Saturday, July 23, 2011

वो क़यामत का दिन... यानि हमारा जाना दांतों के डॉक्टर के पास

कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है 
हमारे सामने के दो दांत पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे. जब तीसरे ने भी उधर की राह पकड़ी तो बोलते वक़्त पैदा हो गयी दरार से हवा निकलने के कारण सुनने वाले पहेलियाँ सी बूझते नज़र आने लगे. उन पर मेहरबानी की गरज से तीन दांत लगवाने हम दांतों के डॉक्टर के पास गए. अव्वल तो दन्त स्वास्थ्य की अनदेखी पर उन्होंने हमें लम्बा-चौड़ा भाषण पिलाया. फिर लगभग मुंह के अन्दर सर घुसाते हुए घनघोर मुआयने के बाद व्यवस्था दी कि आजू-बाजू के दांत भी सड़े हुए हैं, किनारे की दाढ़ भी खराब है, पहले उन्हें निकालना होगा...लिहाज़ा भरे-भरे गए थे, खाली-खाली लौटे. 
            आये थे हँसते खेलते मयखाने में फ़िराक 
             जब  पी  चुके शराब  तो   संजीदा हो गए. 
बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले 
दांतों की ताँक-झाँक, एक्स- रे और आखिर में चिकित्सकों के छुरे- जमूरे के नीचे से निकले तो पता लगा कि बुलंद दन्त-मीनारों की जगह ग्राउंड जीरो बन चुका है. फर्क सिर्फ इतना रहा कि वहां दो मीनारें ध्वस्त की गयी थी यहाँ तीन. वहां एक झटके में इस कृत्य को अंजाम दे दिया गया था तो यहाँ आहिस्ता-आहिस्ता यह विध्वंस संपन्न हुआ था. वहां लोग मरते वक़्त अपने-अपने ईश्वर को भी याद नहीं कर पाए थे, यहाँ हम राम-राम करते हुए भी हलाल होने से न बच पाए थे. खैर, आखिर जब हम क्लिनिक से बाहर लाये गए तो मुंह का हाल अमूमन उस युवती की तरह हो गया था जिसे मनचलों ने गेंग रेप के बाद चलती गाड़ी से बाहर फेंक दिया हो....वही ज़ख्म, वही अधमरापन, वही दुनिया से मुंह छुपाने की इल्तिजा. 
निर्माण कार्य जारी, असुविधा के खेद है  
अब तो आलम यह है कि मुंह में जगह-जगह खुदाई से जिंदगी हलकान है. खाने पीने के तमाम रास्ते या तो बंद हैं या परिवर्तित कर दिए गए हैं. बोलना तो सरासर मुहाल है. थोडा बोलना भी दिमागी कसरत का सबब बन चुका है क्योंकि त-वर्ग के शब्दों के पर्यायवाची तलाशने पड़ रहे हैं या उनका अंग्रेजी तर्जुमा करना पड़ रहा है. दन्त-निर्माण का कार्य बी आर टी एस सड़कों या फ्लाई ओवरों की तरह बूढ़े कछुए की चाल से चल रहा है. हर बार जांच के लिए बुलाने के बाद डॉक्टर अगली तारीख दे देता है. नतीजा वही- तारीख़ पे तारीख़, तारीख़ पे तारीख़. अब तो एक्स्पेक्ट करते-करते हम आजिज़ आ चुके, दांतों की डिलीवरी कब तक होगी कोई बेजान दारूवाला भी नहीं बता सकता...तब तक ऐसे ही गुजर करनी होगी जैसे कोई हाकी या फ़ुटबाल की टीम दस नहीं, नौ नहीं बल्कि सात खिलाडियों के साथ खेलती है.