Friday, October 9, 2015

उसके इस तरह यूँ बे-रस्मी चले जाने पर

पहले मिल जाता
तो साले वो देता घुमा के
कि भूल जाता
सब को सोता छोड़
तमाम रिश्ते तोड़
सिद्धार्थ सा चले जाना.

      नालायक! कैसे भूल गया
      तू वो दिन
      घर से चला गया था
      बिन बताये जब कहीं
      क्या हाल हुआ था
      बदहवास बाप का उस रोज़?

गोद में खिलाया जिन्होंने
पकड़ उंगली चलना सिखाया
उन्ही को धता बता
हट्टा कट्टा बेशर्म
तू लपक कर चढ़ बैठा
बुजुर्गों के लिए
आरक्षित सीट पर!
बता, यही तमीज सिखाई थी
क्या हमने तुझे?

      जरूर उस रात
      गहरे अँधेरे में
      रतौंधी वाले दूत
      उतरे होंगे धरती पर
      उठा ले गए होंगे तुम्हें
         किसी और के धोखे
      पर चकमा दे कर
      भाग नहीं सकते थे
      तुम उनकी पकड़ से
      और दे नहीं सकते थे
      दस्तक अलसुबह दरवाजे पर!

लाचार माँ चिरौरी करते
थकती नहीं थी
हर बार मिलने पर- यही कि
'बिट्टन को कहना मिल जाये'.
जाना ही था, ससुरे!
मिल तो लेना था एक बार
उस बदनसीब माँ से
सदा-सदा के लिए

सफ़र पर चलने से पहले.