Saturday, May 16, 2015

गाइड की गत


वो हमें जांचने के लिए दी गयी थी. दी क्या गयी थी, इरादतन हमारी गैरहाजिरी में चुपके से फाइलों के ढेर में छोड़ दी गई थी...कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कोई बिन ब्याही माँ अपना पाप मुंह अँधेरे किसी घूरे पर फेंक आती है.

वो ड्राफ्ट थीसिस क्या थी, रुद्रप्रयाग की गंगा जी थी! दो रंगत की धाराएँ समेटे हुए. लिखे गए कुछ पैराग्राफ तो शीशे की तरह चमकदार थे. बेहद तराश  लिए, मचलती अलकनंदा की कलकल कर बहती हुई धारा की तरह. जिन्हें सरसरी तौर पर देखने से ही साफ नज़र आ जाता था कि इन्हें कहीं से उड़ाया गया है! वहीँ दूसरी तरफ भागीरथी की मंथर धारा थी....ठहरी-ठहरी, धूसर और मटमैली सी. यह हिस्सा पढ़ कर कोई सूरदास भी देख सकता था कि इसमें रत्ती भर की मिलावट नहीं है, यह सौ फ़ीसदी इनका स्वयं का पुरुषार्थ है. ऐसा कहने के पीछे एक ठोस कारण है.  दरअसल उनकी भाषा पर गौर करते ही प्रकट हो रहा था कि वह ठर्रा चढ़ाये हुए है और अपने होश हवास पूरी तरह खो बैठी है. चाहे पैर ऐंडे बेंडे पड रहे हों, मगर दुस्साहस से इतनी भरी हुई है कि अपने ही बनाये कायदे कानून तोडने पर उतारू हो जाये.

आगे पढते-पढ़ते आपको महसूस होता हैं कि शोधार्थी के अंदर चौसर और शेक्सपीयर दोनों की रूहें एक साथ प्रवेश कर गयी हैं. और ये रूहें उससे एक अनूठे किस्म के व्याकरण की इबारत लिखवा रही हैं. आइये एक नमूना दिखाएँ... वाक्य के अंदर कॉमा तथा सेंटेसों के बीच फुल स्टॉप तो दुनिया लगाती है. सो आपने लगा कर कौन से तीर मार लिए. मज़ा इस बात में है कि सेंटेंसों के बीच फुलस्टॉप, कॉमा आदि  की दीवार गिराते हुए उन्हें प्रेमी युगलों की तरह एक हो जाने दिया जाये. बांटने का काम तो दुनिया सदा करती आई है और करती रहेगी. इसके उलट, जोड़ने का काम किया जाये तो कुछ बात है! बस यही तुरपाई का काम उन्होंने जगह-जगह किया होता है. वैसे ऐसा लगता नहीं कि जाति तौर पर उन्हें फुल स्टॉप से कोई परहेज़ है. कई दफा सेंटेंस अगर कुछ ज्यादा ही लम्बा हुआ तो वे उसके ख़त्म होने का इन्तजार करते नहीं दीख पड़ते, बल्कि मंजिल से कोई आठ दस कदम पहले ही तम्बू (फुल स्टॉप) लगा कर बैठ जाते हैं.

आगे बढें तो और भी अजीबो गरीब नज़ारे नजर आने लगते हैं. कहीं पूर्ण विराम के बाद भी अक्षरों में इतनी जान नहीं आई होती कि वे तन कर चल सकें, जोड़ों के मरीज़ की तरह घिसटते से नहीं. तो कहीं शब्दों के कई पहले अक्षर कक्षा के उन बच्चों की तरह खड़े दिखाई देते हैं जो एक सिरफिरे शिक्षक के हाथों अकारण बेंचों पर खड़े होने की सजा भुगत रहे हों.  

