Sunday, September 27, 2009

नाच-नचैय्या, हम हूँ ना

गउओं को क्यों खेत चराना
घास चरैय्या, हम हूँ ना !
सूरत-सूरत, बाना -बाना
रूप धरैय्या, हम हूँ ना !
चप्पू छोड़ो, कुछ मत सोचो
नाव खिवैय्या, हम हूँ ना !
क्या बस्ती-बस्ती स्वांग रचाना
रास रसैय्या हम हूँ ना !
लगा यहाँ है आना जाना
युग विचरैय्या, हम हूँ ना !
बनना, मिटना, रोना, गाना
नाच नचैय्या, हम हूँ ना!

Saturday, September 19, 2009

नया टर्मिनल १(म)

जब से मवेशियों के दिन फिरे और वे हवाई सफर करने लगे तभी से देश की दिग्गज एयरलाइंस ने उडान में मुफ्त नाश्ता सर्व करना बंद कर दिया। इसके कई कारण थे, कुछ छोटे, कुछ बड़े। एक तो इन नव-यात्रियों को छुरी-कांटा सभ्यता छू तक नहीं गई थी। दूसरा, इनकी मन पसंद डिश पैक करने वाली कोई बहुराष्ट्रीय कम्पनी अभी तक हिंदुस्तान में नहीं आ पाई थी। और तीसरा जो है वह ये कि जानवरों को क्या खेत चराना? अब दिव्य पुरुषों की तरह इस क्लास को ऊंचे किस्म के दुखों का सुभीता तो था नहीं, जो भी दुःख थे सारे के सारे दैहिक ही थे। सो पेट के भरण, स्वाद-तंतुओं के पोषण और शारीरिक कष्टों के निवारण के लिए एक प्रतिनिधि मंडल को नागरिक विमानन मंत्री से मुलाकात के लिए दिल्ली भेजा गया। बैठक में प्रतिनिधियों ने सरकार के सामने हर घरेलू विमान तल पर एक कैटल-फ्रैंडली टर्मिनल बनाये जाने की पुरजोर मांग की- एक ऐसा टर्मिनल जिसमे चाहरदीवारी के स्थान पर चरने-योग्य बागड़ उगी हो तथा जहाँ सोफ्टी , चाकलेट और केक के बदले ताज़े चारे के हरे-हरे गुच्छे या फ़िर चोकर-खली मिक्स्ड भूसे की लुगदी के कोन मिलते हों। टर्मिनल में फ्रेश होने के लिए एक पोखर अथवा जोहडी तथा फुर्सत के लम्हों में तसल्ली से जुगाली करने के लिए मखमली दूब युक्त लॉबी होना बेहद जरूरी है। एक (म) के नाम से नए टर्मिनल की मंजूरी को लगभग तय माना जा रहा है क्योंकि चौतरफा अलगाव की मार झेल रही सरकार 'कैटलिस्तान' के लिए एक नया मोर्चा खोलने का जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं है।

आत्म-बोध

स्वयंवर के लिए उधार लिया विष्णु-रूप धर कर नारद मुनि के मन में एक श्रेष्ठि-भाव घर कर गया जिसे उस युग में अहंकार कहा जाता था। इधर मैंने भी सरकारी खर्चे पर दो-चार हवाई यात्रायें क्या कर डाली कि मेरे हृदय में भी यही ग्रंथि पनपी और बाकायदा जोर भी मारने लगी। स्वयं को प्रभु-लोक का वासी मान मैं अपने ही बन्धु-बांधवों को ओछा समझने लगा। मैं खल कामी ताउम्र इसी माया में पड़ा रहता यदि संयोग से थरूर गुरु ने मुझे दिव्य दर्शन न दिए होते। यह उन्ही की असीम अनुकम्पा थी जिसकी बदौलत मैं समझ सका कि विमान के अन्दर मेरी अगल-बगल की सीटों पर जो जीव विराजमान रहा करते थे वे और कोई नहीं बल्कि जुगाली-सम्राट चौपाये ही थे। बस उसी क्षण मेरी आँखे खुल गई और मुझे अपने सच्चे यानि मवेशी स्वरुप का बोध हो उठा। मेरा झूठा अहम् भाव एक ही झटके में कहीं तिरोहित हो गया।

