Tuesday, October 12, 2010

शरीफ बदमाश

जगतनारायण का शहर में औसत कारोबार था. सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि एक दिन उन पर गाज गिरी. उनके बेटे मासूम को स्कूल के रास्ते से अगुवा कर लिया गया. देर रात गए फोन पर बदमाशों ने बीस लाख की फिरौती मांगी. जगतनारायण रकम सुन कर धक् से रह गए...गिडगिडा कर बोले, रकम बहुत ज्यादा है. मेरी इतनी हैसियत नहीं, मैं बिक जाऊँगा तो भी इतनी बड़ी रकम नहीं चुका पाऊंगा सरकार! उधर से कड़क आवाज़ आई- मूर्ख मत समझो हमें, जगतनारायण....हम धंधे में नए-नए नहीं हैं, सालों का तजरबा है हमें!...बहुत सोच समझ कर ही रकम बाँधी है हमने तुम्हारे लिए .बच्चे की जान चाहते हो तो सीधे से रकम चुका दो वरना....!!मैं सड़क पर आ जाऊंगा हुजूर, रकम थोड़ी कम कर देते....कुछ तो रहम कीजिए.... पैसों में एक धेला भी कम नहीं होगा. चलो इतनी मोहलत दिए देते हैं  ....तुम एक मुश्त के बजाय तीन, चार, या छः आसान  किश्तों में फिरौती चुका दो!!!

Sunday, September 19, 2010

वो कौन था...?






  • वह जो कान से मोबाइल चिपकाये, दोनों जहानों से बेखबर सड़क पर इस अदा से चला जा रहा था कि रिमझिम बरखा में जुगाली करता भैसों का झुण्ड उससे रश्क करे. 
  • दूसरों को चुनौती देता सा कोई मतवाला जो सुबह-सुबह घर से चाय की प्याली नहीं बल्कि अमरता का प्याला पी कर निकला हो. गो ख़म ठोक कर कह रहा हो - 'है कोई माई का लाल, जो मेरा कुछ बिगाड़ सके...मैं अभी उसकी टांग के नीचे से निकलने को तैयार हूँ.
  • सड़क  पर उतर पड़ा एक ऐसा शख्स जिसके वास्ते हर वाहन चालक को चौकस और चौकन्ना रहना पड़ता है. डार्विन की 'सर्वाइवल इंस्टिंक्ट' की थ्योरी को गलत साबित करता एक चलता-फिरता उदाहरण! एक नए मुहावरे- 'मरता, तो भी कुछ न करता' को गढ़ता हुआ, जो अपनी सलामती का पूरा जिम्मा सामने वाले पर डाले रहता है.
  • भोले  नाथ का कोई सिर-चढ़ा  भक्त. चिलचिलाती धूप और कडकडाती ठण्ड में एक टांग पर खड़े हो कर किये घनघोर तप की फिरौती के रूप में जिसे भक्तवत्सल ने वरदान दिया हो ... 'बच्चे जा, तुझे न कोई ट्रक कुचल सकेगा, न डम्पर; न कोई कार तुझे टक्कर मार सकेगी न ही सिटी बस. जब तलक तू सड़क का दामन नहीं छोड़ेगा, सर्वथा सुरक्षित रहेगा. 
  • कुर्बानी  के जज्बे से लबरेज़ कोई शासकीय कर्मचारी, जो अपने निखट्टू बेटे के मोह में पड कर अपने जीवन की बलि देने चला हो ताकि बेटे को अनुकम्पा नियुक्ति दिलवा सके.
  • दोनों तरफ कतार बांधे खड़े कोर्निश बजाते दरबारियों के बीच से हो कर गद्दी नशीन होने जाते हुए जिल्ले-इलाही, आफ़ताबे-वतन, शहंशाहे हिन्दुस्तान की भटकी हुई आत्मा.
  • 'थर्ड पार्टी' जिसके नाम पर इंश्योरेंस  कम्पनियाँ अपना खजाना तो भर लेती हैं  किन्तु दैवीय चूक से जिसे कुछ हो जाने पर गाँठ ढीली करने के बजाय कानून छांटने लगती हैं
  • ......पता नहीं वह कौन था?...जो भी था, मगर रहा लाख होर्न बजाने के बावजूद बेसुध! 'मीर' साहब ने इनके लिए यूँ फरमाया है... तेरे बेखुद जो हैं सो क्या चेतें. ऐसे डूबे कही उछलते हैं. 

Thursday, September 9, 2010

इंडिया गोट टेलेंट

कुदरत का अपना सीधा-सीधा निजाम है. मौसम आने पर फूल खिलते हैं, वक़्त से फल लगते हैं और पक जाने पर टपक जाते हैं. आदमी का निजाम कुछ अलग ही है. विश्वविद्यालयों के इन्तेजाम की एक बानगी देखिये, हालात कमोबेश ऐसे हैं. कैलेण्डर  के हिसाब से माने तो अभी हम सत्र २०१०- २०११ के बीच में हैं. मगर विश्वविद्यालयों में सत्र २००६-०७ के विद्यार्थी परीक्षा परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिस पर कालिजों की मान्यता के विवाद के चलते माननीय न्यायालय ने रोक लगा रखी है. सत्र २००७-०८ की प्रायोगिक परीक्षाओं का दौर चल रहा है. २००८-०९ की पढाई परवान पर है तो साथ ही २००९-१० के प्रवेश भी जारी हैं. मुमकिन है कि २०१०-११, यानि मौजूदा सत्र की प्रवेश परीक्षा  का विज्ञापन जारी करने के लिए सचिवालय में अफसरों की बैठक हो रही हो. ...मानते हैं न- इंडिया गोट टेलेंट 
अंत में...
मम्मी ने अपने बेटे के स्कूली दोस्त प्रियेश के पापा का फोन नंबर प्रियेश डैड के नाम से सेव कर रखा था. एक दिन उनका एक अलग नंबर से फोन आया. मम्मी ने यह नया नंबर भी सेव करने की सोची. नाम की जगह थोडा सोचने के बाद लिखा...प्रियेश डैड २ और सेव का बटन दबा दिया. 


Friday, August 13, 2010

परप्रांतीयता पर एक राज्य नेता की पत्रकार वार्ता

पत्रकार- महोदय, आपका बयान आया है कि परप्रांतीय लोगों से राज्य में मलेरिया फैल रहा है. हमें तो प्राइमरी में यही पढाया गया था कि मच्छर ही मलेरिया फैलाते हैं. हमारी तुच्छ बुद्धि में यह बात नही बैठ पा रही कि आखिर प्रांतीयता मच्छरों की जननी कैसे हो सकती है. 
राजनेता- वे शिक्षक जिन्होंने आपको यह गलत पाठ पढाया अवश्य ही परप्रांतीय रहे होंगे! 
पत्रकार- चलिए मान लेते हैं कि पाठ गलत था. किन्तु गलत पाठ पढने से मच्छर तो नहीं पैदा हो जाते? तब प्रान्त पर भला मलेरिया संकट कैसे आ सकता है? 
राजनेता- आप नहीं जानते परप्रांतीय जब भी आते हैं तो अकेले नहीं आते. खटमल भरा बिस्तर, मच्छरों की पौधशाला कीचड और ख़राब रहन सहन भी साथ लाते है. 
पत्रकार- लेकिन परप्रान्तियों की झोंपड पट्टियों में पनपने वाले मच्छर तो इन्हीं गन्दी बस्तियों के रहवासियों को काटेंगे ना?
राजनेता- यही तो भेद है. ये मच्छर भी परप्रांतीय होते हैं, इसलिए हमारी संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं. सो रातों में चुन-चुन कर स्थानीय लोगों को ही काटते हैं.
पत्रकार- तो मलेरिया की रोकथाम का क्या रास्ता सोचा है आपने?... क्या स्वच्छ और पक्के मकान मुहैय्या कराने अथवा कोई ज्यादा कारगर मच्छर मार दवाई विकसित करने की योजना है? कहीं आप प्रत्येक राज्यवासी के लिए एक यू आई ड़ी बनवाने की तो नहीं सोच रहे?
राजनेता- नहीं, नहीं...ये सब बकवास हैं. एक ही रास्ता है- परप्रान्तियों की घुसपैठ पर पूरी तरह रोक लगाना. जो पहले से यहाँ रह रहे हैं, उन्हें डंडे के जोर पर खदेड़ बाहर करना. 
पत्रकार- माफ़ कीजिये, आप ने फैज़ साहब के वे शे'र तो सुने होंगे...
        हम कि ठहरे अजनबी इतनी मुलाकातों के बाद 
        फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाकातों के बाद 
        कब नज़र में  आएगी  बेदाग़  सब्जे की  बहार
        खून के धब्बे  धुलेंगे  कितनी  बरसातों के बाद 
राजनेता- बब्बर शेर मुजरे नहीं सुना करते अदीब...परदेसियों के तो हरगिज़ नहीं! वे तो बस दहाड़ सुनते है. आपका काम सवाल पूछना है, आप सवाल पूछिए.
पत्रकार- मेरा सवाल है कि परप्रांतीय कोई उठाईगीर हैं क्या? इनकी अगली पीढ़ी भी यहीं इसी प्रान्त में पैदा हो चुकी है. आप बताएँगे कि इन्हें प्रांतीय कहलाने में अभी और कितना अरसा लगेगा?
राजनेता- साँप होता है न, उसका बच्चा तो सपोला ही कहलायेगा? शहर में रहने से क्या अपना स्वभाव छोड़ देगा?...ये लोग परप्रांतीय थे और परप्रांतीय ही रहेंगे. 
पत्रकार- चलो, मलेरिया का खात्मा तो हो गया. मगर डायबिटीज़, कैंसर, एच आई वी, हार्ट अटैक आदि का क्या होगा? अपने प्रिय प्रान्त को एक सम्पूर्ण निरोगी प्रान्त बनाने के लिए आप कौन से ठोस कदम उठाने जा रहे है. 
राजनेता- हम प्रादेशिक सीमा के चप्पे-चप्पे पर कार्यकर्ता तैनात करेंगे. जो परप्रांतीय मानसूनी हवाओं को प्रदेश में तभी प्रवेश देंगे जब वे परप्रांतीयता नामक विषाणु से रहित होने का प्रमाण प्रस्तुत करेंगी. साथ ही वे यह भी देखेंगे कि बैरी बदराओं की आड़ में राज्य की जनता की सेहत से खिलवाड़ करने के लिए कहीं पडौसी सूबों से नर्सों की कबूतरबाजी तो नहीं की जा रही?
पत्रकार- ठीक है, मगर इस योजना में मानवीय चूकों की सदा गुंजायश रहेगी. इस के मद्दे-नजर आपके पास क्या विकल्प हैं?
राजनेता- सही कहा आपने. परप्रांतीयता की समस्या से सदा-सदा के लिए निजात पाने के लिए हमें अपने प्रिय प्रान्त को देर सबेर किसी टापू पर शिफ्ट करना होगा...राज्य की जनता को चाहिए कि वह इस कठोर निर्णय के लिए तैयार रहे. 