सब जानते हैं कि भाषण देते वक़्त, वक्ता एक मर्तबा  बांये देखता है तो दूसरी मर्तबा दांये. वाहन भी अक्सर कभी फोर्थ गीयर में चलते हैं, कभी सेकेण्ड या थर्ड में. यहाँ तक कि भैंस भी कभी एक करवट बैठती है तो कभी दूसरी करवट. मगर एक अपने शोधार्थी मियां हैं जो एक बार लिखना शुरू करते हैं तो फिर उसी सुर ताल में, बिना सर ऊपर उठाए, लिखते चले जाते हैं. पैरा वैरा बदलने जैसा कोई फालतू रोग वे कतई नहीं पालते.

हाँ, इनमें एक सिफ़त है... जो भी इन्हें कहा जाता है सो ये झट कर डालते हैं. यह जरूर है कि करने के बाद कभी पलट कर नहीं देखते कि इन्होंने किया क्या है! कागजों का पुलिंदा गाइड के मत्थे मढने को वे उतने ही उतावले रहते हैं, जितना एक जवान लड़की का बाप लड़की के हाथ पीले कर गंगाजी नहाने के लिए होता है. 



ऐसी सूरत में गाइड की गत, गाइड जाने!!   

Monday, May 4, 2015

फोटो शूट



वे बहुत पहुंचे हुए थे. जिस पर उनकी कृपा होती उसकी जिंदगी ही बन जाती. बड़ी सिफारिशों के बाद मिलने का समय मिला. इन्हें लेकर पहुंचे तो डायरेक्टर नुमा अदा से रिवोल्विंग चेयर पर विराजे हुए थे. मिलते ही पूछा- कोई पुरानी फोटो लाये हो? हमने 'नहीं' कहा तो मन ही मन खुश नजर आये. मानो सोच रहे हों- एकदम रॉ है, बिलकुल फ्रेश मॉडल की तरह! दुनिया के सामने ला कर धमाका कर देंगें!

फिर हमें स्टूडियो भेज दिया गया. फोटोग्राफर ने बताया कि पहले बैठी मुद्रा में फोटो खींचेंगे. बोला- आप सामने की ओर पैर फैला कर बैठ जायें. 'ये पैर थोडा पीछे ले लें.' 'साड़ी पिंडलियों से ऊपर कर लें.' 'नहीं, नहीं, पैर अंदर की ओर मोड़ें.' 'हिलें नहीं, सीधे देखे.'....'बस एक मिनट.' 'ठीक!' इस तरह क्लैप शॉट ओके हो गया. ऐसा ही कुछ दूसरे पैर के साथ दोहराया गया. हमने सोचा बुद्धा मुद्रा अब ख़त्म हुई, अब विवेकानंद मुद्रा शुरू होगी. किन्तु हम गलत थे. उन्होंने अब दोनों पैर घुटनों तक मोड़ कर बैठने को कहा जैसे अक्सर लोग गमी में बैठते हैं. उसके बाद तो हद ही कर दी. पूरी जांघों तक स्ट्रिपटीज़ करा दिया. मुए ने पत्नी के बुढ़ापे की लाज तक नहीं रखी! खैर शरमा शरमी में शॉट जल्दी ओके हो गया.

अब वे अपना कैमरा उड़ा कर छत पर ले गए. फिर हुक्मनामा जारी किया- खड़े हो जाएँ. बायाँ पैर थोडा आगे, हाथ कमर पर, निगाहें सधी हुई. बचपन की सहेली की तरह स्टेच्यू बोल कर कैमरे की ओट  में जाकर प्रिव्यु देखने लगे. ओट से बाहर निकल कर सीन की सेटिंग बदली. पैर के नीचे कुशन का जैक लगा कर उसे बालिश्त भर ऊपर उठा दिया. आखिर काफी तकलीफ और थोड़ी जद्दोजहद के बाद यह शॉट भी ओके हो गया. फिर तो कैमरे की पोजीशन को लगातार बदलते हुए अलग-अलग पोज़ में न जाने कितने फोटो निकाल मारे.



खैर फोटो सेशन संपन्न हुआ. खींचे गए फोटो के नेगेटिव बारी-बारी और बारीकी से देखने के बाद डायरेक्टर उर्फ़ हड्डी-डॉक्टर ने भारी आवाज़ में फैसला सुना दिया. 'दोनों घुटने बुरी तरह घिस गए हैं....इन्हें बदलना ही इनका इलाज है.'