इतिहास की धोखाधडी ....उर्फ़ वो मेरा गाँधी बनते बनते रह जाना

चलो मान लिया कि मेरी जबान से अंग्रेजी बोल नहीं झरते ,बस मैं रम्भा भर लेता हूँ, और यह भी कि मैं पिज्जा- बर्गर नहीं, घास-फूस पर बसर करता हूँ। इस से क्या फर्क पड़ता है अगर मैं टॉयलेट नहीं गोबर करता हूँ, पांच -सितारा होटल में नहीं, एक देसी बाड़े में रहता हूँ और धरती पर चलने में दो की जगह चारों पैरों का सहारा लेता हूँ। लब्बो-लुआब यह कि मैं केटल क्लास का सही मगर वायुयान का टिकेट तो मेरे पास अपर क्लास का था। लेकिन ऊँचे लोगों को मेरा ऊँचे दर्जे में बैठ कर सफर करना गवारा नहीं हुआ। फिर वही हुआ जो १८९३ में दक्षिण अफ्रीका के एक रेलवे प्लेटफोर्म पर हुआ था। यानि मेरी जन्म-पत्री बांचते हुए उन्होंने सामान समेत मुझे उठा कर रनवे पर पटक दिया। मैं अपनी जाति के अपमान का कड़वा घूंट पी कर रह गया। वाकये के दिन से ही पानी पीते समय मैं बड़ी हसरत से पोखर में अपना अक्स गौर से देखता आ रहा हूँ, लेकिन हाय रे, फूटे करम ! मैं हर बार गाँधी बनते बनते रह गया। अब तो मुझे यकीन हो चला है कि इतिहास भी हमारी कौम के साथ मजाक करता है, जो एक बार दोहराना शुरू तो कर देता है पर पूरी तरह दोहराने से रह जाता है।

Thursday, September 17, 2009

ख़बर की मौत

शहर के लोग मर रहे थे
हर शक्ल, हर मिजाज़
उम्र के हर पड़ाव पर
लोग बराबर मर रहे थे।
डर लगने लगा था
कि न जाने किधर से निकल मौत
कब हम में से किसी को ही न दबोच ले।
फिर कुछ रोज़ बाद लगा कि
मौत शहर छोड़ चुकी है
हर सिम्त निरापद है, हर ओर मौज है।
मगर यह ग़लत था
लोग अभी भी मर रहे थे
बदस्तूर मर रहे थे
और भी ज्यादा तादाद में मर रहे थे
पूरी ईमानदारी के साथ मर रहे थे।
यह जरूर है कि अब
खबरचियों कि भूख मर गई थी।

Wednesday, September 16, 2009

डेंगू देव प्रसन्न हों!

सहमे हुए परिजन
कतार में आगे बढ़ रहें हैं
तीन-तीन, चार-चार की टुकडियों में।
रिसता हुआ रक्त फाहे से थामे हुए
पहली टुकडी जैसे ही वापस लौटती है
दूसरी चुपचाप
उसकी जगह ले लेती है
दूसरी के बाद तीसरी
फ़िर चौथी....सातवीं ....... ।
न जाने ताज़ा लहू के
कितने चढावों के बाद
प्रसन्न होगा तू , रक्त-पिपासु
एडीज ऐजिप्ट।

Saturday, September 12, 2009

तू ही जीता, बेटा!

हमेशा की तरह
उन दोनों में
एक दिन फिर ठन गई।
तबाही का कौनसा साजो-सामान नहीं है
मेरे पास?
मिसाईल है, रॉकेट है, परमाणु बम है।
बता, तेरे पास क्या है ?
बोली, बेटा मेरे पास मच्छर है।
बेटे की बोलती बंद!
सिर शर्म के मारे झुक गया।
ना बेटा, जी छोटा नहीं करते
इनको पालने- पोसने का बंदोबस्त
तो तू ही करता है ,
पनाह तो तू ही देता है
इसलिए तू ही जीता बेटे, मै हारी।

Tuesday, September 1, 2009

जश्न के कोलाहल में

जश्न के जबरदस्त कोलाहल में
आज इतने गहरे उतरो
कि एक मनहूस स्तब्धता कल
ढूँढ़ते-ढूँढ़ते तुम तक आ पहुंचे
तो तुम्हे ज़रा भी मलाल न हो।
पूरी शिद्दत से आज
इस कदर पंख फडफडाओ
कि कल किसी दिशा से अचानक
कोई क्रूर शिकारी
तुम्हारे सुनहरे-नर्म पर
चिंदी-चिंदी कर हवा में बिखरा दे
तो तुम बेहाल न हो।
कारूं का खजाना हैं
धूप के ये उड़ते हुए टुकड़े भी
देखना! कहीं हाथों से न फिसलें
ताकि कल अगर मौसम पलटे
तो जीना मुहाल न हो।

सामूहिक कृत्य

वह अस्पताल के बैड पर
लेटी थी निशब्द और निश्चेष्ट
मरीज़ देखने एक अन्दर गया
अन्दर वाले उसी क्षण बाहर आ गए।
उसके बाद अगलों की बारी थी
लोग बारी-बारी अन्दर बाहर होते रहे।
शून्य में ताकती वैसे ही पड़ी रही वह, निर्विकार
यह सिलसिला बिना टूटे यूँ ही चलता रहा
जब तक कि पूरे
'विजिटिंग आवर्स' समाप्त नहीं हो गए।