इनसे मिलिये....श्रीमति हरकाली। कुछ दिनों पहले गुमशुदा हो गयी थीं। फिर एक दिन इनके घर के बाहर नयी नेम प्लेट देखी गयी। नाम के आगे डाक्टर लगा हुआ था। ओह... तो मोहतरमा अज्ञातवास में जचगी करा कर शिशु के साथ लौट आई हैं। सुना है कोयल की एक प्रजाति अंडे सेने की जहमत से बचने के लिए अपने अंडे कोए के घोंसले में रख छोडती है जो उन्हें अपना समझ कर से देते हैं। इसी तरह, आपने भी बिना पेट फुलाए, जी मितलाए या प्रसव पीड़ा भुगते सीधे माँ बनाने का गौरव प्राप्त कर लिया। हाँ, कोयल भले ही अपने अंडे खुद देती हो, इनके बारे में यह पक्के तौर पर कहना मुश्किल है।
...और इस विभूति से मिलिये। रिसर्च कर रही थी। डाटा कलेक्ट करते करते हसबैंड कलेक्ट कर बैठी। इल्म की राह से भटक कर फॅमिली की राह पर चल निकली:
राहे खुदा में आलमे रिंदाना मिल गया
मस्जिद को ढूंढते थे कि मैखाना मिल गया
कहाँ कागजों पर कलम घसीटने वाली थी, कहाँ नवजात के पोतड़े फचीटने लगी। ...फिर एक दिन अचानक इन्हें ख़याल आया कि जैसे एनआरआई लड़के शॉर्ट विजिट पर स्वदेश आते हैं और सगाई अथवा मंडप कर उल्टे पाँव लौट जाते हैं, उसी तर्ज़ पर ये भी एक फ्लाइंग विजिट मारें और हाथों हाथ थीसिस जमा कर पिया के घर लौट जाएँ। सो, आजकल इसी मुहिम पर वतन में हैं और गाइड की नाक में दम किए हुए हैं।
चलिये, अब इन महाशय से मिलने सीधे इनकी डेस्क पर ही चलते हैं। अरे...ये तो सीट से नदारद हैं। नहीं, नहीं निश्चित ही ये फील्ड में सर्वे करने नहीं गए। जरूर कोई सा आवेदन पत्र लाने लोक सेवा आयोग के दफ्तर गए होंगे या फिर डाक घर में उसे स्पीड पोस्ट करने। जानते हैं कि डिग्री मिल जाने भर से प्रोफेसरी हाथ आने वाली नहीं, सो हर तरफ हाथ मारने में कोई हर्ज़ नहीं समझते। एकाधिक राज्यों के पीएससी से ले कर बैंकों के पीओ, वन रक्षक, केवी व्याख्याता, यहाँ तक कि प्राथमिक शिक्षक तक की कोई परीक्षा नहीं छोड़ते। वैसे ये शोध केंद्र पर भी बैठते हैं, और खूब बैठते हैं। नहीं बैठते तो ऑनलाइन ट्रेडिंग कहाँ से करते? शेयर और डिबेंचर की गलियों के फेरे कैसे लगाते? शोध केंद्र पर इन्हें शोध के अलावा बहुत कुछ करते देखा जा सकता है। कमाल यह है कि फिर भी इनकी थीसिस लगभग तैयार है! मीर साहब भी पशोपेश में हैं:
दामन पे छीटें हैं न खंजर पे कोई दाग
तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो
क्या है कि ये यूजीसी फैलो हैं, काफी ज़हीन भी हैं!!
काहे बेरोजगारों के पीछे पड़े हो आर!
ReplyDeleteजसपाल भट्टी साहब का उल्टा-पुल्टा याद दिला दिये त्यागी सर:)
ReplyDeleteवाह! देवेन्द्र और संजय से भी सहमत्!
ReplyDeleteBahut achha likha hai aapne.
ReplyDeleteदेवेन्द्र भाई: अपना तो धंधा ही यही है...पीछे पड़ना!!
ReplyDeleteसंजय जी: इस बार कोई गड़बड़ नही हुई!
स्मार्ट इंडियन: आप वाकई इतने स्मार्ट हो हमे पता ही नहीं था! आप बढ़िया-बढ़िया हिन्दी ब्लोगस की कुंजी चाहने वालों को सौंप रहे हैं!!
गोपाल जी: आपसे और आपके ब्लॉग से परिचय कर अच्छा लगा...मिलते रहेंगे परिचय को प्रगाढ़ करने को
Sir, U all encourage us to be a UGC fellow but explained about the 'kinds' today only!!....:) Hope u had a good deepawali at 'Chauthe talle ka makaan!'
ReplyDeleteसिद्धि सूद: बिलकुल, हम यही चाहते हैं की आप सब यूजीसी फ़ेलो बनो...दोनों बातों में कोई विरोधाभास नहीं है? चौथे तल्ले पर दीपावली निश्चित ही बढ़िया रही!
ReplyDeleteएक भोगा हुआ यथार्थ... त्यागी सर! हमें भी बड़ा शौक था पाने नाम के आगे डॉ. लगाने का..लेकिन वक्त की दीमक ने दिमाग को खोखला कर दिया और इन परिस्थितियों ने पलायन पर मजबूर!! मजेदार!
ReplyDeletebahut bhaari ho gaya !! ;) :P
ReplyDeleteआपका पोस्ट अच्छा लगा । मेर नए पोस्ट पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteशोध केंद्र पर इन्हें शोध के अलावा बहुत कुछ करते देखा जा सकता है। कमाल यह है कि फिर भी इनकी थीसिस लगभग तैयार है.
ReplyDeleteसच्ची और सटीक अभिव्यक्ति।अच्छा लगा.
धन्यवाद सर.
अजब-गजब
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