Sunday, August 8, 2010

दुआ

मैं हमेशा से तंगदिल और कमतर इंसान नहीं था, हालातों ने मुझे ऐसा बना दिया है.  किसी समय मेरे झोंपड़े में भी दस-दस, पंद्रह- पंद्रह मेहमान हफ़्तों-हफ़्तों रहेमगर मजाल है जो अपने चेहरे पर जरा भी शिकन आई हो. आज यह आलम यह है कि दो जनों के आ जाने से ही प्राण सूखने लगते हैं. सुबह- सुबह जब फ्लश में बाल्टी भर पानी डाला जाता है तो अपना कलेजा मुंह को आने लगता है. गुसल में अतिथियों द्वारा डाला गया एक-एक मग पानी हमें अपनी नंगी पीठ पर दस-दस कोड़ों की तरह बरसता लगता है.... खुदाया या तो नल दे वरना ये दिन किसी को न दिखाए.  
                             फिर जच्चागिरी
आठ दस साल हुए फ्लेट और कार की किश्तों से फ़ारिग हुए. फिर सब तरफ से बराबर दबाव डाला जा  रहा है कि गाडी बदल लो , बँगला बुक करा लो. मतलब फिर से बैंकों के चक्कर, लोन की किश्तें चुकाने का सिलसिला. ठीक वैसा ही जैसे बच्चे बियाहे ठाए हो जाने पर किसी औरत को फिर से जच्चागिरी का शौक चर्राने लगे.
                              सच्चा भारतीय
खबर है कि अमरीका और यूरोप में आइसक्रीम सबसे जियादा खाई जाती है. खुद बराक ओबामा आइसक्रीम के दीवाने हैं. छटे चौमासे शादियों- जन्मदिनों की दावतों में मैं आइसक्रीम खा जुरूर लेता हूँ, मगर प्रेम से तो मैं गन्ना ही चूसता हूँ. इसी तरह पिज्जा बर्गर के   बदले भड़भूजे से भुनवाये चने  ही चबाना पसंद करता हूँ. तभी तो सच्चा भारतीय होने पर मैं गर्व से भर उठा हूँ!


Saturday, July 24, 2010

दूर संचार क्रांति

दूर संचार क्रांति: एक
उनकी बीसवीं वेडिंग एनिवरसिरी थीसेलिब्रेशन के लिए शहर के एक टॉप होटल में केंडल डिनर की एक टेबल बुक करा ली गईकपल बन संवर कर होटल पहुंचाआर्डर देने के बाद पति-पत्नी अपने-अपने मोबाइलों पर सगे सम्बन्धियों और हितैषियों से बधाइयाँ स्वीकारने लगेहोटल की तफसील, लिए-दिए गए गिफ्टों का ब्यौरा और डिनर के मेन्यु की सिलसिलेवार जानकारी देते-देते पता ही नहीं चला कि केंडल मुई कब गुल हो गई, डिनर कब ख़त्म हुआ
इब्ने
इंशा का एक शे' है:
हमसे नहीं मिलता भी, हमसे नहीं रिश्ता भी
है पास वो बैठा भी, धोका हो तो ऐसा हो

दूर
संचार क्रांति: दो
अतिथियों को लेने स्टेशन जाना था। गाड़ी पहुँचने के निर्धारित समय, ग्यारह बज कर चालीस मिनट से कोई घंटा भर पहले 'नेट' से गाड़ी की स्थिति जाननी चाही। इतना ही सुराग लग पाया कि सुबह छः बजे भवानी मंडी छोड़ चुकी है। लाचार हो कर हमने फोन का सहारा लिया। तब जो घटित हुआ उसकी बिना संपादन , अविरल प्रस्तुति निम्न है:
नमस्कार... भारतीय रेल की पूछताछ सेवा में आपका स्वागत है... हिंदी में जानकारी के लिए १ दबाएँ... गाडी की स्थिति जानने के लिए गाड़ी का नंबर दबाएँ... आपके द्वारा दबाया गया नंबर है-क...ख...ग...घ। यह नंबर गलत है। (जबकि नंबर एकदम सही था) ... धन्यवाद। फिर वही चक्र- नमस्कार...धन्यवाद।
पूछताछ नंबर १३१ पर संपर्क करने की जहमत उठाने का न अपना कोई इरादा था न ही इतना वक़्त। सो तुरंत स्टेशन कूच करने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहा। जब एक बजे तक भी गाड़ी प्लेटफार्म की तरफ आती नहीं दिखी, हम फिर पूछताछ खिड़की की ओर भागे। वहाँ सूचना पट्टपर लिखा था- पंद्रह मिनट देरी से आखिर मेहमानों को लेकर घर पहुंचे तो थाने में गुमशुदगी की रपट लिखाने की मंशा से पत्नी ताला बंद करती मिली।

दूर संचार क्रांति: तीन
आपको कालिजों के इंस्पेक्शन पर जाना है। अर्जी दाखिल करते समय अक्सर कालिज कैम्पस में चल रहे अन्य कोर्सेस की जानकारी छुपा लेते हैं। इस कृत्य से आवेदित कोर्स के लिए आधारभूत सुविधाओं (बिल्डिंग, फर्नीचर, पुस्तकें आदि) को बढ़ा चढ़ा कर दिखा दिया जाता है। जैसे ही आपको पता चलता है कि कालिज की वेब साईट भी है, आप ख़ुशी से झूम उठते हैं । सोचते हैं- धन्य हो सूचना तकनीकी का युग- सब पर्दाफाश कर देगा! आप बैलगाड़ी और मजदूरों की टोली लेकर सूचना की लहलहाती फसल काटने सम्बंधित खेत पर पहुँचते है। सामने मिलता है एक तख्ती लगा सपाट खेत, जिस पर अमूमन लिखा होता है- खेत की जुताई जारी! असुविधा के लिए खेद। मेंड़ों पर उग आई खरपतवार हाथ आ जाए तो आपकी खुशकिस्मती, वरना तय मानिए कि सूचना के विस्फोट में उड़ गए आपके परखच्चे!!

