Saturday, January 23, 2010

योग के अश्वमेध का घोडा

वह जड़ी-बूटियों का जमाना था, यह योग का जमाना है। हो तो यह भी सकता है कि यह जमाना जड़ी-बूटियों का भी हो, योग का भी -एक साथ। वैसे ही जैसे यह जमाना जेट का भी है, बुग्गी-झोटा का भी; विज्ञान का भी है, गंडा -ताबीज का भी; कटर बम बरसाते अमरीका का भी है, शांति दूत ओबामा का भी; जन के तंत्र का भी और महामहिमों का भी। जमाने की छोड़, अपनी कहूँ तो मैं योग का भयंकर कायल हूँ। इस शास्त्र की महिमा मैंने योग अनुरागियों से चतुर्दिक घिर कर परास्त भाव से नहीं, बल्कि स्वयं पर प्रयोग करने के उपरान्त ही कुबूली है। संस्कृति और धर्म-ध्वजा की कसम उठा कर आज मैं यह सत्य प्रकट करता हूँ कि योग-दीक्षा लेने के बाद मेरा किसी भी तरह के परहेज में कोई यकीन नहीं रह गया है। अब मैं बेखटके कुछ भी, कितना भी खा सकता हूँ, हाँ! खाने के तुरंत बाद वज्रासन की मुद्रा में बैठ जाता हूँ। ......जितना भी खाओ योग से पचाओ। मेरी सहधर्मिणी भी थाली में छप्पन भोग सजाती है, बस सत्तावनवीं योग की पाचक टिक्की अवश्य रख देती है। योग खाली भोग के लिए नहीं है, यह एक जबरदस्त दिमागी खुराक भी है। निदा फ़ाज़ली ने कहीं लिखा है, ' सिर्फ़ मेहनत से सवाल हल नहीं होते, थोड़ा नसीब भी इम्तेहान में रखना'। निश्चित ही निदा साहब योग विद्या से वाकिफ़ नहीं थे। ....रहे होते तो कहते- थोडा योग भी इम्तेहान में रखना।
योग के प्रताप से रोग के उपचार का तो मेरा जाति अनुभव है। जब भी मेरी नाक बहती है में बेतहाशा अनुलोम-विलोम शुरू कर देता हूँ, अस्थमा का विकट दौरा पड़ने पर में भ्रस्तिका के हजार-हजार दंड पेल देता हूँ, माइग्रेन का दर्द उभरने पर मैं उसे कपालभाति से झटक बाहर फेंक देता हूँ। मैं ही क्यों, मेरे कुछ करीबियों का तो यहाँ तक कहना है कि ध्यान लगाने से उनके पैर की बढ़ी हड्डी वापस अपनी जगह फिट बैठ गयी, कैंसर-ग्रस्त कोशिकाएं विभाजित होते-होते पहाड़ा ही भूल गयी, उनकी सफाचट खोपड़ी पर काले बालों की फसल लहलहा उठी तथा सामने के दो-तीन दांत गिरते ही अपनी जगह फिर से उठ खड़े हुए।
सो, योग की महानता पर मुझे तो रत्ती भर भी संदेह नहीं है, किन्तु कोई नागरिक इसकी तरफ ऊँगली उठाये यह मुझे हरगिज गवारा नहीं। लिहाज़ा लोकहित में मैं कुछ शंकाएँ बिना पैसे खाए उठा रहा हूँ ताकि योग के अश्वमेध का घोडा पकड़ने की जुर्रत कोई न कर सके।
  1. शर्तिया लड़का पैदा कराने का नीम -हकीमों का दावा सदा से स्त्रियों को लुभाता रहा है। ऐसी स्त्रियाँ क्या योग की शरण में आ या जा सकती हैं? उनके लिए कौन सी योग-क्रियाएं उपयुक्त रहेंगी? एक बात और... क्या गर्भवती हो जाने के बाद भी आसन साधने से कुछ फ़ायदा होगा?
  2. क्या योगासनों से आत्म-उन्नति के साथ-साथ पर-प्रभाव भी पैदा किये जा सकते हैं? हाँ, तो कर्ज में डूबे किसानों के लिए कौन सी ध्यान विधि ज्यादा हितकारी रहेगी जिससे वसूली को भेजे गए गुण्डे डंडे की टेक पर राम धुन गाने लगें?
  3. कई पद्धतियों में जवानी के दिनों में की गयी भूलों की वजह से आई उत्साह में कमी को दूर करने के ढेरों उपाय सुलभ हैं। क्या योग में भी वही चमत्कारिक शक्ति है?
  4. भट्टों पर ईंट ढोते मजदूर, पौ फटने के पहले से ही खेत जोतने में जुते हाली और तड़के से धुर रात तक काम में खटती बाई को पद्मासन में बैठ कर कौन ध्यान लगाने देगा?...तो क्या यह माने कि यह तबका आत्मिक उद्धार का अधिकारी नहीं है?
इन शंकाओं का निवारण होते ही चक्रवर्ती योग की कीर्ति दसों दिशाओं में फैल जायेगी। इति।

