Thursday, October 27, 2011

शोध के ये दीवाने



इनसे मिलिये....श्रीमति हरकाली। कुछ दिनों पहले गुमशुदा हो गयी थीं। फिर एक दिन इनके घर के बाहर नयी नेम प्लेट देखी गयी। नाम के आगे डाक्टर लगा हुआ था। ओह... तो मोहतरमा अज्ञातवास में जचगी करा कर शिशु के साथ लौट आई हैं। सुना है कोयल की एक प्रजाति अंडे सेने की जहमत से बचने के लिए अपने अंडे कोए के घोंसले में रख छोडती है जो उन्हें अपना समझ कर से देते हैं। इसी तरह, आपने भी बिना पेट फुलाए, जी मितलाए या प्रसव पीड़ा भुगते सीधे माँ बनाने का गौरव प्राप्त कर लिया। हाँ, कोयल भले ही अपने अंडे खुद देती हो, इनके बारे में यह पक्के तौर पर कहना मुश्किल है।
...और इस विभूति से मिलिये। रिसर्च कर रही थी। डाटा कलेक्ट करते करते हसबैंड कलेक्ट कर बैठी। इल्म की राह से भटक कर फॅमिली की राह पर चल निकली:
राहे खुदा  में  आलमे  रिंदाना  मिल गया
मस्जिद को ढूंढते थे कि मैखाना मिल गया
कहाँ कागजों पर कलम घसीटने वाली थी, कहाँ नवजात के पोतड़े फचीटने लगी। ...फिर एक दिन अचानक इन्हें ख़याल आया कि जैसे एनआरआई लड़के शॉर्ट विजिट पर स्वदेश आते हैं और सगाई अथवा मंडप कर उल्टे पाँव लौट जाते हैं, उसी तर्ज़ पर ये भी एक फ्लाइंग विजिट मारें और हाथों हाथ थीसिस जमा कर पिया के घर लौट जाएँ। सो, आजकल इसी मुहिम पर वतन में हैं और गाइड की नाक में दम किए हुए हैं।
चलिये, अब इन महाशय से मिलने सीधे इनकी डेस्क पर ही चलते हैं। अरे...ये तो सीट से नदारद हैं। नहीं, नहीं निश्चित ही ये फील्ड में सर्वे करने नहीं गए। जरूर कोई सा आवेदन पत्र लाने लोक सेवा आयोग के दफ्तर गए होंगे या फिर डाक घर में उसे स्पीड पोस्ट करने। जानते हैं कि डिग्री मिल जाने भर से प्रोफेसरी हाथ आने वाली नहीं, सो हर तरफ हाथ मारने में कोई हर्ज़ नहीं समझते। एकाधिक राज्यों के पीएससी से ले कर बैंकों के पीओ, वन रक्षक, केवी व्याख्याता, यहाँ तक कि प्राथमिक शिक्षक तक की कोई परीक्षा नहीं छोड़ते। वैसे ये शोध केंद्र पर भी बैठते हैं, और खूब बैठते हैं। नहीं बैठते तो ऑनलाइन ट्रेडिंग कहाँ से करते? शेयर और डिबेंचर की गलियों के फेरे कैसे लगाते? शोध केंद्र पर इन्हें शोध के अलावा बहुत कुछ करते देखा जा सकता है। कमाल यह है कि फिर भी इनकी थीसिस लगभग तैयार है! मीर साहब भी पशोपेश में हैं:
दामन पे छीटें हैं न खंजर पे कोई दाग
तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो
क्या है कि ये यूजीसी फैलो हैं, काफी ज़हीन भी हैं!!

Wednesday, October 19, 2011

चौथे तल्ले का मकान



हम दूसरी मंज़िल छोड़ कर चौथी पर क्या रहने को गए कि कालोनी को मुद्दा मिल गया। ऐसे चर्चे चले मानो मीडिया के हाथ कोई अन्ना हज़ारे लग गया हो। तरह-तरह के मुंह तरह-तरह की बातें करने लगे। एक महाशय ने हाँकी- पकी उम्र में इतने ऊपर! ना, बाबा न!! मर गए तो कोई तोपों की सलामी देने आने वाला नहीं...हमें एलाट हुआ होता, हम तो साफ मना कर देते। अरे, शहादत का इतना ही शौक होता तो फौज में भर्ती न हो गए होते। एक देवी जी ने, जो भरी बदन की मालकिन भी थी, चुस्की ली- और मैडम जी को तो देखो! रोज-रोज की सैर से पेट नहीं भरता था जो अब चौथे माले पर भी चढ़ बैठी! दो-दो जवान बच्चों की माँ हैं, मगर शरम रत्ती भर नहीं। पता नहीं इस अधेडपन में कमर  पतली करके कहाँ कूल्हे मटकाने जाएंगी, महारानी जी!
एक अजीज़ मित्र का अरसे से चौथी मंज़िल पर मुकाम रहा है। मकान बदलने की खबर देते हुए उनसे हमने कहा- अब हम भी आपके लेवल पर आ गए हैं। बोले- यानि गिन-गिन कर बदले लेंगे! शिफ्टिंग के बाद सभी दोस्तों को आ कर नया मकान देख जाने की पेशकश की। तब से तीन चार वीक ऐंड गुज़र गए, कोई इधर नहीं फटका। कहा किसी ने कुछ नहीं, हम समझ गए कि भाई लोग पोतों-दोहतों का मुंह देखे बिना दुनिया नहीं छोडना चाहते। हमने लाख दलील दी कि भले मानुसों, कौन कहता है कि आप दुरन्तो (राजधानी एक्सप्रेस की छोटी बहन) की तरह इंदौर से छूट कर धुर मुंबई की धरती पर ही जा उतरो? अरे भाई, मंज़िल दर मंज़िल जर्नी ब्रेक करते हुए गंतव्य तक आओगे तो यकीन मानिए आपको कुछ नहीं होगा। हर माले पर घड़ी भर दम लेने को बेंच, छत का पंखा और गला तर करने को घड़ा-गिलास रखवाने का लालच भी दिया। साथ ही यह भी वादा किया कि एक-एक खोमचे वाले और मुन्ने-मुन्नियाँ बहलाने के लिए गुब्बारे वाले का इंतजाम भी करवाए देते हैं....मगर नतीजा कोई खास नहीं! सुन तो बहुत रखा था कि जो जितना ऊपर बैठा है वह उतना ही अकेला होता है, अब समझ में भी आ गया।
फिराक में आसरा ढूंढ कर हादसा भुलाने की कोशिश की:
क्या  रखा है  आस रहने  ही में,  क्या  रखा  है  पास  रहने  ही में
एक आदत सी हो गयी है फिराक, वरना क्या रखा है उदास रहने ही में
कोशिशें रंग लाने लगी थी, तबियत कुछ संभलने लगी थी कि एक जोरदार झटका लगा। अगला महीना आ गया... दूध वाले ने बिल आगे बढ़ाया। हमने कहा- दूध तो उतना ही लिया है फिर पंद्रह रुपये फालतू काहे के ? बोला- मंज़िल सरचार्ज, भूतल के बाद पाँच रुपये फी मंज़िल के हिसाब से। अभी पेपर वाला, केबल वाला, सब्जी वाली बाई, काम वाली बाई आना बाकी हैं, देखते हैं आगे क्या होता है?