Saturday, May 29, 2010

बेचारे...इंसान के बच्चे!

भेड अपने मेमने को नहीं मारती, कुत्ता अपने पिल्ले को नहीं कूटता, भैंस अपनी बछिया की धुनाई नहीं करती, मृग अपने छोने पर छड़ी नहीं बरसाता । यह सिर्फ आदमी की फितरत है जो अपने बच्चों की पिटाई करता है। । उस पर दलील यह देता है कि यह उसके प्रेम करने का ही तरीका है।
उल्लू अपनी संतान को उल्लू समझता है, गधा भी अपनी औलाद को गधा ही मानता है, सूअर यकीन करता है कि उसके भूरे भूरे गोल मटोल भी सूअर ही हैं- कोई भी अपने बच्चे को आदमी नहीं समझता। मगर आदमी, आदमी वह शै है जो अपने बच्चे को उल्लू, सूअर, गधा आदि कहता है, बस आदमी नहीं
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी
ये सब ताडन के अधिकारी
तुलसीदास जी मानस में कह गए हैं
ताज्जुब मगर इस बात का है
कि उनकी लम्बी फेहरिस्त से
बच्चे कैसे बाहर रह गए हैं।
कहीं ऐसा तो नहीं
तुलसी जैसे मर्मज्ञ ने उन्हें
इसलिए अलग जगह नहीं दी है
क्योंकि ढोल, गंवार, शुद्र
पशु ओर नारी, सभी में
ये थोड़े बहुत हर कहीं हैं।

Tuesday, May 25, 2010

मेरी पहली-पहली आरती

मंगलवार का दिन था। हम सपत्नीक मित्र के घर पारिवारिक दौरे पर गए थे। ठन्डे पानी के सेवन से आवभगत के तुरंत बाद ही वे असल मुद्दे पर गए। उन्होंने कॉलोनी के पार स्थित शिव मंदिर की आरती की भव्यता और उससे मिलने वाले सुकून का मनभावन दृश्य खींचा, जिससे हम प्रभावित हुए बिना ही रहे। मगर पत्नी के चेहरे पर जा रहे भावों को ताड़ते हुए उन्होंने हमें आरती में शरीक होने का आग्रह कर ही डाला। चाहते तो नहीं थे, किन्तु किसी की इबादत में विघ्न का पाप हमारे सर आये , सो उनके साथ हो लिए।
मदिर पहुंचे तो भक्त-गण हाथ जोड़े शिव वंदना में लीन थे। पत्नी और मित्र भी शामिल हो कर स्वर में स्वर मिलाने लगे। हम दूर खड़े झील का मनोरम दृश्य निहारने लगे। कोई दस मिनट गुजरे होंगे कि अचानक सब और सन्नाटा छा गया। मंदिर के एक कोने से एक पुजारीनुमा व्यक्ति टोकरी लिए प्रकट हुआ भक्तों की और बढ़ा। हम तो इसी फिराक में थे कि कब प्रसाद मिले, कब हम फारिग हों सो झट से सब के पीछे जा खड़े हुए। बारी आने पर हमारी अंजुरी में पडितजी ने जो छोड़ा वह प्रसादम नहीं बल्कि पुष्प थे। पुष्प पा कर भक्त-भक्तिन अब दुगुनी श्रद्धा भाव से गायन करने लगे। हम प्रसाद के चक्कर में उल्लू बन गए। कम से कम पंद्रह मिनट खड़े रहने की कवायद तो हमने जरूर झेली होगी। खैर, पुष्प समर्पण के बाद पुष्पांजलि सम्पन्न हुई। तब मैंने गौर किया कि भक्तगण अजीबो-गरीब हरकतें करने लगे हैं। कई अपना माथा फर्श पर ठोकने लगे तो कोई-कोई मंदिर की दीवार को अपने हाथों और सर से ठेलता सा दिखाई दिया। पुरुष महिलाओं का एक दस्ता अपनी ही रौ में मंदिर का चक्कर काटने लगा। छिटपुट भक्तों को तो शंकर भगवान अर्ध नौकासन जैसा कुछ कराते नजर आये। इस तूफानी सत्र की समाप्तिके बाद सब अपने-अपने स्थान पर लौट आये। एक सज्जन ने श्रद्धालुओं को कोई पर्चा बांटना शुरू किया तो हमें लगा कि लो, फिर आरती शुरू होगी! हमारी और बढाने पर हमने कहा-हमारे पास चश्मा नहीं है। पास बैठा मित्र मंद-मंद मुस्कुराया, धीरे से बोला- ले लो, ले लो, प्रसाद के लिए है। हम सोच रहे थे कि आरती की प्रति होगी, हर एक के वाचन के लिए- एक बार फिर से बन गए।
आखिरकार भोलेशंकर प्रसन्न हुए, प्रसाद वितरित हुआ। औरों की देखा-देखी हमने भी एक चिरोंजी दाना मुंह में डाला और बाकी की पुडिया बना कर जेब में रख ली। सोचा- जैसे गंडा या तावीज़ को खाया नहीं जाता, शरीर पर धारण किया जाता है वैसे ही प्रसाद को भी जेब में रखना ही शुभ होता होगा!... मंदिर से लौटते वक़्त हमने मन ही मन संकल्प किया कि आइन्दा मित्र के घर जायेंगे तो ध्यान रखेंगे कि वह दिन मंगलवार या बृहस्पतिवार हो।

