Saturday, April 11, 2015

खोपड़ी रस

पहली कतार में बैठे लोगों के धड़ पूरी तरह सोफों में धंसे थे. जो हिस्सा नज़रों में आने लायक बचा था, वह उनकी खोपड़ियाँ ही थी. खोपड़ियाँ प्रौढ़ थीं, चंचला होती तो इधर उधर घूमती. इधर उधर घूमती तो आसानी से शिनाख्त में आ जाती. सभागार का मंच निपट ख़ाली था, बाँध कर नहीं रख सकता था. सो, खोपड़ी रस के आस्वादन के सिवाय कोई चारा न था.

किनारे वाली खोपड़ी का मुआयना करने पर लगता था कि वह जरूर किसी बड़े नेता की रही होगी. ऐसा मालूम होता था गोया हाल ही में विरोधियों के टोपी-रुपी चीरहरण के शिकार बनाये गए हों. कोस-कोस दूर तक उघडे इलाके पर दो बाल बड़े जतन से धरे हुए दिख रहे थे. ठीक वैसे ही जैसे कोई बेबस यौवांगना वहशी दरिंदों के सामने दोनों हाथों से अपनी इज्ज़त ढांपने की नाकाम कोशिश कर रही हो.

उसके बगल वाली खोपड़ी जो थी वह किसी धुरंधर भूगोल शास्त्री की लगती थी. किनारे-किनारे चलो तो डेल्टा के मैन्ग्रोव के जंगल जैसे दीखते थे  किन्तु बीचो-बीच का नज़ारा यूँ, जैसे लहलहाते रेगिस्तान में इक्का दुक्का झाड़ियाँ उग आयीं हों. आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाये तो महसूस होता था मानों निर्जन स्थान पर कोई साधु अपना चिमटा गाड़ कर कहीं चला गया हो. अगली खोपड़ी किसी दर्शन शास्त्री की सी नज़र आ रही थी. इस कदर सुदर्शन, नरम गुदाज़ जैसे वसंती पात या किसी नवजात शिशु के कोमल गाल! डर था कि ज्यादा  देर देख लिया तो कहीं चूमने का मन ही ना करने लगे.

अब जो खोपड़ी नज़रों के सामने थी उस पर अल्लाह खूब मेहरबान था. बालों की छटा देखते ही बनती थी. मगर उन आला दर्जे के बालों का कालापन जरूरत से कुछ ज्यादा ही गहरा दीख रहा था. मानों कुदरत ने इनके लिए काली स्याही के ड्रम के ड्रम खोल दिए हों. कभी-कभी ऐसा भी शक़ होता था कि कहीं खास आज के जलसे की खातिर ही जम कर रंगाई पुताई ना कराई गयी हो!

कतार में लगी खोपड़ियों में एक खोपड़ी बड़ी हिमाकती भी थी. बाले-बाले अभी सर पर एक रुपये के सिक्के के बराबर भी जगह खाली नहीं हो पाई थी और महाशय निकल पड़े थे पहली कतार में बैठने! आसपास की सभी पकी खोपड़ियाँ  उसकी खिल्ली सी उड़ाती दिख रही थीं. मानों धिक्कारती हुई कह रही हों, "जरा औकात में रह, सींकिया पहलवान! अभी आठ दस साल और दंड पेल, तब जाकर कहीं हमारे बराबर में खड़े होने की सोचना."

कतार में दो एक खोपड़ियाँ ऐसी भी थी जो दृश्यमान नहीं थी, पोशीदा थी. उनके चोले या बाने को देख कर उनकी मौजूदगी का अहसास जरूर होता था. पर इन खोपड़ियों के नीचे जड़े धडों में जवां दिल धड़क रहा था कि बुजुर्ग, इसकी तस्दीक करने का कोई जरिया नहीं था. न इनके जुगराफिये का पता लग सकता था और न ही तारीख के इनके ऊपर छोड़े गए निशानों का. ये बरमूडा ट्रायएंगल की तरह रहस्यमयी थी. सो इनके बारे में मुकम्मल तौर पर कुछ भी कहना मुमकिन नहीं था. हम इनका तिलस्सिम तोड़ने का जुगाड़ कर ही रहे थे कि अचानक रंग में भंग पड़ने से खोपड़ी रस बे मज़ा हो गया.


हुआ यूँ कि उद्घोषिका की घोषणा के साथ ही अतिथि गण मंच पर पधार गए.