सवाल एक :
हे परीक्षार्थी, आखिर आप परीक्षक को हर दर्जे का बुद्धू क्यों
समझते हैं? अव्वल तो सफ़े के दोनो तरफ गज-गज भर के हाशिये
छोड़ते हो । फिर मालदा आम की कलमें सी रोपते हुए आर पार निकल जाते हो। और दम इस बात
का भरते हो मानो चीन के गाँवों में आबादी बो रहे हो । ड्यूवी का कहा गांधीजी के
मुंह में डाल, अरबिन्द की उक्ति सुकरात के मत्थे मंढ सोचते
हो किसी को पता भी नहीं चलेगा! अपनी घटिया तुकबंदी को इंवर्टेड कॉमा में रखकर मीर का कलाम बनाकर चला दोगे और हाथ भी
नहीं आओगे। उस मीर का, जिसके सामने अकबर और जौक भी पानी भरते
हैं। यकीन नहीं, तो मुलाहिजा फरमायें:
न हुआ, पर
न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब
‘जौक’, यारों ने बहुत ज़ोर गज़ल में मारा
या फिर मियां अकबर का यह कुबूलनामा –
मैं हूं क्या चीज,
जो इस
तर्ज़ पे जाऊं अकबर
‘नासिख-औ-ज़ौक’ भी जब चल न
सके ‘मीर’ के साथ
भाई, परीक्षार्थी हो परीक्षार्थी रहो। चार्ल्स शोभराज क्यों
बनते हो? कलम के रास्ते कागज पर उतरे अपने दिमागी फितूर को
सवालों के जवाब बता कर परीक्षक को क्यों ठगते हो?
सवाल दो :
प्रिय परीक्षार्थी, आप परीक्षक को बिकाऊ मानें, हमें कोई ऐतराज़ नहीं। कारण - आज सभी तो बिकाऊ हैं। मगर एक पीएच.डी. धारी परीक्षक
की इज्ज़त क्या इतनी सस्ती है कि कॉपी से नत्थी किए पाँच सौ रूपल्ली के एक नोट में लुट
जाए! उस पर यकीन यह कि इस ज़लालत के बाद भी परीक्षक आपको पास कर देगा। प्रिय
परीक्षार्थी, आपकी ‘जनरल नॉलेज’ तो बेहद कमजोर है। थ्री-जी घोटाला, टेलीफ़ोन स्कैम
और मेडिकल दाखिला धांधली में बंटी रक़मों का आपको बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं है। सामान्य
ज्ञान की कमी को देखते हुए आपका पास होने का हक़ ही क्या बनता है? मेरे हिसाब से तो अगर आप खुद ब खुद पास हुए जा रहे हो, तो भी परीक्षक को आपको फेल कर देना चाहिए। क्योंकि आप अगर गलती से पास हो
गए तो जहां तहां यही ढिंढोरा पीटते फिरोगे कि “देखो कितना भ्रष्ट परीक्षक है, घूस लेकर पास करता हैं।“ यानि फेल अपने दुष्कर्मों से होगे, मगर बदनाम करोगे बेचारे परीक्षक को।
सवाल तीन :
परीक्षार्थी श्री , आप मुंह से भले ही कुछ न कहें आपका चाल चलन
सब कह देता है । क्या यह सच नहीं कि आप परीक्षक को एक कबाड़ी से ज़्यादा कुछ नहीं समझते? ऐसा कबाड़ी जो मूल्यांकन केंद्र आते समय दिमाग घर पर छोड़कर, हाथ में फीता या तोल-कांटा लेकर आता है । तभी परीक्षा हाल में तुम ऐसे कमाल करते हो। तुम्हें संजीवनी बूटी लाने को कहते हैं। बदले में तुम हिमालय पर्वत टिका
कर चलते बनते हो। अब मरो, फिरो ढूंढते संजीवनी! सब कहूँगा
मगर सच नहीं कहूँगा की तर्ज पर एक वही नहीं लिखते जो पूछा गया है, बाकी सब लिख मारते हो। उस पर मानते यह हो गोया सुभाषितानि रच रहे हो! तुम
तो फैज साहब के कोई पक्के शागिर्द नज़र आते हो, भाई। जो अपनी
परीक्षा के दिन याद करते हुए अपने अनुयायियों को बिना लाग लपेट कहते हैं:
उनसे जो
कहने गए थे 'फैज़'
जां सदका किए
अनकही ही रह गयी वह बात
सब सब बातों के बाद
जिसका भावार्थ है कि परीक्षार्थी को चाहिए कि वह कहने में हिचके नहीं,
अपनी बात लपक-लपक कर कहे। आखिर कहने की स्वतन्त्रता भी कोई चीज है! भले ही कह पाये
या ना कह पाये, पर कहने में कोई कोर कसर न रखे। इस चक्कर में
कई-कई कॉपियाँ जरूर भर दे। ठीक वैसे ही जैसे कोई देहाती स्त्री पुत्र की चाह में
कई अनचाही पुत्रियों को जन्म दे-दे कर घर भर देती है।
सवाल चार :
भाई परीक्षार्थी, इन कारनामों के बाद यदि परीक्षा का फल खराब निकल
आए तो इसका इल्ज़ाम परीक्षक के सर धरना कहाँ तक ठीक है? जबकि
परीक्षक न तो धृतराष्ट्र है जो पुत्र मोह में दुर्योधन को राजपाट दे दे, न ही द्रोण कि द्वेष वश एकलव्य का अंगूठा कटवा ले। न उसे किसी उधो से कुछ
लेना, न किसी माधो को कुछ देना। परीक्षा के फल तो किस्मत के
लेखे हैं। परीक्षक की भला क्या औकात जो विधि के काम में दखल दे! वह तो सभी
मूल्यांकन कार्य खुद को अकर्ता समझते हुए निपटाता है। यही वजह है कि मूल्यांकन हाल
के बीचों बीच एक गोला खींच उसके इर्द गिर्द चार पाँच गोले और बना देता है। बीच के
घेरे में तीन और बाहर के घेरे में क्रमशः चार, पाँच, छह सात और आठ लिख देता हैं। फिर अच्छी तरह मिलाई गयी कापियाँ दोनों
मुट्ठियों में भरकर छत की ओर उछाल देता है। अब कौन सी कॉपी किस घेरे में जा गिरेगी, खुद परीक्षक को भी पता नहीं होता। अंत में घेरे में लिखे नंबर बिना किसी छेड़
छाड़ के कॉपियों पर चढ़ा देता है। किसको तीन मिलें किसे आठ, ये
परीक्षार्थी का अपना नसीब। इस तरह परीक्षक अपने हाथ मे कुछ भी नहीं रखता। वह न आठ
का श्रेय लेता है, न तीन का इल्जाम।
कहा भी है –
सवाल तो बिना मेहनत के हल
नहीं होते
नसीब को भी मगर इम्तहान में
रखना
इम्तहान मे मुकद्दर रखने में कोताही तुम खुद बरतो। मगर खराब नंबरों का उलाहना परीक्षक को दो। ये कहाँ का इंसाफ है?
जवाब दो,
भिया परीक्षार्थी!!