Thursday, July 15, 2010

पहाड़ों की सैर कर लो

चलो आज पहाड़ों पर 'घूमें'।यहाँ के सफ़र की तो बस पूछो ही मत! सड़कें इस कदर संकरी कि आमने सामने के वाहनों के ड्राईवर चाहें तो एक दूसरे को धौल जमाते निकलें, लाल-बत्ती रहित मोड़ इतने अंधे कि रोड रोलर भी जब तक नाक पर न चढ़ आये तब तक न दिखे, और रास्ते इस हद लहरदार कि आपको उत्तर दिशा में जाना हो तो सारा समय या तो आप पूरब को जा रहे होते हैं या पश्चिम को। चाल को आधार बना कर यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि साँप चाहे मैदानों, रेगिस्तानों में भी मिलते हों परन्तु उनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा जरूर पहाड़ों में हुई होगी। चक्कर के घनचक्कर की एक बानगी देखिये। हमने एक राहगीर से पूछा- भाई साहब, ये बिन्सर महादेव कहाँ पड़ेगा? बोला- बस चलते चलो, जब एक सौ उनतालिसवें घूम पर पहुँचो तो समझो वहीँ बिन्सर महादेव है!
ढलान, चढ़ाव और घुमाव के पहाड़ी जगत की ज्यामिति ही अलग है। मालूम नहीं, यहाँ के स्कूलों में गणित के शिक्षक सरल रेखा और लम्ब के उदाहरण कहाँ से लाते होंगे? वर्ग, आयत आदि को पढ़ाने का जुगाड़ कैसे करते होंगे? दो स्थानों के बीच की दूरी कैसे निकलती होगी? बाकी की तो क्या कहें, यहाँ के तो देवता भी 'गोलू' देवता हैं। सड़कों पर चक्कर खाती गाड़ियों को इन्हीं गोलू देवता का वरदान प्राप्त है कि जब तक वे पहाड़ की साइड रहेंगी तो नहीं पलटेंगी, मगर अभिशाप भी कि घाटी की तरफ पलटी तो बचेंगी नहीं। थोड़ी-थोड़ी दूर पर सड़कों में हलके झोल डाले गए थे ताकि पंचर होने की सूरत में ड्राईवर को पहिया बदलने की जगह मिल सके।
पहाड़ों के सफ़र की एक और खासियत है। इस दौरान आपकी इकलौती आँख कार्यशील रहती है, दूसरी चौपट हो जाती है...बारी-बारी। पहाड़ कभी आपकी बांयी आँख पर मोटा पट्टा बांध देता है तो कभी दांयी आँख पर, ठीक हिंदी फिल्मों के बदमाश की तरह। कुल मिला कर पांच दिनों के सफ़र में ढाई दिन आपके वाम चक्षु चलेंगे तो ढाई दिन दक्षिण। हर मोड़ पर कुदरत की किताब के नए-नए वरक खुलते चलते है। हो सकता है राह में किसी बियाबान जगह आपको एक स्कूल का साइन बोर्ड मिल जाए, मगर चारों तरफ निगाह दौड़ाने पर कोई भी इमारत न दिखे। ऐसे में आप खुद को एक अजीब गुत्थी में उलझा पाएंगे- यही कि पिक अप वैन की इंतजार कर रहे बच्चे रसोई में चीनी पर जमा चींटियों की तरह आखिर किन ठिकानों से आये हैं?
चौराहों पर राहें फटती नहीं वरन उठती या गिरती हैं। अब यह आप जानों कि आपको ऊपर वाली सड़क पकडनी है या नीचे वाली...ऊपर की तो कितने ऊपर की और नीचे की तो कितने नीचे की? हाँ, एक बात और...मकानों के बराबर में रखी टंकियों को देख कर यह भरम मत पालिए कि ये इन्हीं मकान मालिकों की है। दरअसल ये निचले तल्ले के लोगों के ओवरहेड टैंक हैं। धान के खेत ऐसे नज़र आते हैं गो किसी विशाल किन्तु उजाड़ स्टेडियम की सीढ़ीनुमा दीर्घाओं में मिटटी डाल कर रौपाई कर दी गयी हो।
रही बात यहाँ के बाशिंदों की- यहाँ के इंसान, पालतू पशु और मकान सब पहाड़ों की छाया में ठिगने दिखाई देते हैं। पहाड़ी कुत्ते की ही मिसल लें। गठा बदन, मैदानों के मुक़ाबिल झबरीला मगर कद काठी में उन्नीस, जैसे गढ़ने वाले ने ऊपर तथा साइडों से दबा दिया हो।...वो कहते हैं न कि 'अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे'।

Sunday, July 4, 2010

कुछ खुदरा व्यंग्य

फर्क
पहले खिलाडी फुर्सत के लम्हों में खेलते थे, अब उन्हें खेलने से ही फुर्सत नहीं है। खेल पहले दिल बहलाव का जरिया था अब तो लगातार खेलने की वजह से दिल बहलाने की जरूरत पड़ती है।
मंजर
एक से एक बढ़ कर एक नस्ल के घोड़े जहाँ जान हलकान कर दौड़ रहे हों, रेसकोर्स की सीमा पर दांव लगाने वाले फ्रेंचाइजी अपने- अपने घोड़ों की बढ़त पर उन्माद से झूम रहे हों, हाथ पाँव फेंक रहे हों...बस समझिये यह आई पी एल का मंजर है।

परफेक्शन
वह अवस्था जिसमे रचना में और अधिक सुधार करने से बिगाड आने लगे!
आज का सुग्रीव
जो अपनी गाडी इस तरह पार्क कर दे जैसे गुफा के मुहाने कोई शिला अड़ा दी गई हो... फिर किसकी मजाल जो पार्किंग से अपनी काइनेटिक भी निकाल ले जाए!
खानदानी लोग
लैंड लाइन धारक लोग। सिर्फ मोबाइल रखने वाले उन खानाबदोशों की तरह है जिनका कोई निश्चित ठौर- ठिकाना नहीं होता।

मीनोपौज़
अट्ठावन से पैंसठ वर्ष की उम्र में रिटायरमेंट का समय जब पुरुषों का मासिक (वेतन) आना बंद हो जाता है, पुरुष मीनोपौज़ कहलाता है।

अध्यापक
जिहव चेष्टा, नोट्स ध्यानं, एको मुद्रा सदैव च
दंडधारी, अहंकारी, अध्यापकम पञ्च लक्षणं।




Sunday, June 20, 2010

ऐसा रहा हमारा हवाई सफ़र

औरों की देखा-देखी हमने भी गेट पर खड़े जवान की तरफ टिकट के साथ परिचय पत्र बढ़ा दिया। उसे फोटो ठीक ही लगी होगी जो उसने हमें अन्दर जाने दिया। अन्दर कई काउंटरों पर ठेला गाड़ियाँ लिए लोगों की भीड़ लगी थी। सोचा लेटलतीफ हैं, टिकेट कटा रहे होंगे। सीधे जाने पर माँ के भक्तों सी घुमावदार लाइन मिली। बारी आने पर हमें कोई सा पास लाने को कहा गया। एजेंट की ठगी पर झुंझलाते हुए हमने अपनी पोशाक की तल व पहली मंजिल पर स्थित सभी जेबों की रकमों को इकठ्ठा करना शुरू कर दिया। मगर काउंटर संभाल रही सुंदरी ने बोर्डिंग पास के बदले में हमारा सारा सामान एक तरफ रखवा लिया। हमने खैर मनाई कि सस्ते में छूट गए मगर तुरंत ही फ़िक्र भी हुई कि प्रवास में किसके लत्ते पहनेंगे? पास ले कर हम जिस शख्स के पास गए, खुन्नस के मारे उस मरदूद ने सबके सामने सांगोपांग तलाशी ले कर हमारी इज्ज़त पर वो हाथ डाला जो बचपन में अम्बियाँ चुराने पर बाग़ वालों ने भी नहीं डाला होगा। फिर हमें जिस अदा से जहाज तक ले जाया गया वह ऐसा ही था जैसे गोबर पाथने वाली औरतों को गाँव के बाहर पथुआरे तक मर्सीडीज में ले जाया जाये। अनुमान था कि किराये के अनुपात में विमान की सीटें तख्ते-ताउस जैसी न भी सही, राजाओं और मनसबदारों के जैसी विशाल व आलीशान तो जरूर होंगी। किन्तु सीट की पीठ पर पड़े मटमैले जालीदार कपडे, सीटों के बीच सरहदरुपी हत्थे और सीट बेल्ट को छोड़ दें तो उसमे नंगला से खुड्डा के बीच चलने वाली खटारा से जियादा जगह शर्तिया नहीं रही होगी।

सवारियां अभी बैठी ही थी कि इंजन से जोरदार घुर्र-घुर्र शुरू कर दी। तभी दो तीन नवयुवक-युवतियों ने हाथों में कुछ लिए विमान में बराबर-बराबर दूरी पर पोजीशन ले ली। उनके चेहरे मासूम थे, चुनांचे लग नहीं रहा था कि वे अपहर्ता होंगे। साथ ही विमान अभी उड़ा भी नहीं था, ऐसे में हाइजेक कि थ्योरी तज कर मन को बेहद तसल्ली हुई। उनके बर्ताव की लोच को देखते हुए शक हुआ कि हो न हो वे सेल्समन टाइप के जीव हों। सोचा जैसे बसों में दन्त मंजन, चुटकुलों की गुटका किताबें या मोसंबी का ज्यूस निकालने वाली मशीन बेचते हैं, वैसा ही कुछ बेचते होंगे। मगर वे जनाब पेटी बांधना सिखाने लगे जो लगभग सभी सवारियां पहले ही बाँध चुकी थी। उन्होंने निकास द्वारों के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी दी जिसे विमान में प्रवेश कर सीटों तक पहुँचने के दौरान यात्री अपने आप ले चुके थे।
आखिरकार विमान चला तो कुछ कदम चल कर फिर खडा हो गया। खिड़की से झाँकने पर पता चला कि जाम लगा है। ज्यों ही अगला विमान थोडा खिसकता है, पिछला उसके पीछे चिपक लेता है मानो डर रहा हो कि कहीं तीसरा विमान बीच में न घुस जाये! कुछ इंतिजार के बाद जाम खुला। अब विमान ने रफ़्तार तो पकड़ी मगर वह रफ़्तार टमटम की सी थी । वैसी ही दुलकी चाल, गहरी नदी के जल प्रवाह सी मंथर, अलसाई हुई। इसी विध एक अरसा गुजर गया, लगा अगर मोटरकार में जा रहे होते तो कभी के मथुरा जरूर पहुँच गए होते। जब हम सोच ही रहे थे कि अब उड़े, अब उड़े तभी जहाज यूँ ठहर गया गोया ठिकाने पर आ लगा हो। मगर थोड़ी देर बाद उसके सर जुनून सा सवार हुआ और वह पागल हाथी सा चिंघाड़ कर दौड़ पड़ा। डर के मारे हमने कुर्सी के हत्थे थाम लिए। तभी महसूस हुआ जैसे हमें किसी गहरी खाई में फेंक दिया गया हो। बैठे थे तो कुर्सी सीधी थी किन्तु अब हम करीब-करीब लेटे लेटे से लग रहे थे, जैसे डेंटिस्ट के यहाँ हों और वह जमूरा ले कर बस दांत उखाड़ने ही वाला हो। विमान के बीच का रास्ता तिरछा हो कर यूँ लगने लगा मानो कोई सीढ़ी स्वर्ग को चली गयी हो, जिसके उस पार व्योम बालाएं अप्सराओं सी दिख रही थी।