Wednesday, May 19, 2010

सड़कों के सिकंदर

* कोई-कोई चालक इस अंदाज़ में गाड़ी चलाता है मानो स्वयं सिकंदर महान विश्व विजय के अभियान पर निकल पडा हो। अपने आगे चल रहे वाहनों को एक के बाद एक ओवरटेक कर पीछे छोड़ते वक़्त वह उसी अकड़, उन्माद और आनंद से भर उठता है जो एक चक्रवर्ती सम्राट छोटे-बड़े राज्यों को अपने राज्य में मिलाने और उनके शासकों को अपने अधीन करने पर महसूस करता है।
* कभी- कभी सड़क के बीचो-बीच पशु इस अदा से चलते हुए मिल जाते हैं गोया मिस इंडिया कंटेस्टेंट कैट वॉक पर निकले हों। पास आ कर होर्न बजने पर वे वैसे ही ठिठकते हैं जैसे सुपर मॉडल रैम्प के किनारे पर पलटने से पहले ठिठका करते करते हैं। हाँ! यह जरूर है कि ये ऐन वक़्त पर पलटने से इनकार कर देते हैं।
* कहीं- कहीं ज़रा अवस्था को प्राप्त हो कर सड़क अपना चोला ही छोड़ बैठती है। तब जिस प्रदेश में ट्रैफिक प्रवेश करता है उसे पीछे से देखें तो ऐसा लगे जैसे बाधा दौड़ धावक नियमित अन्तराल से हवा में उछल तो रहे हों मगर दौड़ न पा रहे हों अथवा कोई डोंगी समंदर कि लहरों पर बेबस सर पटक रही हो या फिर वाहन चालक जबरन ऊंट की सवारी का मज़ा लूट रहे हों।
* यदा-कदा भेड़ों का झुण्ड सड़क के एक ओर आपके सामने की तरफ से आ रहा होता है कि उसके लीडरान एकाएक सड़क पार करने का फैसला कर बैठते हैं। तब आमने सामने के वाहनों को उन्हें उतने ही सम्मानपूर्वक गुजर जाने देना पड़ता है जितने सम्मान से आम आदमी को मंत्रियों के लालबत्ती धारी गाड़ियों के काफिले को गुजर जाने देना होता है .
* कुछ खास सड़कें, जिन्हें लाड से बौंड सड़कें या बी आर टी एस सड़कें भी कहा जाता है सुगठित देहयष्टि वाली, धुली-पुंछी और लिपी-पुती होती हैं। इनका उपभोग करने पर आपको नाके पर महसूल (टोल) चुकाना पड़ता है। इसके उलट कुछ पहुँच मार्ग इस कदर ऊबड़-खाबड़ और जर्जर होते हैं कि आपका और आपके वाहन दोनों का भरपूर उपभोग कर लेते हैं।
* बीच-बीच में कबीरा के ज़माने की एकाध बेहद संकरी पुलिया मिल जाती है जिसमे दो (वाहनों) का समाना मुमकिन नहीं होता। लिहाज़ा पहले पार करने की जुगत में दोनों तरफ से आगे बढ़ आये चालकों की बीच पुलिया के मुठभेड़ हो जाती है। गुर्राहटों के समापन के बाद जिस पक्ष को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ता है वह खुद को पराजित जनरल सा लज्जित, पतित एवं कलंकित महसूस करता है।

