- नाजुक बदन- वह गुलबदन जो जींस की जिप लगाने के भागीरथी प्रयास में फिसल पड़े, टी शर्ट के बटन लगाने में जिसकी उँगलियों के जोड़ उतर जायें तथा जो पीयर्स साबुन से हाथ मलते हुए हांफ उठे।
- नाजुक मिजाज़- वह जीव जिसकी खड़ी व धारदार नाक पर मक्खी जैसे छोटे प्राणी के पिछवाडा टिकाने के लिए भी पर्याप्त स्थान न हो।
- गले का पट्टा- कर्मचारी का वह मोबाइल जिसे कम्पनी ने दिलवाया हो.....और जिसमे आउटगोइंग बंद हो, सिर्फ़ इनकमिंग चालू हो।
- गाल- चेहरे के दोनों ओर तनिक उभार लिए वह कोमल क्षेत्र , जिसे थपडियाने के लिए बारह वर्ष के लिए मास्टरजी को पट्टे पर दे दिया गया हो।
- देश- वह गर्ल फ्रेंड जिसके रूप का रसपान करने वाले प्रेमी तो बहुत मिल जायेंगे किंतु जिसका हाथ थामने के नाम पर कोई नहीं मिलेगा।
- सर्दी - वह मौसम जो हर किसी को अनुलोम- विलोम का साधक बनने पर मजबूर कर दे - फिर चाहे वे बाबा राम देव के शिष्य हों या न हों।
- बुढ़ापा - वह एकल- इन्द्रिय अवस्था जिसमे स्वाद-इन्द्रिय के अलावा अन्य इन्द्रियां साथ छोड़ दें। डॉक्टर तथा आपके बच्चे षड्यंत्र कर ....उस पर भी पहरा बैठा दें।
- ढर्रा- वही डेढ़ लीटर दूध..... रोज़।
- जिद- मनुष्यों की तरह पेड़ पौधों को न कभी पायरिया होता, न डायरिया। इसी तरह केंचुए को स्पोंडीलायटिस नहीं होती, ना ही भैंस को अलजायमर। और तो और अमीबा को मोतियाबिंद नहीं होता, न ही साँप को वर्टिगो के चक्कर आते। ......तो भी मानव शरीर श्रेष्ठ है - यह जिद नहीं तो और क्या है!
- साधारण बॉलपेन - पॉवर स्टीयरिंग के ज़माने में ऊबड़-खाबड़ हाईवे पर एक ओवर लोडेड ट्रक चलाने की माफिक, दम फुलाऊ।
Wednesday, November 25, 2009
परिभाषाएं- कुछ अटपटी..... कुछ चटपटी
Monday, November 16, 2009
साक्षात्कार......बनाम मृदा-कुंडली का मिलान
आपका नाम?
जी, किसन लाल।
किस वर्ग के हो?
जी, मैं आरक्षित वर्ग का हूँ।
शाबाश! समझो आधा मैदान तो तुमने मार लिया। अच्छा किसन जी, आप बाहरी तो नहीं हो ना?
कतई नहीं सर, मैं तो पैदायश से ही हिन्दुस्तानी हूँ।
हिन्दुस्तानी तो हम सब हैं! भला उसमे कौन सी अनोखी बात है? .......मेरा मतलब था कि तुम बिहार, यूपी के तो नही हो?
नहीं सर, मैं बिहार, यूपी का नहीं हूँ। और तो और मेरी सात पुश्तों में भी कोई बिहार, यूपी का नही रहा।
गुड, गुड। ....तो हम यह मानें कि तुम यहीं के हो?
यस सर-सौ फीसदी। मैं बाकायदा इसी प्रदेश का हूँ।
तब तो तुम्हारी मातृभाषा भी हिन्दी हुई। क्यों, ठीक है ना?
निश्चित ही सर। यूँ तो मेरी औकात नहीं, पर कभी विधानसभा जाने का मौका आन ही पड़ा तो में विश्वास दिलाता हूँ कि शपथ हिन्दी मैं ही ग्रहण करूंगा।
खैर छोडिये इसे। अब सब बातों की एक बात! ....ये बताओ कि तुम्हारी मिट्टी क्या हमारी कम्पनी की मिट्टी से 'मैच' करती है?
मैं ......कुछ समझा नहीं सर?
समझाता हूँ। समझाता हूँ। तुमने बचपन में कबड्डी तो जरूर खेली होगी?
खूब खेली है सर, बल्कि मैं तो गाँव की कबड्डी टीम का कप्तान भी रहा हूँ।
फिर तो जरूर जानते होगे कि तुम्हारे जिस्म पर चढ़ने वाली धूल किस मिट्टी की थी?