कुछ देर बाद विमान हवा में सूखे पत्ते की तरह लड़खड़ाने लगा। फर्क सिर्फ इतना था कि पत्ता नीचे गिर रहा होता है जबकि हम ऊपर उठ रहे थे। हम छोटू की मम्मी की तरफ से सोच कर परेशान हो उठे। पिछले दिनों हुए तमाम विमान हादसे याद आने लगे। पछतावा भी हुआ कि उड़ने से पहले सरकारी मुआवजे को सही ढंग से ठिकाने लगाने हेतु हमने वसीयत क्यों नहीं कर छोड़ी! यह हिन्दुओं के जाप और मुसलमान भाइयों के कलमा पढने का ही असर था कि जल्दी ही सब कुछ ठीक-ठाक हो गया। अब विमान हवा में ठहर सा गया था किन्तु सवारियों ने आमद रफ्त शुरू कर दी। इंजन का शोर बदस्तूर जारी था वरना हम समझते कि इसे ही लैंडिंग कहते हैं और दरवाजे से कोई आठ दस किलोमीटर लम्बी सीढ़ी के लगने का इंतिजार कर रहे होते।

Friday, June 11, 2010

वक़्त की पाबन्दी के साइड इफेक्ट्स

हमें एक पुरानी स्टुडेंट की शादी में जाना था। कार्ड देख कर समय की तस्दीक की। लिखा था- ७बजे से आपके आगमन तक। इस लेख का हमने यह अर्थ लगाया कि आपको जब आना हो आओ , लेकिन सनद रहे कार्यक्रम ठीक सात बजे शुरू हो जायेगा। इस हिसाब से हमें पौने सात पर चल देना चाहिए, यही सोच हमने पत्नी को फटाफट तैयार होने को कहा। वह पलट कर बोली- इतनी जल्दी भी क्या है? हमने कहा- भागवान! हम पर नहीं तो दूल्हे के बाप पर तो तरस खाओ, वे बेचारे बुजुर्गवार ७ बजे से मंडप के गेट पर हाथ जोड़ कर मूर्ति से खड़े हो जायेंगे। मैरिज गार्डेन पहुचे तो गेट पर गहरा सन्नाटा था, अन्दर जरूर गहमा-गहमी थी। टेंट वाले कुर्सियां उतारने में लगे थे तो केटरर मेजें सजा रहे थे। अब हम पर क्या गुजरी वो हम ही जाने!
कुछ दिनों बाद हमारे एक सहकर्मी के भाई की शादी पड़ी। तब तक हम काफी दुनियादार हो चुके थे ओर वक़्त का कुछ-कुछ मतलब समझने लगे थे। इस बार हम दो घंटे लेट यानि ९ बजे मंडप पहुंचे। स्टेज सजी थी मगर दूल्हा-दुल्हिन कहीं नजर नहीं आ रहे थे। हमने अनुमान लगाया कि टायलेट वगैरह गए होंगे, आ जायेंगे। कुछ घड़ियाँ इंतज़ार के बाद पहले भोजन कर लेना ही हमें उचित विकल्प लगा। आइसक्रीम खा चुकने के बाद पान का बीड़ा मुंह में दबाने तक भी स्टेज खाली पड़ी थी। हाँ, जेवरों से जियादा मेक अप में दबी कुछ संभ्रांत महिलाएं ऊंघती सी वहाँ जरूर आ बैठी थी। वर वधु की करीबी समझ कर हमने उनसे पूछा- दूल्हा-दुल्हिन कहाँ हैं, आपको पता है क्या? अहसान सा उठाते हुए एक ने आँखे खोली और कहा- नहीं । आशीर्वाद हाथ में लिए हम तकरीबन पौना घंटे दूल्हे की तलाश में यहाँ-वहाँ भटकते रहे। फिर हमने अपनी गाड़ी उठाई और जनवासे का रुख किया। वहाँ पहुंचे तो देखा जनाब रकाबी में पैर रख कर घोड़ी पर चढ़ रहे हैं।...और दुल्हिन, जाने वह कहाँ थी? हो न हो ब्यूटी पार्लर से मंडप के लिए निकल पड़ी हो!
संगीत की एक महफ़िल की सुनाएँ। देश के एक नामचीन गायक की एकल प्रस्तुति थी। पास पर साफ और मोटे हरूफों में लिखा था कि कृपया समय से १५ मिनट पूर्व स्थान ग्रहण कर लें। हमें यह भी मालूम था कि कलाकार बेहद नाज़ुक मिजाज़ होते हैं और बेवजह की हरकतें प्रस्तुति के दौरान पसंद नहीं करते । सो गाडी पार्क करने से ले कर सभागार में अपनी सीट ढूँढ कर उसे ग्रहण करने में खर्च होने वाले समय का हिसाब लगाया, जो कि दस मिनट निकला। अब पंद्रह में ये दस मिनट जोड़ कर हम कोई पच्चीस मिनट पहले पहुँच गए। सभागार खाली था, कुछ कद्रदान गेट पर अवश्य मंडरा रहे थे। मुमकिन है, अकेले में दम घुटता सा देख बाहर आयोजकों में आ खड़े हुए हों। रफ्ता-रफ्ता रसिकों की आमद-रफ्त का सिलसिला बना लेकिन जब तक साजिन्दे मंच पर आ कर अपने साज़ ठीक करते, भले आदमियों का सोने का समय को चुका था।

Saturday, May 29, 2010

बेचारे...इंसान के बच्चे!

भेड अपने मेमने को नहीं मारती, कुत्ता अपने पिल्ले को नहीं कूटता, भैंस अपनी बछिया की धुनाई नहीं करती, मृग अपने छोने पर छड़ी नहीं बरसाता । यह सिर्फ आदमी की फितरत है जो अपने बच्चों की पिटाई करता है। । उस पर दलील यह देता है कि यह उसके प्रेम करने का ही तरीका है।
उल्लू अपनी संतान को उल्लू समझता है, गधा भी अपनी औलाद को गधा ही मानता है, सूअर यकीन करता है कि उसके भूरे भूरे गोल मटोल भी सूअर ही हैं- कोई भी अपने बच्चे को आदमी नहीं समझता। मगर आदमी, आदमी वह शै है जो अपने बच्चे को उल्लू, सूअर, गधा आदि कहता है, बस आदमी नहीं
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी
ये सब ताडन के अधिकारी
तुलसीदास जी मानस में कह गए हैं
ताज्जुब मगर इस बात का है
कि उनकी लम्बी फेहरिस्त से
बच्चे कैसे बाहर रह गए हैं।
कहीं ऐसा तो नहीं
तुलसी जैसे मर्मज्ञ ने उन्हें
इसलिए अलग जगह नहीं दी है
क्योंकि ढोल, गंवार, शुद्र
पशु ओर नारी, सभी में
ये थोड़े बहुत हर कहीं हैं।

