सदियों से समाज दो वर्गों में बँटा है। एक तरफ़ मुट्ठीभर जलवान कुलीन, तो दूसरी तरफ़ असंख्य जलहीन दीन। एक आकंठ सिंचित तो दूसरा ठेठ वंचित। दोनों वर्गों में जल संघर्ष अटल है। वंचितों ! एक जुट हो। जल पर कल जन- जन का हक़ होगा।

जलोपनिषद

पानी एक है, निराकार है, किंतु हम सांसारिक जीवों को यह टैंकर, टंकी, बाल्टी आदि के रूप में दिखता है। यह सब प्रकार के बंधनों से परे है मगर मोह माया के अज्ञान में पड़ कर प्राणी इसे तेरा मेरा समझने लगते हैं व सिर-फुटौवल करते हैं।

डायनासोर

पापा, पापा, ये खंडहर से कैसे हैं? कौन से ज़माने के है ये? बताओ न पापा।
बेटा, लोग इन्हें वाटर पार्क कहा करते थे। सदी के शुरू में पानी का संकट क्या आया कि ये चलन से बाहर हो गए। पुरातत्व विभाग ने इन्हें जल स्मारक घोषित कर पर्यटकों हेतु खोल दिया है।

Friday, June 12, 2009

ये जो एक शहर था

इस नगरी में अब कोई नहीं रहता - न कोई मानुस, न चौपाया और न ही परिंदा। सड़कें तो हैं मगर वीरान हैं; फैक्ट्रियों में मशीनों के हमेशा घूमते चक्के पूरी तरह जाम हैं। हाट-बाज़ार अब यहाँ किसी रोज नहीं सजते और न ही नुमायशें या मेले ही भरते। मंदिरों में भजन और मस्जिदों में अजान की गूंजें कब की गुम हो चुकी हैं। स्कूलों और कोलिजों के प्रांगन एक अरसे से सूने है। सब तरफ़ एक मुर्दनी सी छाई हुई है।
सुनते हैं, जब यहाँ पानी था तो एक शहर हुआ करता था।

Thursday, June 11, 2009

टंकी वंदना

जल दे
पानी दायिनी जल दे
घर घर के टब, जग, मग तक
सब भर दे।
खुश्क कंठ
पपडाए लब
तरसे घट घट को झट
तर कर दे।
तीक्ष्ण ताप हर
शीघ्र शाप हर
धरती के कण कण को
निर्झर कर दे
पानी दायिनी जल दे।
जल दे।