Monday, May 17, 2010

पडौसी जनम जनम के

वे दोनों अगल-बगल के नहीं अपितु उर्ध्वाधर अर्थात ऊपर नीचे के पडौसी थे। सरहदरुपी छत जो कि दूसरे के लिए फर्श थी, उन्हें अलहदा करती थी। वे एकदम पाठ्य-पुस्तकीय यानि आदर्श किस्म के पडौसी थे जो जरूरत- बगैर जरूरत पडौसी धर्म निभाने पार उतारू रहते थे। मसलन झड़प की हुड़क चढ़ने पर अंग्रजों की तरह एक पडौसी का सात समंदर पार जाना दूसरे के लिए धिक्कार की बात थी। उनका फलसफा था कि हाथ भर पर कुआँ हो तो नहाने के लिए मानसरोवर क्यों जाया जाये?
सह अस्तित्व की भावना तो उनमे कट्टरता की हद तक कूट-कूट कर भरी थी, जिसका मतलब है कि वे एक दूसरे के बिना सुख चैन से नहीं रह सकते थे। अब यही देखिये यदि एक की नींद उचट रही हो, तो क्या मजाल है जो दूसरा झपकी भी ले ले। ऊपर वाले जब बच्चे को मेज-रुपी तबले की थापों पर बहला कर सुला चुकते तो पूर्ण चेतनता को प्राप्त नीचे वाले दीवारों में कील ठोकने लगते या दरवाजों की कुण्डियाँ दुरुस्त करने में जुट जाते। रात के चौथे पहर तक कुछ इसी तरह की जुगलबंदियां चलती रहती। पौ फटने के करीब नींद लगने की मजबूरी ही दोनों थोकों को खामोश करा पाती।
उनका आपसी भाई-चारा भी बेमिसाल था। अच्छे पडौसियों की तरह उनमे तरह-तरह की वस्तुओं का विनिमय सदैव चलता रहता था। खास बात यह थी कि वे संताक्लॉज की तरह एक दूसरे का छुप-छुप कर भला नहीं करते थे वरन दिन-दहाड़े, डंके की चोट पर ऐसा करते थे। एक अगर पोछे और साबुन के गंदे पानी से दूसरे को अर्घ्य देने से बाज नहीं आता तो दूसरा कचरे की होली जला कर अपने प्रिय पडौसी को फोगिंग मशीन की मुफ्त सेवाएं देने पर तुल जाता।
अब दिलजले मोहल्लेवालों की न कहिये जो इनकी प्रीत से बेतरहा फुंकते थे। ये जहाँ-तहां उड़ाते फिरते कि उपरी मंजिल वाले नीचे आँगन को पीकदान या कचरापेटी जैसा कुछ समझते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि ऐसा कुछ भी नहीं था। दरअसल वे तो गले की खंखार, नाक का नजला, कटे नाखून, फलों के बीज आदि हवा में उछालते भर थे जो गुरुत्वाकर्षण की गलती से जमीन पर जा टपकते थे। इसी तरह ऊपर वालों के हिस्से का पानी मोटर से खीच कर भूतल वाले यदि अपने बगीचे को सींच भी लेते तो कोई भी आसमान टूट कर नहीं गिरता, आखिर वे प्राकृतिक छटा और ठंडी घनी छाया को तो बाँध कर नहीं रखते, पडौसी को भी जी भर कर मज़ा लूटने देते थे।
दोनों प्रतिदिन भगवान से यही मनाते हैं कि अगले सात जन्मों (नहीं, छः या आठ जन्मों) में भी एक दूसरे का पडौसी ही बनाये - बस बारी बारी से मंजिल की अदला-बदला करता रहे। इति।

