Wednesday, June 29, 2016

नाना जी पर इतना हक़ तो बनता है...!

[व्हाट्स एप पर मैसेज आया... "नाना जी, आपने पिछली बार जो पोयम लिखी थी वो हमारी मिस को बहुत पसंद आई थी. इस बार भी एक लिख दें प्लीज़...प्लीज़...! किसी भी डिश पर". हमने 'छोले' पर एक कविता लिख दी. अगले दिन फिर मैसेज आया, "घर में लड़ाई हो रही है. बड़ी वाली कह रही है कट्टों के लिए नानाजी से लिखवा दी...मेरे लिए भी लिखवाओ" सो घर की शांति के लिए हमें एक और लिखनी पड़ी...सो भी अंग्रेजी में. जैसी भी बन पड़ी सोचा ब्लॉग के मित्रों को भी पढ़वा दें! सो, हाजिर है...]

छोले
रोज फेंकती जाल
कहती मुई को माल
खूब रांधती दाल
पर मुझे पसंद हैं छोले
खा जाऊं बिन बोले.

     सन्डे हो या मंडे
     रोज खिलाती अंडे
     वरना पड़ते डंडे
     मुझको भायें छोले
     खा जाऊं बिन तोले.

कद्दू, लौकी, तोरी
ठिल-ठिल भरी कटोरी
जब करती सिरजोरी
मैं कहती हौले-हौले
माँ, मुझे चाहियें छोले.

     लो, चढ़ा पतीला चूल्हे पर
     क्या महक उठा है पूरा घर!
     छाई मस्ती है तन-मन पर
     जियरा मेरा बस डोले
     वाह! आज मिलेंगे छोले.  

THE DROUGHT

Nights go
days come by,
Autumns depart
springs arrive.
Leaves fall dead
seedlings grow
It's nature bro!

            Man in his vanity
            and abandon gay,
            comes in forest's way
            raises skyscrapers
            inviting his doomsday!

Days go hot-n-hot
all around it's drought
Mother earth writhes in pain,
frog, cuckoo,  squirrel
are all slain!

            Your fervent calls
            propitiating gods,
            Sending escorts
            for bringing down showers
            Everything goes in vain.
            The rain then
            Never comes again!!