Wednesday, May 24, 2017

बिछड़े सभी बारी-बारी


आज दो और रिटायर हो गये. हो क्या गए, कर दिये गये! कम्पलसरी रिटायरमेंट!! यह तो होना ही था क्यूँ कि इन दोनों की, जिनमें एक ऊपर का तो दूसरा नीचे का था, रोज-रोज शिकायतें मिल रही थी. अपना तय काम ठीक से न कर पाना, ऊपर से पूरे महकमे को तकलीफ पहुँचाना! आखिर मजबूरन कडा फैसला लेना पड़ा और इन दोनों को उखाड बाहर फेंक दिया गया.

यूँ पहले भी समय गुजरने के साथ-साथ कई दूसरे दांत अपनी अधोवार्षिकी पूर्ण कर ख़ुद ब ख़ुद रिटायर होते चले गए. उनके चले जाने से खाली हुई जगह वैसे ही नहीं भरी जा सकी जैसे कालेजों/ विश्वविद्यालयों में वर्षों से नयी नियुक्तियां नहीं होने से खाली पद नहीं भरे जा सके. खैर, किस्सा मुख़्तसर यह कि वे दिन अब इतिहास हो गए जब हम एक सिरे से शुरू कर दूसरे सिरे तक यूँ ब्रश किया करते थे गोया कोई मिस्त्री दरो-दीवार पोत रहा हो. अब तो आलम यह है कि अगर ब्रश करते देखो तो यूँ लगेगा मानों किसी मंदिर के मेहराबों की रंगाई पुताई चल रही हो.

थोडा पीछे की तरफ नज़र डालें तो पता चलता है कि सामने नीचे के दो दांत जो सीनियरिटी में सबसे आगे थे वे सबसे पहले कूच कर गए थे. उनके जाने के वियोग ने आसपास वाले दांतों को अन्दर तक हिला कर रख दिया. लिहाज़ा वे भी रुखसती पर आमादा हो गए. नतीजा यह हुआ कि पैदा हो गयी खाली जगह को ठेके पर भर्ती की तरह कामचलाऊ दांतों (डेन्चर) से भरवाना पड़ा.

अब तो बचे हुए इने गिने दांत भी जिस रफ़्तार से साथ छोड़ने को तैयार बैठे हैं, उसे देख कर यह लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब मुंह के अन्दर का पूरा इलाका कबड्डी का मैदान नज़र आने लगेगा. तब हमारे सामने दो एक रास्ते ही बचेंगे. या तो हमें पैग की माफ़िक खाना आहिस्ता-आहिस्ता सिप करने की आदत डालनी होगी या फिर भोजन को सीधे ही हलक से नीचे उतारने को अजगरी  सीखनी पड़ेगी.


हाँ, एक विकल्प और भी है!...यही कि काटने, चबाने और बोलने समेत सभी काम पूरी तरह आउटसोर्स कर दिए जाएं!!   

Wednesday, May 3, 2017

आए जो अज़ाब आए


अच्छे भले चले जा रहे थे। रामपुर तिराहा आ चुका था। मंजिल अब बस पचासेक किलोमीटर दूर रह गयी होगी कि सड़क पर लगे बेरिकेड ने रास्ता रोक लिया। पुलिस जवान ने बताया आगे मीलों लंबा जाम लगा है। फिर इशारा करते हुए सलाह दी, “इधर से देवबंद होते हुए निकल जाइए।” क्या करते... कुछ पल  झल्लाने के बाद आखिर हमने ड्राइवर को बताई गयी दिशा में गाड़ी मोड लेने को कह दिया! अब दो बैलों की कथा में झूरी के हीरा-मोती की तरह अपनी गाड़ी अनमनी सी अनजान राहों पर निकल पड़ी। खेत-खलिहान के बाद देता और पथुआरों के किनारे से गुजरती हुई अपनी गाड़ी एक नामालूम से गाँव में प्रवेश कर गयी। यहाँ हम दिलकश नजारों से दो चार थे- घेर के बाहर खाटों पर हुक्का गुडगुड़ाते ताऊ लोग, और संकरी गलियों के वो गज़ब अंधे मोड!....कहीं-कहीं तो अपने में से किसी एक को नीचे उतर कर ट्रक के क्लीनर की माफ़िक गाड़ी को सही सलामत मुड़वाना पड़ता! खैर दो तीन गाँव निकलने के बाद हाइवे आ गया।