Wednesday, May 12, 2010

ठंडी राख़

वे गत तीन महीनों से निलंबित चल रहे थे। मिलने पर हमने सहानुभूति जतानी चाही, कहा-आपके साथ बड़ा अन्याय हुआ! उपदेश की मुद्रा में बोले- जो भी होता है भले के लिए ही होता है। उत्तम शिष्य की भांति हमने जिज्ञासा प्रकट की, 'भला निलंबन से आपका क्या भला हुआ होगा?' बोले- मुझमे धैर्य नहीं था, इस वाकये से मैंने धीरज धरना सीखा। हमने कहा- ठीक है मगर आपको धीरज नहीं धरना चाहिए, बल्कि लड़ना चाहिए। 'क्या होगा लड़ कर?', उन्होंने प्रति प्रश्न किया। 'आपके दुश्मन जिन्होंने आपको फंसाया है उन्हें सबक मिलेगा , और क्या!' वे पुनः सूफियाना अंदाज़ में बोले-सच कहूँ मुझे कोई दुश्मन ही नज़र नहीं आता। हर कोई दोस्त ही दीखता है। हम पर उत्तर की गुंजायश ही न बची।
एक रोज़ रास्ते में टकर गए। हाथ में झोला था, शायद सौदा-सुलफ लेने जा रहे थे। हमने उत्साह में भर कर कहा, 'बधाई, आपकी बेटी का प्लेसमेंट हो गया।' सुन कर नहीं लगा कि उनके मुख मंडल पर पौ जैसा कुछ फटा हो या उनके अन्दर भी कहीं कोई बांछे खिली हों अथवा उनके शरीर के आयतन में जरा भी इजाफा हुआ हो। बराबर मुरझाये से बोले- प्लेसमेंट से क्या होता है, अपॉइंटमेंट लेटर मिले तब न । 'समय आने पर वह भी मिल जायेगा', हमने तसल्ली दी। ' आजकल कम्पनियाँ प्लेसमेंट तो कर लेती हैं पर नियुक्ति पत्र नहीं देती', उन्होंने रोना रोया। खैर हमने हिम्मत नहीं हारी, फिर पूछा - और आपका बड़ा बेटा कौन सी कंपनी ज्वायन कर रहा है, उसे तो अपॉइंटमेंट लेटर मिल गया न? 'पता नहीं, ये तो वही जाने।' हमने हैरत से कहा, 'आपने पूछा तो होगा?' 'नहीं भाई हम नहीं पूछते।' 'अच्छा उसने तो बताया होगा?' 'ना, उसने भी नहीं बताया। उसकी जिंदगी, वो जहाँ चाहे जाए-हमें क्या?' मैं सिहर उठा। इससे पहले कि मैं खुद राख़ के ढेर मै बदल जाऊं, मैंने वहाँ से खिसकने में ही भलाई समझी। उसी क्षण मुझे यह भी इल्हाम हुआ कि लोग ठंडी राख़ को नदियों में क्यों प्रवाहित कर देते हैं।

Friday, May 7, 2010

दो लघु व्यंग्य

रेलवे क्रॉसिंग
फाटक के बंद होते ही सड़क के समूचे फाट पर दोनों तरफ तरह-तरह के वाहनों की कतारें लग गयी। ऐसा लगने लगा मानों पानीपत में युद्ध के लिए विरोधी सेनायें एक दुसरे के सामने आन डटी हों। अगरचे रेलगाड़ी अभी पूरी गुजरी भी नहीं थी कि एकाएक दोनों ओर से दुन्दुभियों और रणभेरियों की कर्कश चिंघाड़ों से धरती थर्रा उठी, आसमान कांप उठा। इससे पेश्तर कि फाटक उठ कर आसमान की ओर ताकता, आमने सामने की गाड़ियाँ बड़ी तबियत के साथ एक दुसरे से गुत्थमगुत्था हो गयी। इस जंगी भिडंत में दूर -दूर तक न कोई कायदा नज़र आता था न दस्तूर। लिहाज़ा कहीं पैदल टुकड़ियां घुड़सवार दस्तों में जा धंसी थी तो कहीं हाथियों के दल पैदल सैनिकों से चौतरफा घिर गए थे। फिर तो वो घमासान मचा कि क्या कहने! घंटों बाद ही मंज़र साफ हो सका।
पंछी नील गगन के
वे महाशय दफ्तर के बाबू थे कोई अम्पायर नहीं, जो पहली से आखिरी गेंद फेंके जाने तक मैदान पर खड़े रहने को अभिशप्त हों और ही मजबूर कि ड्रिंक्स के समय जल ही लें या लंच तभी लें जब लंच इंटरवल होवे नौकर जरूर थे मगर सरकार के, सो खुद मुख्तार थे , मालिक थे