Thursday, March 17, 2016

तीसरी परीक्षा... यानि मारे गए गुलफ़ाम

आज तक अपने हाथों जाने कितने फेल हुए हैं. किन्तु जब हम खुद टी.एम.टी. यानि ट्रेड मिल टेस्ट देने निकले तो दिल बल्लियों सा उछलने लगा. राम-राम जपते टेस्ट दिया. नतीजा निकला तो फेल करार दे दिए गए. डाक्टरों ने दिल तक आने जाने वाली नालियों के चोक होने का खटका जताया. भला हजरतों से कोई पूछे तीस साल के शादी शुदा और बाल बच्चेदार गृहस्थ के दिल का रास्ता क्या अब भी ब्रह्मपुत्र के फाट जैसा विशाल और निर्बाध होगा. खैर, किस्सा मुख़्तसर यह कि एक और टेस्ट- एंजियोग्राफी का फरमान सुना दिया गया.

तयशुदा समय पर कैथलेब ले जाये गए तो बीचो-बीच कपडे इस्त्री करने जैसी पतली लम्बी टेबल दिखी. उस पर फ़ौरन हमें यूँ लिटा दिया गया जैसे टाँगे फैलाये डायसेक्शन के लिए किसी मेंढक को लिटा दिया जाये. तभी डाक्टरों, नर्सों और वार्ड ब्वायों की भरी सभा में बिन कृष्ण की द्रौपदी की तरह हमारा चीर हर लिया गया. आपरेशन थियेटर की छत से इज्जत ढांपने की कोशिशें जब नाकाम रहीं तो हमने लाचारी में अपनी आँखें मूँद ली. तभी जाँघों पर चिपचिपा सा कुछ महसूस हुआ. ऑंखें खोली तो देखा मुए गलत जगह लेप लगा रहे हैं. अगले पल तो अपनी रूह ही कांप उठी, जब उन्होंने हमें दिवंगत मानते हुए हमारे बदन पर एक के बाद एक चादरें चढ़ानी शुरू कर दी. हम बारहा उन्हें टोकना चाहते थे, मगर चुप रहे कि नासपीटे कहीं खुन्नस में ऐसी वैसी जगह छुरी ना फेर दें और हम ज़माने को मुंह दिखाने के काबिल ही न रहें.

छुरी के अपना काम करने के साथ ही एक जमूरे ने उस शख्स के हाथ में, जो गाढ़ी यूनिफार्म में डाक्टर कम और मैकेनिक ज्यादा लग रहा था, क्लच वायर जैसा कुछ थमा दिया. फिर क्या था उस मरदूद ने वायर का एक सिरा हमारी जांघ को स्कूटर का हैंडल समझते हुए अंदर घुसाना शुरू कर दिया. अब आलम यह था कि इधर हम अपने दिल की खैर मना रहे थे तो उधर उन मसखरे डाक्टरों की पूरी मंडली दीवार बराबर स्क्रीन पर नज़रे गडाए वीडियो गेम का मजा लूटे जा रही थी. आखिर जब चौदह हजार के पैकेज का एक-एक रूपया फूंक चुके तो अपनी चादरे समेट हमें कटी पिटी हालत में मरहम पट्टी के लिए नर्सों के हवाले कर चलते बने. हालत थोड़ी संभली तो डाक्टर ने इत्तिला दी कि दिल की नालियां पूरी तरह चाक चौबंद हैं, कहीं कोई कचरा नहीं फंसा है. लिहाज़ा किसी तरह की सफाई खुदाई की कोई जरूरत नहीं है. अस्पताल में रात गुजार कर ख़ुशी-ख़ुशी घर आ गए.

अब आखिरी और सबसे कठिन परीक्षा शुरू हुई. अव्वल तो कई दोस्तों ने आपत्ति ली कि, "भला ऐसी भी क्या जल्दी पड़ी थी घर आने की....हमने रिसेप्शन पर फोन किया था, पता चला डिस्चार्ज हो गए!" उनकी इस उत्कट प्रेम भावना को देखते हुए हमने ठीक ठाक होने पर भी कुछ दिन और छुट्टी बढाने का फैसला ले लिया ताकि घर पर मरीज़ को गुलदस्ता पकड़ा कर अस्पताल न पहुँच पाने का मलाल दोस्तों के दिलों से जाता रहे. चूँकि छुट्टी ले ही ली थी तो विचार था कि सवेरे आराम से उठेंगे. मगर हमारी पत्नी जो थी वो परले सिरे की होशियार निकली. अलार्म लगा कर सोई थी, सो अलसुबह उठा दिया. हमने ऐतराज भी किया तो बोली, "इससे पहले कि आने जाने वाले शुरू हों, जल्दी से नहा धो कर नाश्ता कर लो...वरना खाने पीने से भी जाते रहोगे!" चुनांचे नाश्ते से निपटते ही तुरंत हमें दर्शनार्थियों हेतु ड्राइंग रूम में स्थापित कर दिया गया.

फिर तो दिन भर मिलने वालों का दो-दो, चार-चार तो कभी आठ दस की टुकड़ियों में यूँ आना जाना लगा रहा मानों सदियों के बाद लगने वाले सूर्य ग्रहण की तरह हमें देखने का सुयोग आगे न जाने कब हाथ लगे ! हालचाल पूछने वालों के सवाल "क्या हुआ था?" के जवाब में शुरू-शुरू में हमने उस तफसील से सिलसिलेवार बताया जिससे डाक्टर को भी क्या बताया होगा! हमारा उत्साह यूँ ही देखते बनता था जैसे किशोर उम्र में गाँव गवांड से दिल्ली आये रिश्तेदारों को हम लाल किला, क़ुतुब मीनार और बिरला मंदिर दिखाने ले जाया करते थे. किन्तु दिन चढते-चढ़ते दम फूलने लगा. सोचा कि टेप में रिकार्ड लगा कर बजा देते तो जान पर तो न बन आती. इतना सब करने पर भी कुछ मित्र शहर से बाहर होने के कारण देखने नहीं आ सके. वे सब अब सिरे से खार खाए बैठे हैं. उनका कहना है कि हमने जानबूझ कर उनके पीछे भर्ती हो कर उनका हक़ मारा है. हमारी इस नीच हरकत के लिए वे हमें ताजिंदगी कभी माफ़ नहीं करेंगे!


मर्ज़ से तो बच गए...मगर फ़र्ज़ से- मारे गए गुलफाम!!