Tuesday, May 25, 2010

मेरी पहली-पहली आरती

मंगलवार का दिन था। हम सपत्नीक मित्र के घर पारिवारिक दौरे पर गए थे। ठन्डे पानी के सेवन से आवभगत के तुरंत बाद ही वे असल मुद्दे पर गए। उन्होंने कॉलोनी के पार स्थित शिव मंदिर की आरती की भव्यता और उससे मिलने वाले सुकून का मनभावन दृश्य खींचा, जिससे हम प्रभावित हुए बिना ही रहे। मगर पत्नी के चेहरे पर जा रहे भावों को ताड़ते हुए उन्होंने हमें आरती में शरीक होने का आग्रह कर ही डाला। चाहते तो नहीं थे, किन्तु किसी की इबादत में विघ्न का पाप हमारे सर आये , सो उनके साथ हो लिए।
मदिर पहुंचे तो भक्त-गण हाथ जोड़े शिव वंदना में लीन थे। पत्नी और मित्र भी शामिल हो कर स्वर में स्वर मिलाने लगे। हम दूर खड़े झील का मनोरम दृश्य निहारने लगे। कोई दस मिनट गुजरे होंगे कि अचानक सब और सन्नाटा छा गया। मंदिर के एक कोने से एक पुजारीनुमा व्यक्ति टोकरी लिए प्रकट हुआ भक्तों की और बढ़ा। हम तो इसी फिराक में थे कि कब प्रसाद मिले, कब हम फारिग हों सो झट से सब के पीछे जा खड़े हुए। बारी आने पर हमारी अंजुरी में पडितजी ने जो छोड़ा वह प्रसादम नहीं बल्कि पुष्प थे। पुष्प पा कर भक्त-भक्तिन अब दुगुनी श्रद्धा भाव से गायन करने लगे। हम प्रसाद के चक्कर में उल्लू बन गए। कम से कम पंद्रह मिनट खड़े रहने की कवायद तो हमने जरूर झेली होगी। खैर, पुष्प समर्पण के बाद पुष्पांजलि सम्पन्न हुई। तब मैंने गौर किया कि भक्तगण अजीबो-गरीब हरकतें करने लगे हैं। कई अपना माथा फर्श पर ठोकने लगे तो कोई-कोई मंदिर की दीवार को अपने हाथों और सर से ठेलता सा दिखाई दिया। पुरुष महिलाओं का एक दस्ता अपनी ही रौ में मंदिर का चक्कर काटने लगा। छिटपुट भक्तों को तो शंकर भगवान अर्ध नौकासन जैसा कुछ कराते नजर आये। इस तूफानी सत्र की समाप्तिके बाद सब अपने-अपने स्थान पर लौट आये। एक सज्जन ने श्रद्धालुओं को कोई पर्चा बांटना शुरू किया तो हमें लगा कि लो, फिर आरती शुरू होगी! हमारी और बढाने पर हमने कहा-हमारे पास चश्मा नहीं है। पास बैठा मित्र मंद-मंद मुस्कुराया, धीरे से बोला- ले लो, ले लो, प्रसाद के लिए है। हम सोच रहे थे कि आरती की प्रति होगी, हर एक के वाचन के लिए- एक बार फिर से बन गए।
आखिरकार भोलेशंकर प्रसन्न हुए, प्रसाद वितरित हुआ। औरों की देखा-देखी हमने भी एक चिरोंजी दाना मुंह में डाला और बाकी की पुडिया बना कर जेब में रख ली। सोचा- जैसे गंडा या तावीज़ को खाया नहीं जाता, शरीर पर धारण किया जाता है वैसे ही प्रसाद को भी जेब में रखना ही शुभ होता होगा!... मंदिर से लौटते वक़्त हमने मन ही मन संकल्प किया कि आइन्दा मित्र के घर जायेंगे तो ध्यान रखेंगे कि वह दिन मंगलवार या बृहस्पतिवार हो।

Wednesday, May 19, 2010

सड़कों के सिकंदर

* कोई-कोई चालक इस अंदाज़ में गाड़ी चलाता है मानो स्वयं सिकंदर महान विश्व विजय के अभियान पर निकल पडा हो। अपने आगे चल रहे वाहनों को एक के बाद एक ओवरटेक कर पीछे छोड़ते वक़्त वह उसी अकड़, उन्माद और आनंद से भर उठता है जो एक चक्रवर्ती सम्राट छोटे-बड़े राज्यों को अपने राज्य में मिलाने और उनके शासकों को अपने अधीन करने पर महसूस करता है।
* कभी- कभी सड़क के बीचो-बीच पशु इस अदा से चलते हुए मिल जाते हैं गोया मिस इंडिया कंटेस्टेंट कैट वॉक पर निकले हों। पास आ कर होर्न बजने पर वे वैसे ही ठिठकते हैं जैसे सुपर मॉडल रैम्प के किनारे पर पलटने से पहले ठिठका करते करते हैं। हाँ! यह जरूर है कि ये ऐन वक़्त पर पलटने से इनकार कर देते हैं।
* कहीं- कहीं ज़रा अवस्था को प्राप्त हो कर सड़क अपना चोला ही छोड़ बैठती है। तब जिस प्रदेश में ट्रैफिक प्रवेश करता है उसे पीछे से देखें तो ऐसा लगे जैसे बाधा दौड़ धावक नियमित अन्तराल से हवा में उछल तो रहे हों मगर दौड़ न पा रहे हों अथवा कोई डोंगी समंदर कि लहरों पर बेबस सर पटक रही हो या फिर वाहन चालक जबरन ऊंट की सवारी का मज़ा लूट रहे हों।
* यदा-कदा भेड़ों का झुण्ड सड़क के एक ओर आपके सामने की तरफ से आ रहा होता है कि उसके लीडरान एकाएक सड़क पार करने का फैसला कर बैठते हैं। तब आमने सामने के वाहनों को उन्हें उतने ही सम्मानपूर्वक गुजर जाने देना पड़ता है जितने सम्मान से आम आदमी को मंत्रियों के लालबत्ती धारी गाड़ियों के काफिले को गुजर जाने देना होता है .
* कुछ खास सड़कें, जिन्हें लाड से बौंड सड़कें या बी आर टी एस सड़कें भी कहा जाता है सुगठित देहयष्टि वाली, धुली-पुंछी और लिपी-पुती होती हैं। इनका उपभोग करने पर आपको नाके पर महसूल (टोल) चुकाना पड़ता है। इसके उलट कुछ पहुँच मार्ग इस कदर ऊबड़-खाबड़ और जर्जर होते हैं कि आपका और आपके वाहन दोनों का भरपूर उपभोग कर लेते हैं।
* बीच-बीच में कबीरा के ज़माने की एकाध बेहद संकरी पुलिया मिल जाती है जिसमे दो (वाहनों) का समाना मुमकिन नहीं होता। लिहाज़ा पहले पार करने की जुगत में दोनों तरफ से आगे बढ़ आये चालकों की बीच पुलिया के मुठभेड़ हो जाती है। गुर्राहटों के समापन के बाद जिस पक्ष को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ता है वह खुद को पराजित जनरल सा लज्जित, पतित एवं कलंकित महसूस करता है।

Monday, May 17, 2010

पडौसी जनम जनम के

वे दोनों अगल-बगल के नहीं अपितु उर्ध्वाधर अर्थात ऊपर नीचे के पडौसी थे। सरहदरुपी छत जो कि दूसरे के लिए फर्श थी, उन्हें अलहदा करती थी। वे एकदम पाठ्य-पुस्तकीय यानि आदर्श किस्म के पडौसी थे जो जरूरत- बगैर जरूरत पडौसी धर्म निभाने पार उतारू रहते थे। मसलन झड़प की हुड़क चढ़ने पर अंग्रजों की तरह एक पडौसी का सात समंदर पार जाना दूसरे के लिए धिक्कार की बात थी। उनका फलसफा था कि हाथ भर पर कुआँ हो तो नहाने के लिए मानसरोवर क्यों जाया जाये?
सह अस्तित्व की भावना तो उनमे कट्टरता की हद तक कूट-कूट कर भरी थी, जिसका मतलब है कि वे एक दूसरे के बिना सुख चैन से नहीं रह सकते थे। अब यही देखिये यदि एक की नींद उचट रही हो, तो क्या मजाल है जो दूसरा झपकी भी ले ले। ऊपर वाले जब बच्चे को मेज-रुपी तबले की थापों पर बहला कर सुला चुकते तो पूर्ण चेतनता को प्राप्त नीचे वाले दीवारों में कील ठोकने लगते या दरवाजों की कुण्डियाँ दुरुस्त करने में जुट जाते। रात के चौथे पहर तक कुछ इसी तरह की जुगलबंदियां चलती रहती। पौ फटने के करीब नींद लगने की मजबूरी ही दोनों थोकों को खामोश करा पाती।
उनका आपसी भाई-चारा भी बेमिसाल था। अच्छे पडौसियों की तरह उनमे तरह-तरह की वस्तुओं का विनिमय सदैव चलता रहता था। खास बात यह थी कि वे संताक्लॉज की तरह एक दूसरे का छुप-छुप कर भला नहीं करते थे वरन दिन-दहाड़े, डंके की चोट पर ऐसा करते थे। एक अगर पोछे और साबुन के गंदे पानी से दूसरे को अर्घ्य देने से बाज नहीं आता तो दूसरा कचरे की होली जला कर अपने प्रिय पडौसी को फोगिंग मशीन की मुफ्त सेवाएं देने पर तुल जाता।
अब दिलजले मोहल्लेवालों की न कहिये जो इनकी प्रीत से बेतरहा फुंकते थे। ये जहाँ-तहां उड़ाते फिरते कि उपरी मंजिल वाले नीचे आँगन को पीकदान या कचरापेटी जैसा कुछ समझते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि ऐसा कुछ भी नहीं था। दरअसल वे तो गले की खंखार, नाक का नजला, कटे नाखून, फलों के बीज आदि हवा में उछालते भर थे जो गुरुत्वाकर्षण की गलती से जमीन पर जा टपकते थे। इसी तरह ऊपर वालों के हिस्से का पानी मोटर से खीच कर भूतल वाले यदि अपने बगीचे को सींच भी लेते तो कोई भी आसमान टूट कर नहीं गिरता, आखिर वे प्राकृतिक छटा और ठंडी घनी छाया को तो बाँध कर नहीं रखते, पडौसी को भी जी भर कर मज़ा लूटने देते थे।
दोनों प्रतिदिन भगवान से यही मनाते हैं कि अगले सात जन्मों (नहीं, छः या आठ जन्मों) में भी एक दूसरे का पडौसी ही बनाये - बस बारी बारी से मंजिल की अदला-बदला करता रहे। इति।