हाइवे क्या था, गाँव की सरहद वाली चक-रोड से भी गया गुजरा था.... काफी हद तक  खाईखेड़ी के गौहर से मिलता जुलता! तभी सामने से एक कार आती दिखाई दी, यूं लगा मानों गर्दो गुबार की कोई लपलपाती हुई सुनामी सब कुछ लीलती हुई हमारी जानिब बढ़ी चली आ रही हो। ड्राइवर का तो पता नहीं उसने क्या किया मगर हमने दहशत से अपनी आँखें मूँद ली! कुछ लम्हों के बाद जब आँखों के सामने धुंधले-धुंधले दृश्य उभरने लगे उस वक़्त ही हमें यकीन हो पाया कि वाकई हमारी खोई हुई सुध-बुध लौट आई है। फिर तो कोसों तक यही राम-धुन दुहराई जाती रही। तब सपाट रास्ते पर कुछ काले-काले धब्बे दिखाई देने शुरू हुए तो खटका हुआ कि कहीं सड़क पर्व तो शुरू नहीं हो गया। कुछ आगे बढ़ने पर महसूस हुआ जैसे हमारी गाड़ी एक बेबस डोंगी की तरह किसी भयंकर तूफान की चपेट में जा फंसी हो। लगातार लग रहे थपेड़ों की वजह से अक्सर यह होता कि कभी हम बगल वाले की गोद में जा गिरते, तो कभी बगल वाला हमारी पीठ के ऊपर विराजमान हो जाता। इधर पेट का पानी जो है वह हिल-हिल कर मट्ठा हुआ चाहता था... उधर अपने ब्लैडर का ढक्कन गाड़ी के ब्वायलर के ढक्कन की तरह लगता था कि निकल कर अब गिरा कि अब गिरा। हम बेहद डरे हुए थे...लग रहा था कि कहीं हिचकोलों में झूलते रहने के कारण पेट के अंदरूनी हिस्सों मसलन जिगर और गुर्दा, आमाशय और तिल्ली आदि ने अपनी-अपनी जगह आपस में न अदल-बदल ली हो! यही सोच कर मुसलसल हलकान हुए जा रहे थे कि खुदा ना खास्ता, अगर बायीं किडनी दायीं तरफ वाले घर जा बैठी और दायीं वाली बायेँ बाजू पहुँच गयी तो हमारा क्या होगा! आखिरकर वो घड़ी आ ही गयी जब हमने उस तवील सुरंग से बाहर आ कर खुले में सांस ली। अब गाड़ी की चाल देख कर ऐसा लग रहा था मानों कूदती फाँदती शोर मचाती भागीरथी मैदानों में पहुँच कर प्रौढ़ा गंगा की तरह बहने लगी हो...जैसे खूनी कलिंग जंग के बाद सम्राट अशोक बुद्ध की राह पर चल पड़ा हो!!

ड्राइवर ने बताया कि करीब आधे घंटे में ठिकाने लग रहे हैं। मगर चूंकि ड्राइवर पर से हमारा यकीन तब तक पूरा उठ चुका था सो एक पंजाबी ढाबा नजर आते ही हमने जुआ डाल दिया। फौरन से पेशतर हमने अपनी पसंदीदा साग भाजी तो बाकी लोगों ने उनका दिल-अज़ीज़ बकरा ऑर्डर किया। अब वे एक तरफ तर और अर्द्ध तर माल सूँतते जा रहे थे तो दूसरी तरफ बकरे की अस्थियों को एक सफ़ेद तश्तरी में भी संचित करते जा रहे थे। यह रस्म देख कर ऐसा मालूम होता था गोया आगे पड़ने वाली गंग नहर में उन्हें प्रवाहित कर वे बकरे की मृत आत्मा को शांति प्रदान करने की योजना बना रहे हों। जहां अनेक लावारिस इंसानी लाशों को ढंग का क्रिया क्रम भी नसीब नहीं हो पाता वहाँ उस अनाम बकरे के इस सौभाग्य पर मुझे रश्क़ हो उठा। खैर लंबी डकार के बाद वे हाथ धो कर लौटे तो हमें ढाबे के बाहर पाया। बोले- अरे!, आपने हाथ नहीं धोये! हमने कहा हमने बकरा थोड़े ही खाया है, खाली घास-फूस को छूने पर क्या हाथ धोना!

अब उनके पेट में बकरा था तो जहन में बेफ़िक्री! गो कह रहे हों कि आगे रहगुज़र में आए जो भी आफ़ात आए।  मंजिल का क्या है, जब आए तब आए...बतर्जे आए कुछ अब्र कुछ शराब आए, उसके बाद आए जो अज़ाब आए’!!