Monday, January 11, 2010

लोकतंत्र की जच्चगी

खबर है कि लोकतंत्र नाम की मादा फिर पेट से है। अभी तो पिछले प्रसव का सूतक भी ख़त्म नहीं हुआ था, शिशु कि जन्म-नाल भी ढंग से नहीं सूख पायी थी कि यह फिर से पांव भारी करा बैठी। एक तरह से देखा जाए तो पडौसी देशों के लोकतंत्र के बाँझपन से तो यह उर्वरता भली ही है। लेकिन मुसीबत यह है कि ज्यूँ ही गर्भ-धारण की खबर प्रशासन को लगती है उसका पूरा अमला बड़ी तबियत से जच्चगी में जुट जाता है। तब आलम यह होता है कि सड़कें खुदी पड़ी हैं तो खुदी रहें, जनता डेंगू से मरती है तो मरा करे, दफ्तरों मैं ताले पड़ते हैं तो पड़ा करें, पढाई अधूरी रहती है तो रहा करे - बस जच्चगी का हर्जा नहीं होना चाहिए। देश में लोकतंत्र का गर्भवती हो जाना कुछ ऐसा ही है जैसे किसी अस्पताल में कोई हाई-प्रोफाइल मरीज आ जाये। तरह तरह के गंभीर मरीजों को राम भरोसे छोड़ सभी डॉक्टर और नर्स इमरजेंसी के इस ऊँचे दरजे के मरीज के सदके चले जाएँ, उसी का पानी भरने लगें।
खैर, कई सप्ताह रहते ही लोकतंत्री अंडे देने-सेने हेतु घोंसलों ( यानि मतपेटियों) और जच्चा गृहों की साफ सफाई शुरू हो जाती है। प्रसूति में लगने वाला सामान बटोरा जाने लगता है। ड्यू डेट के करीब आते ही निकल पड़ता है बाबुओं, शिक्षकों और अन्य कर्मियों को दाई गिरी के घनघोर प्रशिक्षण देने का सिलसिला। प्रशिक्षण में इनका ध्यान प्रसव की बारीकियों को पकड़ने पर कम, सरकार को कोसने पर ज्यादा रहता है ....कि कमबख्त ने हमें हरी भजन की नौकरी पर रख कर कपास ओतने कि ड्यूटी पर लगा दिया । इस रोजमर्रा के बेहद हुनर बंद काम के लिए न जाने सरकार स्थायी डिलीवरीबाजों की नियुक्ति क्यों नहीं कर लेती।
बहरहाल इधर प्रसुतिकर्मी तैयार हो रहे होते हैं, उधर आचार संहिता का लट्ठ घुमा कर स्कूल/कॉलेज बसें तथा निजी वाहनों को मय ड्राइवरों के उठवा लिए जाते है। इस तरह राष्ट्र के पुनीत कार्य में निजी क्षेत्र का भी जबरन योगदान ले लिया जाता है। घटना वाले दिन नाजुक प्रसूति केन्द्रों पर सूक्ष्म पर्यवेक्षक तैनात कर दिए जाते हैं। इसका काम यह देखना होता है किसी भी सूरत में गर्भ की हानि न हो पाए और डिलीवरी बाकायदा तथा निर्विघ्न संपन्न हो। घड़ियों में पांच बजते ही राष्ट्रीय चैनलों से मंगलगीतों का प्रसारण शुरू हो जाता है। कुछ अरसे तक जच्चा तथा बच्चा को जमाने कि बुरी निगाहों से बचाकर रखा जाता है। तथापि इस दौरान इस बात का पूरा ख़याल रखा जाता है कि देश प्रदेश में यह महान कार्य छोड़कर कोई अन्य दीगर काम न हो।


Friday, January 1, 2010

अचार संहिता से मुक्ति

धर्मपत्नी की अध्यक्षता में हमारे उम्र के पचासवें वर्ष के लगने कि अधिसूचना जारी हो गई। तत्काल प्रभाव से अचार संहिता लागू कर दी गयी। अचानक ही हम बाजारू कचौरी- भजिए और दही बड़ों के अयोग्य घोषित कर दिए गए। 'स्वाद-फ्रेंडली' और 'स्वास्थ्य-फ्रेंडली' में भेद किया जाने लगा। निवाले-निवाले पर बीपी और हार्ट की दुहाई दी जाने लगी। देखते देखते अभोज्य बना दिए गए पदार्थों की सूची हनुमान की पूँछ की तरह लम्बी होती गयी। वहीँ दूसरी ओर भोज्य व्यंजन कृष्ण पक्ष के चाँद की मानिंद घटते चले गए। हलवा-पूरी को होली दिवाली तक सीमित कर दिया गया - वह भी बाकायदा नाप-तौल कर। सेंव नमकीन का साप्ताहिक राशन बांध दिया गया और चटनी पापड़ को थाली बदर कर दिया गया। आपकी अपनी औलाद जिन्हें लड़कपन में बड़े चाव से सैकड़ों दफा आपने चिप्स, तले समोसे और मैगी खिलाई होगी, वही अब किसी प्रेक्षक की भांति आपके आचरण के पहरे पर बैठा दिए गए। अगर कभी आप दबे पांव किन्तु सधे हाथ अचार के मर्तबान की तरफ बढते कि वे चिल्ला उठते - 'मम्मी , देखो भ्रष्ट आचरण !' तत्काल कठोर फरमान जारी हो जाता - आज से खर्च किये गए खाद्य पदार्थों का सही सही हिसाब रखा जाये और दिन की समाप्ति पर बिला नागा प्रस्तुत किया जाये । एक अरसे तक हम इसी सदाचार में लिप्त रहे, लेकिन आखिर कब तक ? एक दिन हमारे सब्र का भाखड़ा-नांगल टूट गया । हमने कहा, 'नहीं बनना हमें तंदुरुस्त , नहीं चुना जाना शतायुओं कि जमात में ! हमारी उम्मीदवारी का जो परचा घर के मेम्बरानों ने मिलकर धोखे से भर दिया था , हम उसे वापस मांगते हैं। हमें अचार संहिता से मुक्ति दिलाओ, हे भागवान! फ़ौरन !!