Wednesday, May 12, 2010

ठंडी राख़

वे गत तीन महीनों से निलंबित चल रहे थे। मिलने पर हमने सहानुभूति जतानी चाही, कहा-आपके साथ बड़ा अन्याय हुआ! उपदेश की मुद्रा में बोले- जो भी होता है भले के लिए ही होता है। उत्तम शिष्य की भांति हमने जिज्ञासा प्रकट की, 'भला निलंबन से आपका क्या भला हुआ होगा?' बोले- मुझमे धैर्य नहीं था, इस वाकये से मैंने धीरज धरना सीखा। हमने कहा- ठीक है मगर आपको धीरज नहीं धरना चाहिए, बल्कि लड़ना चाहिए। 'क्या होगा लड़ कर?', उन्होंने प्रति प्रश्न किया। 'आपके दुश्मन जिन्होंने आपको फंसाया है उन्हें सबक मिलेगा , और क्या!' वे पुनः सूफियाना अंदाज़ में बोले-सच कहूँ मुझे कोई दुश्मन ही नज़र नहीं आता। हर कोई दोस्त ही दीखता है। हम पर उत्तर की गुंजायश ही न बची।
एक रोज़ रास्ते में टकर गए। हाथ में झोला था, शायद सौदा-सुलफ लेने जा रहे थे। हमने उत्साह में भर कर कहा, 'बधाई, आपकी बेटी का प्लेसमेंट हो गया।' सुन कर नहीं लगा कि उनके मुख मंडल पर पौ जैसा कुछ फटा हो या उनके अन्दर भी कहीं कोई बांछे खिली हों अथवा उनके शरीर के आयतन में जरा भी इजाफा हुआ हो। बराबर मुरझाये से बोले- प्लेसमेंट से क्या होता है, अपॉइंटमेंट लेटर मिले तब न । 'समय आने पर वह भी मिल जायेगा', हमने तसल्ली दी। ' आजकल कम्पनियाँ प्लेसमेंट तो कर लेती हैं पर नियुक्ति पत्र नहीं देती', उन्होंने रोना रोया। खैर हमने हिम्मत नहीं हारी, फिर पूछा - और आपका बड़ा बेटा कौन सी कंपनी ज्वायन कर रहा है, उसे तो अपॉइंटमेंट लेटर मिल गया न? 'पता नहीं, ये तो वही जाने।' हमने हैरत से कहा, 'आपने पूछा तो होगा?' 'नहीं भाई हम नहीं पूछते।' 'अच्छा उसने तो बताया होगा?' 'ना, उसने भी नहीं बताया। उसकी जिंदगी, वो जहाँ चाहे जाए-हमें क्या?' मैं सिहर उठा। इससे पहले कि मैं खुद राख़ के ढेर मै बदल जाऊं, मैंने वहाँ से खिसकने में ही भलाई समझी। उसी क्षण मुझे यह भी इल्हाम हुआ कि लोग ठंडी राख़ को नदियों में क्यों प्रवाहित कर देते हैं।

Friday, May 7, 2010

दो लघु व्यंग्य

रेलवे क्रॉसिंग
फाटक के बंद होते ही सड़क के समूचे फाट पर दोनों तरफ तरह-तरह के वाहनों की कतारें लग गयी। ऐसा लगने लगा मानों पानीपत में युद्ध के लिए विरोधी सेनायें एक दुसरे के सामने आन डटी हों। अगरचे रेलगाड़ी अभी पूरी गुजरी भी नहीं थी कि एकाएक दोनों ओर से दुन्दुभियों और रणभेरियों की कर्कश चिंघाड़ों से धरती थर्रा उठी, आसमान कांप उठा। इससे पेश्तर कि फाटक उठ कर आसमान की ओर ताकता, आमने सामने की गाड़ियाँ बड़ी तबियत के साथ एक दुसरे से गुत्थमगुत्था हो गयी। इस जंगी भिडंत में दूर -दूर तक न कोई कायदा नज़र आता था न दस्तूर। लिहाज़ा कहीं पैदल टुकड़ियां घुड़सवार दस्तों में जा धंसी थी तो कहीं हाथियों के दल पैदल सैनिकों से चौतरफा घिर गए थे। फिर तो वो घमासान मचा कि क्या कहने! घंटों बाद ही मंज़र साफ हो सका।
पंछी नील गगन के
वे महाशय दफ्तर के बाबू थे कोई अम्पायर नहीं, जो पहली से आखिरी गेंद फेंके जाने तक मैदान पर खड़े रहने को अभिशप्त हों और ही मजबूर कि ड्रिंक्स के समय जल ही लें या लंच तभी लें जब लंच इंटरवल होवे नौकर जरूर थे मगर सरकार के, सो खुद मुख्तार थे , मालिक थे

Tuesday, April 27, 2010

मुंह दिखाई की रस्म

दो दिन की भर्ती के बाद अस्पताल से विदाई ले कर हमने घर में कदम रखा ही था कि धमकाने वाले फोन आने शुरू हो गए। शाम तक कई रिश्तेदार बारी-बारी से हमे फटकार लगा चुके थे कि हमने इंश्योरेंस वालो को खबर करने की हिमाकत तो कर दी मगर उन्हें बताने की जरूरत तक नहीं समझी। हमने उन्हें आश्वस्त किया कि अगली दफे समय रहते ही शुभेच्छुओं की वर्ण-वार सूची तैयार रख छोडूंगा और अस्पताल में थोड़े लम्बे अरसे तक भर्ती रहूँगा ताकि किसी को भी शिकायत का मौका न मिल सके। ...आज मेरी हालत में काफी सुधार था, चाहता तो ड्यूटी पर जा सकता था किन्तु मैंने दो एक रोज़ छुट्टी और बढ़ा कर मरीज़ बने रहने का फैसला किया जिससे मुलाकाती जो हैं वे निराश न हों और अपनी सुविधानुसार दर्शन लाभ ले सकें। अस्पताल के बस्ती से दूर होने के कारण कई मित्र गण वहाँ पहुँच पाने में असमर्थ रहे थे, मेरी अब यही कोशिश है कि धर्म निभाने में मैं उनकी पूरी मदद कर सकूँ। सोचता हूँ कि शादी ब्याह के समय डबल दावत रखने की परंपरा के पीछे भी दूसरा मौका देने की यही मंशा रही होगी कि जो सज्जन किंही कारणों से पाणि ग्रहण में शरीक न हो सके हों वे रिसेप्शन में हो लें। ...बहरहाल सरे शाम हम बेडरूम छोड़ कर बैठक में लाये जाते। फिर तो चिंतातुरों के सवालों के जवाब देते देते हांफ उठते। मुलाकातियों के रात्रि-विश्राम का समय होने पर ही हमे बिस्तर नसीब हो पाता।

Sunday, April 11, 2010

रिपोर्ट क्या कहती है?

एक औसत मरीज़ या उसके परिजनों को डॉक्टरों के बिना (या बावजूद) कैसे पता लगे कि उसकी एम् आर आई या सोनोग्राफी की रिपोर्ट क्या कहती है? जवाब है- उसी तरह जैसे ठेठ देसी दर्शकों को पता चल जाता है की अंग्रेजी फिल्म कैसी रही, चाहे उन्हें 'थेंक यू', 'हेलो', या 'बाय' सरीखे दो चार शब्द ही पल्ले क्यों न पड़े हों। हाँ, फर्क सिर्फ इतना है कि वहाँ फ़िल्मी तस्वीरें बोलती है, मगर रिपोर्ट के साथ इनायत फरमाई गयी फोटो आपकी बोलती को बंद कर देती हैं।
अव्वल तो यह देखिए कि छापा हर जगह इकसार सा है या नहीं! फिर राह में आगे अगर कहीं कुछ शब्द अकडू-फकडू दिखें (केपिटल) या फिर थोडा बांकपन लिए मिलें और इतराए इतराए से फिर रहे हों (इटेलिक्स), तो समझो कुछ न कुछ खास बात जरूर है। इसी तरह कुछ लफ़्ज़ों के पिछवाड़े तले सीधी सतरें खीच कर उन्हें औरों से अधिक तवज्जो अता की गयी हो (अंडरलाइन) या उनकी चाल में गर्भवतियों का सा भारीपन आ गया हो (बोल्ड) तो जान लीजिये कि रिपोर्ट में कुछ तो गड़बड़ है। बदकिस्मती से लाल, नीली या हरी स्याही अगर छुटपुट उपयोग में ली गयी हो तो फिर पक्का समझिये कि यह रिपोर्ट भी परीक्षा में फेल बच्चे की रिपोर्ट की ही तरह खराब है।
अब मजमून पर आयें जिसमे आपको अंग्रेजी अक्षर A, B, C आदि या अक्षरों के झुण्ड,अंकों - 32, 34, 36, 6,7, 8 वगैरह की सोहबत में दिखेंगे । बीच-बीच में ग्रीक अथवा रोमन भाषा के कई कई हरूफ भी मिलेंगे जिन्हें प्राचीन विदेशी विद्वान् प्रयोग में लाया करते थे। कुल मिला कर रिपोर्ट का एक भी सुराग आपके हाथ नहीं आएगा। मगर ठहरिये! हिम्मत मत हारिए। समझ में न भी आये तो भी पढ़ते जाने पर भी लाभ होगा। वाक्यों के आखिरी छोरों पर पाए जाने वाले शब्द अगर 'इज नोट सीन', 'इज क्लियर', 'एपियर नार्मल', इज अन रिमार्केबेल' किस्म के हों तो बस डरना छोडिये, आपकी रिपोर्ट एकदम बढ़िया है।