सर, वैसे भूगोल मैंने आठवें दर्जे तक पढ़ कर छोड़ दिया था। जहाँ तक मेरा ख्याल है वह हमारे गाँव की .....काली मिट्टी थी।
हूँ! और यह कम्पनी जो तुम्हारे गाँव की नहीं है, यह किस गारे से बनी है....किस मिट्टी से उठी है-कुछ पता है?
जी, वह तो लाल मिट्टी है-शायद?
शायद नहीं, बेशक लाल ही है। अच्छा तुमने इतिहास पढ़ा है?
हाँ जी, पढ़ा तो है- थोड़ा थोड़ा ।
यक्ष ने पूछा था-सबसे बड़ा अजूबा क्या है? युधिष्ठिर की जगह मैं होता, तो जानते हो क्या जवाब देता?
नहीं सर, मैं मूढ़ भला क्या जानूं!
मैं कहता कि यह पता होते हुए भी कि तुम इस मिट्टी के लाल नहीं हो.....तुम्हारी मिट्टी यहाँ की मिट्टी से 'मैच' नहीं करती फिर भी नौकरी की उम्मीद में आवेदन कर देना ही दुनिया का सबसे महान आश्चर्य है।
जी...जी सर।
जी क्या?....आप जा सकते हैं।
जी, किसन लाल।
किस वर्ग के हो?
जी, मैं आरक्षित वर्ग का हूँ।
शाबाश! समझो आधा मैदान तो तुमने मार लिया। अच्छा किसन जी, आप बाहरी तो नहीं हो ना?
कतई नहीं सर, मैं तो पैदायश से ही हिन्दुस्तानी हूँ।
हिन्दुस्तानी तो हम सब हैं! भला उसमे कौन सी अनोखी बात है? .......मेरा मतलब था कि तुम बिहार, यूपी के तो नही हो?
नहीं सर, मैं बिहार, यूपी का नहीं हूँ। और तो और मेरी सात पुश्तों में भी कोई बिहार, यूपी का नही रहा।
गुड, गुड। ....तो हम यह मानें कि तुम यहीं के हो?
यस सर-सौ फीसदी। मैं बाकायदा इसी प्रदेश का हूँ।
तब तो तुम्हारी मातृभाषा भी हिन्दी हुई। क्यों, ठीक है ना?
निश्चित ही सर। यूँ तो मेरी औकात नहीं, पर कभी विधानसभा जाने का मौका आन ही पड़ा तो में विश्वास दिलाता हूँ कि शपथ हिन्दी मैं ही ग्रहण करूंगा।
खैर छोडिये इसे। अब सब बातों की एक बात! ....ये बताओ कि तुम्हारी मिट्टी क्या हमारी कम्पनी की मिट्टी से 'मैच' करती है?
मैं ......कुछ समझा नहीं सर?
समझाता हूँ। समझाता हूँ। तुमने बचपन में कबड्डी तो जरूर खेली होगी?
खूब खेली है सर, बल्कि मैं तो गाँव की कबड्डी टीम का कप्तान भी रहा हूँ।
फिर तो जरूर जानते होगे कि तुम्हारे जिस्म पर चढ़ने वाली धूल किस मिट्टी की थी?
सर, वैसे भूगोल मैंने आठवें दर्जे तक पढ़ कर छोड़ दिया था। जहाँ तक मेरा ख्याल है वह हमारे गाँव की .....काली मिट्टी थी।
हूँ! और यह कम्पनी जो तुम्हारे गाँव की नहीं है, यह किस गारे से बनी है....किस मिट्टी से उठी है-कुछ पता है?
जी, वह तो लाल मिट्टी है-शायद?
शायद नहीं, बेशक लाल ही है। अच्छा तुमने इतिहास पढ़ा है?
हाँ जी, पढ़ा तो है- थोड़ा थोड़ा ।
यक्ष ने पूछा था-सबसे बड़ा अजूबा क्या है? युधिष्ठिर की जगह मैं होता, तो जानते हो क्या जवाब देता?
नहीं सर, मैं मूढ़ भला क्या जानूं!
