कई दिनों से गुरूजी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही
थी. था क्या कि गुरूजी के पुत्र के विवाह को सिर्फ बीस दिन बचे थे कि नोटबंदी का
ऐलान हो गया. गुरुपत्नी द्वारा मिलाई के लिए बनाये गए पांच-पांच सौ के नोटो के
लिफाफे कागज़ की रद्दी हो कर रह गए. गुरु जी अकेली जान...कहाँ-कहाँ किला लड़ाते!
पुराने नोट बदलवाने की कतार में खड़े होते कि कैश का राशन लेने की लाइन में लगते.
उस पर हालात ऐसे कि एटीएम् यूँ खुलते जैसे
कई रोज के कर्फ्यू के बाद जरूरी सामान की खरीद फ़रोख्त के लिए सिर्फ महिलाओं के लिए
बाजार खुलते हैं. गली मुहल्लों के एटीएम् पर लोग इस ढब टूट पड़ते जैसे गृहिणियां
सब्जी के ठेले पर टूट पड़ती हैं. मगर वही एटीएम् जब बंद होते तो ऐसे जैसे सीजन ख़त्म
होने पर बर्फानी बाबा के कपाट बंद कर दिए जाते हों. शटर डाउन है तो तो बस डाउन है-
चाहे कितनी ही देर रात जाओ या कितने ही मुंह अँधेरे! उधर रोज-रोज बैंकों के आगे भी
तिरुपति बालाजी के भक्तों जैसी
लम्बी-लम्बी कतारें देख कर गुरूजी की आँखों के आगे अँधेरा छा जाता. कुछ सूझ नहीं
रहा था कि क्या करें! इसी सांसत में दो चार रोज और गुजर गए.
आखिर गुरूजी ने फैसला कर लिया. मन गवाही तो नहीं
दे रहा रहा था किन्तु आपात धर्म का ख्याल कर उन्होंने अगले रोज़ अपने सभी शोधार्थियों
को अपने कक्ष में तलब कर लिया. सब इकठ्ठा हुए तो गुरूजी गभीर आवाज़ में बोले- आप तो
जानते ही हैं कि बेटे की शादी को अब फ़क़त दो सप्ताह बचे हैं. तरह-तरह के कामों में
खर्च करने के लिए कैश की जरूरत होगी. अपने शिक्षकीय जीवन में मैंने कक्षा के बाहर
आपकी जरा भी मदद की हो, आपकी जरूरत के समय घर बुला कर आप लोगों की परियोजना आदि बनवाने
में सहायता की हो तो आज उसका बदला चुकाने का वक़्त आ गया है. सुनते ही सब जोश में भर
कर कहने लगे- आप आदेश करें गुरुदेव, हम कुछ भी करने के लिए तैयार हैं! गुरूजी ने
चेताया- नहीं, सोच लो. काम उतना आसान नहीं जितना आप लोग समझ रहे हैं. देश नोट की
कतारों में खड़ा है, उधर एटीएम्/ बैंकों में नगदी का टोटा है. लोग ब्रह्म-मुहूर्त
में एटीएम् पर पहुंचते है, घंटों भूखे प्यासे खड़े रहते हैं लेकिन अपनी बारी आने से
पहले नोट ख़त्म हो जाते हैं. एक उत्साही छात्र ने लगभग हुंकारते हुए जवाब दिया- सर,
मुझे मंजूर है! मैंने अपनी बेटी के लिए आधी रात को लाइन में लग कर उसके दाखिले का
फॉर्म हासिल किया था. पर मुझे मंजूर नहीं- गुरूजी ने अपना जवाब दो टूक स्पष्ट करते
हुए कहा- मैं अपने लिए एक बाल बच्चेदार आदमी की जान जोखिम में कदापि नहीं डाल
सकता. सुनते ही छात्र का मुंह लटक गया. इस पर गुरूजी पिघल गए और उसे सांत्वना देते
हुए बोले- ठीक है, तुम रिज़र्व में रहोगे. और हाँ, दूसरों को जब-जब पानी, नाश्ता
अथवा खाने की जरूरत लगेगी तो तुम उन तक रसद पहुँचाने का काम भी करोगे ताकि उन्हें
नोट लिए बगैर क़तार से न हटना पड़े. फिर बाकी बचे शोधार्थियों के नाम चौबीस-चौबीस
हजार के चेक काट कर दे दिये और कहा कि बैंक से भुगतान लेकर मुझे दे दें.
अगले दिन से शुरू हुआ 'ऑपरेशन पिंक' गुरूजी का
कमरा बन गया कंट्रोल रूम. शाम को दिन भर का कलेक्शन गिना जाता और अगले दिन की
स्ट्रेटेजी बनायी जाती. पहले दिन का कलेक्शन रहा सिर्फ बारह हजार...एक विद्यार्थी
को बैंक वालों ने चौबीस हजार के चेक के बदले सात हजार थमाए तो दूसरे को पांच हजार ही
पकड़ा कर हाथ जोड़ लिए. कई विद्यार्थियों को बैकों के दो-दो तीन-तीन चक्कर लगाने पड़े
तब जा कर सप्ताह भर में कुल जमा एक लाख बासठ हजार का रोकडा इकठ्ठा हो पाया. सबसे बड़ी
रकम जो कोई छात्र निकाल लाने में कामयाब रहा वह थी छत्तीस हजार. यह करिश्मा अंजाम
देने वाला गुरु भक्त आरुणि स्वयं शादीशुदा और बाल बच्चेदार विद्यार्थी था. पूछताछ
करने पर पता लगा कि पति पत्नी दोनों नोटों की लाइन में लगे थे! और उस दिन बच्चों
की स्कूल से छुट्टी करा कर पहले नाना नानी के घर छोड़ आये थे.
खैर, कैश का इंतजाम तो हो गया किन्तु गुरूजी के
चेहरे पर रौनक का इंतजाम अभी भी नहीं हो पाया. रात में सोते-सोते गुरूजी को बुरे
सपने आते. नींद से अचानक उठ बैठते, पसीना-पसीना हो जाते. ना, ना, वह बात नहीं जो
आप सोच रहे हैं...उन्हें नोटों के चोरी जाने का खटका नहीं था. दरअसल वे सपने में
देखते कि मेरिज गार्डन एकदम खाली है. उन्हें डर था कि नोटों के सूखे के चलते घंटों
कतार में लग कर हाथ में आये दो हजार रुपयों का एक बड़ा हिस्सा खर्च करने भला शादी
में कोई क्यों आएगा! गुरूजी के छात्रों को पता लगा तो उन्होंने इसका इलाज भी खोज
लिया. एक छात्रा बाजार से स्वाइप मशीन खरीद लायी. वहीँ एक अन्य छात्रा ने बैनर बना
दिया, जिस पर लिखा था- कैश ना होने पर कृपया निराश न हों. यहाँ सब प्रकार के डेबिट
कार्ड के माध्यम से कैशलेस आशीर्वाद स्वीकार किये जाते हैं.