Saturday, March 27, 2010

खंड खंड व्यंग्य

एक पोरट्रेट
उनकी सफाचट चाँद पर इने-गिने बाल इस जतन से रखे गए प्रतीत होते थे मानो पश्चिम दिशा से खोपड़ी के गोलार्ध पर अक्षांश रेखाएं पूर्व की ओर चली गयी हों।
रचना कर्म
रचना कर्म खुजाने की तरह है। जब तक खुजा न लो, चैन नहीं पड़ता, वैसे ही जब तक लिख न मारो, करार नहीं आता। ...जब खुजली हदों को पार कर जहाँ-तहाँ फूटने लगे, समझो कि लेखक साहित्यकार हो गया।
उपवासी
व्रत उपवास करने वाले निराहारी नहीं बल्कि भिन्न आहारी होते हैं, उसी तरह जैसे विकलांग 'डिफरेंटली एबल्ड' होते हैं, 'डिसेबल्ड' नहीं.
फॉरप्ले
पत्रिका खरीदते ही हम उस पर टूट कर नहीं पड़ते बल्कि वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसे कोई शेर करता है। वह शिकार को खाने से पूर्व उसके साथ खेलता है, उसे चाटता है, सहलाता है उसी भांति हम भी कभी पन्ने पलटते हैं, कभी इनडेक्स देखते हैं, तो कभी यहाँ वहाँ टटोलते हैं।
गप्पी
रन लेने दौड़ पड़े खिलाडी रन लेना भूल कर बीच विकेट के बातों में लग जाएँ।
प्रयोगशाला
कपाल के बीचो-बीच से शुरू हो कर नाक के पठार से होती हुई ठुड्डी के मध्य बिंदु को मिलाने वाली रेखा के एक तरफ का क्षेत्र .......जिधर विज्ञापित रेज़र से शेव करने के बाद सुंदरियाँ लिपट-लिपट जाएँ।
आश्रित
पत्नी, बच्चे, बीमारी।
सूचना
यहाँ हर तरह का श्रृंगार किया जाता है.....काया पलट नहीं।
डायपर
बच्चे का अटेच्ड टायलेट, मम्मी का एम्पावरमेंट।
भगवान का परफार्मेंस क्वोशेंट
माना मनोकामनाओं की कुल संख्या अथवा भक्तों पर आन पड़े संकट=
मन-वांछित फल प्राप्त अथवा संकट मोचित= ब
भगवान का परफार्मेंस क्वोशेंट = ब /अ

Friday, March 19, 2010

जब हमने चाकू चलाया

जाने हमें कौनसे पालतू कुत्ते ने चाटा था जो हम अपने मित्र एवं मेजबान, जिनकी पत्नी हाल ही में मायके प्रस्थान कर गयी थी, के सामने रसोई कार्य में हाथ बंटाने का प्रस्ताव रख बैठे। तुरंत प्रस्ताव मंजूर कर उन्होंने काटे जाने वाले मद एक तश्तरी में रख कर हमारी ओर बढ़ा दिए। फिर जो औजार उन्होंने हमारे हाथ में थमाया उसकी धूसर सतह पर पड़े काले भूरे चकत्तों को देख कर मालूम पड़ता था गोया वह मोहनजोदड़ो या हड़प्पा के ज़माने का हो व उत्त्खनन से प्राप्त किया गया हो। मेरे मित्र उसेचाकू कह रहे थे, मगर चाकू समझ कर उस पुरातात्विक नमूने के साथ बेइंसाफी करने को मेरा मन नहीं मान रहा था। फ़र्ज़ करो वह चाकू ही था, तो कोई सिद्ध पुरुष भी यह सही-सही कह सकने कि स्थिति में नहीं था कि वह किधर से उल्टा है, किधर से सीधा अथवा उसके किस हिस्से को मूठ कहा जाए, किस को धार। जिस तरह 'श्रीराम' नाम लिख कर समुद्र में फेंकने से शिलाएं तैरने लगी थी, प्रस्तुत यंत्र को 'चाकू' नाम से पुकारने पर वह चल निकलेगा, कुछ ऐसे ही चमत्कार की उम्मीद हम भी कर रहे थे। किन्तु बारी-बारी चारों तरफ से इस्तेमाल की लाख सर-पटक कोशिशों के बाद भी आलू व प्याज अक्षत ही रहे, यानि दो टुकड़ों में भी तब्दील न हो सके। ताज्जुब हुआ कि आखिर घर के लोग इससे किस तरह काम लेते रहे होंगे? उसी क्षण हमें अहसास हुआ कि आखिर तजुर्बा क्या होता है! यह भी कि अभ्यास हो तो काटने के लिए किसी चाकू, छुरे अथवा दरांते की भी जरूरत नहीं होती, बल्कि चीजें वैसे ही 'रसरी आवत जात' की तर्ज पर खुदबखुद कट जाती हैं।
हर किसी में चाहे सौ नुक्स हों, एक न एक सिफत जरूर होती है। इस तथाकथित चाकू में भी एक बड़ा भारी गुण था। यह उस दुर्लभ प्रजाति का वारिस था, जो खरबूजे पर गिरे या खरबूजा उस पर, खरबूजे का कुछ नहीं बिगड़ता था। शरीफ खानदान के बेहद नेक चाल-चलन वाले इस उपकरण से पालक, ककड़ी, टमाटर आदि तरकारियों के साथ-साथ काटने वाले के हाथ भी सर्वथा सुरक्षित रह सकते थे। किसी-किसी गुमराह चाकू को झगडालू, शराबी पति के हाथों में आकर अपनी पत्नी की अंतड़ियाँ बाहर निकालते भी देखा गया है। लेकिन हमारे मित्र के चाकू में गलत हाथों में पड़ने की सम्भावना न के बराबर थी। बेशक यह 'चाकू' घास-फूस की तरह हानिरहित और अहिंसक था।
खैर, जैसे-तैसे हमने अपने मित्र को खींच कर घर से बाहर नाश्ता लेने के लिए तैयार कर लिया। रास्ते में मौका पा कर उनसे विनती की, 'बरखुरदार, इस तरह के औजार आज देश भर में इने-गिने ही रह गए हैं, सो इन्हें विलुप्ति से बचाना हम सबका दायित्व बनता है। अतः आप इसे इसकी सही जगह, राष्ट्रीय संग्रहालय पंहुचा दें तो यह बेजुबान आपको जी भर कर आशीष देगा, साथ ही साथ सम्पूर्ण राष्ट्र भी आपका चिर ऋणी हो जायेगा।'

Friday, February 12, 2010

पहचाना?-----पहचानिए, पहचानिए !-------.कुछ फुटकर पहचान परीक्षाएं

(१)
हैलो।
हैलो
पहचाना?
नहीं जी, पहचान नहीं पाया
पहचानिए---पहचानिए---कोशिश कीजिये।
की, मगर पहचान नहीं पा रहाआप ही बता दीजिये
बताएँगे तो हम नहीं--- पहचानना तो आपको ही पड़ेगा।
वैसे आपको बात किससे करनी है?
आपसे।
तो मेरा टेस्ट क्यों ले रही हो? बात करनी हो तो करो--वर्ना में फोन रखता हूँ!
()
हैलो।
कहिये जी
सर, में प्रीति बोल रही हूँ।
कौन प्रीति?
देखा, पहचाना नहीं न आपने?
हाँ भाई, नहीं पहचान पाया
अरे सर, में प्रीति हूँ--- आपकी स्टुडेंट!
कौनसी प्रीति?--प्रीति जोशी, प्रीति शर्मा, प्रीति नामदेव, प्रीति गुप्ता ---
ओफ्फोह, मैं आपकी इस साल की एम एड स्टुडेंट प्रीति बियाणी!
तो यूँ बोलो ना।
()
(कॉलेज के कोरिडोर में)
त्यागी साहब?
जी, बिलकुल
लगता है पहचान नहीं रहे?
हाँ, पहचान तो नहीं पा रहा
मैं मिसेस खान----पार साल मिली थी आपसे!
मुझसे, कहाँ?
आपके रूम में--ऊपर।
अच्छा,किस सिलसिले में?
आपको पुस्तकों की नमूना प्रति देने आई थी ---आगरा से।
ओह!
()
(घर के अहाते में)
नमस्ते।
नमस्ते
पहचाना?
एम एड में दाखिला लेने आये हो?---बी एड कौन से साल में किया था?
हा-- हा--दाखिला---बी एड --हा हा --
अरे, तुम तो चन्दर बोस हो!---पूरे बीस साल बाद--यहाँ? अचानक
हाँ, एक शादी में आया था। गाँव से पता ले लिया था --सोचा मिलता चलूँ!
()
हैलो
नमस्ते सर।
नमस्ते जी, बोलिए
पहचाना सर?
नहीं भाई, नहीं पहचाना, कौन बोल रही हैं?
सर, मैं मीनाक्षी।
कौन मीनाक्षी?
अरे सर, आप तो भूल ही गए!
आप इंदौर से बोल रही हैं?
नहीं, इलाहाबाद से।
इलाहाबाद से कौन मीनाक्षी?
सर, मैं आपके स्टुडेंट आनंद बिस्वास कि पत्नी---याद नहीं, आप हमारे बेटे के जन्म दिन में आये थे?
अच्छा, अच्छा!