मैं कहता कि यह पता होते हुए भी कि तुम इस मिट्टी के लाल नहीं हो.....तुम्हारी मिट्टी यहाँ की मिट्टी से 'मैच' नहीं करती फिर भी नौकरी की उम्मीद में आवेदन कर देना ही दुनिया का सबसे महान आश्चर्य है।
जी...जी सर।
जी क्या?....आप जा सकते हैं।
Sunday, November 8, 2009
भाई दूज पर तारी सवारी और सुगम टीका-करण की चंद तरकीबें जुदा
इस साल भाई दूज पर मेरा भी गाँव जाने का योग- पाठक ही बता पाएंगे कि 'सु' या 'दु'- हुआ। देखता क्या हूँ कि सुबह से ही सड़क पुल्लिंग भरपूर वयस्कों, वयस्कों और अल्पव्यस्कों से पटी हुई है। देश की आधी आबादी शेष आधी आबादी से टीका कराने को यूँ उमड़ रही है जैसे किसी ज़माने में आजादी के परवानों की टुकडियां सड़कों पर निकल पड़ती थी। जल्दी ही हमने भी बाकियों की तरह सड़क पर डेरा डाल दिया। करवा चौथ पर चाँद देखने को उतारू सुहागिन की तरह हम किसी सवारी वाहन की एक झलक पाने को रह रह कर सड़क की मंझधार में कूदते। दूर सड़क और आसमान के संधि-स्थल से जो वाहन भ्रूण उभरते, उनकी बढ़त पर लगातार नजर गडाये रखते। जब वे इतनी नजदीक आ चुके होते कि अंग-प्रत्यंग विकसित कर कोई शक्ल अख्तियार कर सकें तो वह शक्ल अमूमन किसी कार, ट्रक, ट्रेक्टर, ट्रैक्स अथवा अनुबंधित बस की होती। हमारी घनघोर तपस्या से किंचित प्रसन्न हो कर कभी-कभार परम पिता हमारी ओर टेंपो आदि धकेल देता। उसे देख कर ही अपना कलेजा मुंह को आ जाता क्योंकि उस पर चढ़ कर सफर करना किसी सर्कस में करतब दिखाने से कम न होता। छप्पन गोधन पुजवा चुके हमसे इस उम्र में खतरों के खिलाड़ी बन जाने की उम्मीद रखना हमारे साथ नाइंसाफी होता। दुपहर होने को आई, भाई-भतीजों में जो भाग्यवान थे, गंतव्य पर पहुँच कर मुंह मीठा करा चुके, मगर हम बस सड़क के किनारे से सड़क के मध्य के बीच दोलक की तरह गति करते ही रह गए।
कोई चारा रहते न देख, हमने पास के शहर में ट्रेवल्स वालों से संपर्क किया। पता चला कि शहर की तमाम टैक्सियाँ पहले ही बुक हो चुकी हैं। कुछ जो बची हैं वे बुक नहीं हो सकती चूँकि उनके पुरूष ड्राईवर टीका कराने हेतु गमन कर चुकें हैं। इसी बीच मौका ताड़ कर कुछ ट्रैक्टर- ट्रोली मालिकों ने बड़ी चतुराई से अपने वाहनों को टीकाच्छुकों को इधर से उधर धोने में जरूर जोत दिया था। परन्तु उनकी सेवाएं इस समय लेने से तो दीया-बत्ती तक भी पहुँच पाना मुमकिन न होता। झक मार कर मैंने पास पड़ा डंडा उठाया और तडातड मन को मार दिया। मन बेचारा एक कोने में बैठकर सिसकने लगा, मैं भी उसी कोने में बैठ गया।
बैठ तो गया, मगर चिंतन को तो मारा नहीं था चुनांचे वह नहीं बैठा। नाथ-पगहा खींच फिर टीके की दिशा में दौड़ने- मचलने लगा। मैंने झोले में से तरकीबों को उठाया और उन्हें आपस में भिड़ाने लगा। जो स्वर्ग नहीं सिधारी.... उनमे से कुछ प्रस्तुत हैं। आने वाली संततियां उन्हें काम में लेना चाहें तो माबदौलत को कोई उज्र नहीं होगा।
पहली तरकीब- भारतवर्ष में सभी प्रमुख पर्व तिथियों पर पड़ते हैं। अक्सर कैलेंडर में दो तीज, दो अमावस, दो अष्टमी, दो पूर्णिमा आदि होते हैं। यह महज संयोग नहीं है। यह इस बात का सबूत है कि हमारे पुरखों ने आदि काल में ही मात्र एक तिथि पर तीज-त्यौहार पड़ने की दिक्कतों को सफलतापूर्वक भांप लिया था। इसलिए अपनी सुविधानुसार पर्व मनाने का विधि-विधान वे पहले ही कर के गए थे। किंतु में ठहरा उनके बलशाली कन्धों पर आरूढ़ उनका अर्वाचीन उत्तराधिकारी, सो उनसे ज्यादा दूरअंदेशी तो मुझे होना ही था। मेरा युग-प्रवर्तक सुझाव है कि धनतेरस से शुरू कर दूज तक आपसी समझ से किसी एक दिन यह त्यौहार मना लिया जाए तो दुनिया को भारी आप-धापी से बचाया जा सकता है।