Wednesday, February 3, 2010

ठिठुरन के वो रात दिन

क्या दिन थे वो?...कड़ाके की ठण्ड थी। शौच के बाद करंट मारता पानी एक वैश्विक सोच उत्पन्न करता प्रतीत हो रहा था। पश्चिम के ठंडे देशों में टायलेट पेपर के चलन का राज़ खूब समझ में आ रहा था। उन दिनों हमें एक और इल्हाम हुआ- यही कि अँगरेज़ हाकिमों द्वारा लगाए जाने वाले हैट (कनटोप) के अविष्कार के पीछे भी यकीनन सर्दी ही रही होगी। भारी शीत के चलते टोपी को कानो पर मोड़ कर हजामत बनाने वाले किसी मजबूर ने ही इसके इजाद कि प्रेरणा दी होगी। मन और समय को मार कर सुबह सैर पर निकले तो रोज़ दिखने वाले बुजुर्ग आज लदे फदे ऐसे लग रहे थे मानो हवाखोरी को नहीं बल्कि गोताखोरी को निकले हों, या फिर किसी दूसरे गृह के वासी धरती पर उतर आये हों। सैर से लोटते हुए झोंपड पट्टी के बाहर एक बच्चा रोता दिखाई दिया, जिसके आंसू जम कर सचमुच के मोतियों कि शक्ल में झर रहे थे। बस स्टैंड पर एक पोस्टर चिपका मिला। पता चला कि सर्कस के पहले शो में एक खास आईटम दिखाया जा रहा है। दर्शक जोकर के नाक के भीतर बह रहे तरल पदार्थ को अवस्था परिवर्तित कर हिमप्रपात के रूप में देखने को उमड़े पड़ रहे थे। दूसरी तरफ पार्क में एक अलग ही नज़ारा था। कुछ नटखट बच्चे फूँक से बर्फीले तीर छोड़ कर एक दुसरे को घायल करने पर तुले थे।
दिन चढा। हाड़ कंपकंपाती हवाएं, हुडदंगी कार्यकर्ताओं की तरह जबरन शहर बंद कराने को चौराहा-चौराहा गश्त लगाती घूम रही थी। सर्द हवाओं के खौफ़ से सूरज भी बादलों के मोटे लिहाफ में जा दुबका था और कभी-कभी ही मुँह उघाड़ कर धरती की तरफ झाँकने की हिम्मत कर पा रहा था। ज्यादातर लोग घरों में क़ैद थे। पानी परोसने पर संयोग से आये आगंतुक ऐसे बिदकते थे गोया हाइड्रो फोबिया के शिकार हों।
अपनी सेहत पर तो यह जाड़ा कहर ही बरपा रहा था। नजला था कि ऐसा नाजिल हुआ कि दोनों कानों के अन्दर अभूतपूर्व घना कोहरा सा छा गया। ओडिबिलिटी नियर जीरो हो गयी। पूरा वजूद कान बना देने के बावजूद हाथ भर की दूरी पर बैठा आदमी भी ढंग से न सुनाई पड़े। कई बड़े-छोटे हादसे भी होते-होते रह गए। ऐसा ही एक वाकया सुनाएँ - एक महिला ने सड़क पर हमसे मिल का रास्ता पूछा, हम उसे दिल का रास्ता बताने लगे। ...बस पिटते -पिटते बचे।
जैसे-तैसे दिन बीता। रात को बिस्तर पर पहुंचे तो लगा कोई शरारती तत्व चुपके से अभी हाल में बिस्तर पर पानी बिखरा गया हो। रजाई में भी हर तरफ सुराख़ दिखने लगे, तमाम हिकमतों के बाद भी जिनसे रिस कर हवा अन्दर आना बंद नहीं हुई। जब लगने लगा कि अभी अभी मीठी नींद आई है, तभी कमबख्त सुबह हो उठी।

Saturday, January 23, 2010

योग के अश्वमेध का घोडा

वह जड़ी-बूटियों का जमाना था, यह योग का जमाना है। हो तो यह भी सकता है कि यह जमाना जड़ी-बूटियों का भी हो, योग का भी -एक साथ। वैसे ही जैसे यह जमाना जेट का भी है, बुग्गी-झोटा का भी; विज्ञान का भी है, गंडा -ताबीज का भी; कटर बम बरसाते अमरीका का भी है, शांति दूत ओबामा का भी; जन के तंत्र का भी और महामहिमों का भी। जमाने की छोड़, अपनी कहूँ तो मैं योग का भयंकर कायल हूँ। इस शास्त्र की महिमा मैंने योग अनुरागियों से चतुर्दिक घिर कर परास्त भाव से नहीं, बल्कि स्वयं पर प्रयोग करने के उपरान्त ही कुबूली है। संस्कृति और धर्म-ध्वजा की कसम उठा कर आज मैं यह सत्य प्रकट करता हूँ कि योग-दीक्षा लेने के बाद मेरा किसी भी तरह के परहेज में कोई यकीन नहीं रह गया है। अब मैं बेखटके कुछ भी, कितना भी खा सकता हूँ, हाँ! खाने के तुरंत बाद वज्रासन की मुद्रा में बैठ जाता हूँ। ......जितना भी खाओ योग से पचाओ। मेरी सहधर्मिणी भी थाली में छप्पन भोग सजाती है, बस सत्तावनवीं योग की पाचक टिक्की अवश्य रख देती है। योग खाली भोग के लिए नहीं है, यह एक जबरदस्त दिमागी खुराक भी है। निदा फ़ाज़ली ने कहीं लिखा है, ' सिर्फ़ मेहनत से सवाल हल नहीं होते, थोड़ा नसीब भी इम्तेहान में रखना'। निश्चित ही निदा साहब योग विद्या से वाकिफ़ नहीं थे। ....रहे होते तो कहते- थोडा योग भी इम्तेहान में रखना।
योग के प्रताप से रोग के उपचार का तो मेरा जाति अनुभव है। जब भी मेरी नाक बहती है में बेतहाशा अनुलोम-विलोम शुरू कर देता हूँ, अस्थमा का विकट दौरा पड़ने पर में भ्रस्तिका के हजार-हजार दंड पेल देता हूँ, माइग्रेन का दर्द उभरने पर मैं उसे कपालभाति से झटक बाहर फेंक देता हूँ। मैं ही क्यों, मेरे कुछ करीबियों का तो यहाँ तक कहना है कि ध्यान लगाने से उनके पैर की बढ़ी हड्डी वापस अपनी जगह फिट बैठ गयी, कैंसर-ग्रस्त कोशिकाएं विभाजित होते-होते पहाड़ा ही भूल गयी, उनकी सफाचट खोपड़ी पर काले बालों की फसल लहलहा उठी तथा सामने के दो-तीन दांत गिरते ही अपनी जगह फिर से उठ खड़े हुए।
सो, योग की महानता पर मुझे तो रत्ती भर भी संदेह नहीं है, किन्तु कोई नागरिक इसकी तरफ ऊँगली उठाये यह मुझे हरगिज गवारा नहीं। लिहाज़ा लोकहित में मैं कुछ शंकाएँ बिना पैसे खाए उठा रहा हूँ ताकि योग के अश्वमेध का घोडा पकड़ने की जुर्रत कोई न कर सके।
  1. शर्तिया लड़का पैदा कराने का नीम -हकीमों का दावा सदा से स्त्रियों को लुभाता रहा है। ऐसी स्त्रियाँ क्या योग की शरण में आ या जा सकती हैं? उनके लिए कौन सी योग-क्रियाएं उपयुक्त रहेंगी? एक बात और... क्या गर्भवती हो जाने के बाद भी आसन साधने से कुछ फ़ायदा होगा?
  2. क्या योगासनों से आत्म-उन्नति के साथ-साथ पर-प्रभाव भी पैदा किये जा सकते हैं? हाँ, तो कर्ज में डूबे किसानों के लिए कौन सी ध्यान विधि ज्यादा हितकारी रहेगी जिससे वसूली को भेजे गए गुण्डे डंडे की टेक पर राम धुन गाने लगें?
  3. कई पद्धतियों में जवानी के दिनों में की गयी भूलों की वजह से आई उत्साह में कमी को दूर करने के ढेरों उपाय सुलभ हैं। क्या योग में भी वही चमत्कारिक शक्ति है?
  4. भट्टों पर ईंट ढोते मजदूर, पौ फटने के पहले से ही खेत जोतने में जुते हाली और तड़के से धुर रात तक काम में खटती बाई को पद्मासन में बैठ कर कौन ध्यान लगाने देगा?...तो क्या यह माने कि यह तबका आत्मिक उद्धार का अधिकारी नहीं है?
इन शंकाओं का निवारण होते ही चक्रवर्ती योग की कीर्ति दसों दिशाओं में फैल जायेगी। इति।