दूसरी तरकीब- दो दूरस्थ भाई अपनी प्रिय बहनों की अदला-बदली कर लें, यानि 'सिस्टर स्वापिंग'। मैं तुम्हारी बहन से जो यहाँ मेरे गाँव में है टीका करा लूँ, बदले मैं तुम मेरी बहन से वहीं अपने गाँव में टीका करा लो। ठीक वैसे ही, जिस तरह दो कर्मचारी 'म्यूचुअल ट्रान्सफर' करा लेते हैं। इससे टीका-करण में सुगमता तो होगी ही, साथ ही राष्ट्रीय खजाने पर पड़ने वाला बोझ भी कुछ कम हो सकेगा।
तीसरी और आखिरी तरकीब - सर्व ज्ञात तथ्य है कि दूर बसे भाइयों को प्रतिवर्ष बहनें डाक द्वारा राखी पहुँचाती हैं। इसके एवज में भाई लोग भी अपना आशीर्वाद और स्नेह मनीऑर्डर द्वारा भेज कर निश्चिंत हो जाते हैं। मुझे कोई वजह दिखाई नहीं देती कि इसी माकूल व्यवस्था को रोली-टीका के लिए भी लागू न किया जा सके। टेलेफोन, ई -मेल के हाथों बुरी तरह पिटे डाक विभाग के स्वास्थ्य के लिए भी यह गुणकारी होगा। अलावा इसके, मेरे जैसों के मस्तक भी बिन टीका सूने नहीं रहेंगे।
कोई चारा रहते न देख, हमने पास के शहर में ट्रेवल्स वालों से संपर्क किया। पता चला कि शहर की तमाम टैक्सियाँ पहले ही बुक हो चुकी हैं। कुछ जो बची हैं वे बुक नहीं हो सकती चूँकि उनके पुरूष ड्राईवर टीका कराने हेतु गमन कर चुकें हैं। इसी बीच मौका ताड़ कर कुछ ट्रैक्टर- ट्रोली मालिकों ने बड़ी चतुराई से अपने वाहनों को टीकाच्छुकों को इधर से उधर धोने में जरूर जोत दिया था। परन्तु उनकी सेवाएं इस समय लेने से तो दीया-बत्ती तक भी पहुँच पाना मुमकिन न होता। झक मार कर मैंने पास पड़ा डंडा उठाया और तडातड मन को मार दिया। मन बेचारा एक कोने में बैठकर सिसकने लगा, मैं भी उसी कोने में बैठ गया।
बैठ तो गया, मगर चिंतन को तो मारा नहीं था चुनांचे वह नहीं बैठा। नाथ-पगहा खींच फिर टीके की दिशा में दौड़ने- मचलने लगा। मैंने झोले में से तरकीबों को उठाया और उन्हें आपस में भिड़ाने लगा। जो स्वर्ग नहीं सिधारी.... उनमे से कुछ प्रस्तुत हैं। आने वाली संततियां उन्हें काम में लेना चाहें तो माबदौलत को कोई उज्र नहीं होगा।
पहली तरकीब- भारतवर्ष में सभी प्रमुख पर्व तिथियों पर पड़ते हैं। अक्सर कैलेंडर में दो तीज, दो अमावस, दो अष्टमी, दो पूर्णिमा आदि होते हैं। यह महज संयोग नहीं है। यह इस बात का सबूत है कि हमारे पुरखों ने आदि काल में ही मात्र एक तिथि पर तीज-त्यौहार पड़ने की दिक्कतों को सफलतापूर्वक भांप लिया था। इसलिए अपनी सुविधानुसार पर्व मनाने का विधि-विधान वे पहले ही कर के गए थे। किंतु में ठहरा उनके बलशाली कन्धों पर आरूढ़ उनका अर्वाचीन उत्तराधिकारी, सो उनसे ज्यादा दूरअंदेशी तो मुझे होना ही था। मेरा युग-प्रवर्तक सुझाव है कि धनतेरस से शुरू कर दूज तक आपसी समझ से किसी एक दिन यह त्यौहार मना लिया जाए तो दुनिया को भारी आप-धापी से बचाया जा सकता है।
दूसरी तरकीब- दो दूरस्थ भाई अपनी प्रिय बहनों की अदला-बदली कर लें, यानि 'सिस्टर स्वापिंग'। मैं तुम्हारी बहन से जो यहाँ मेरे गाँव में है टीका करा लूँ, बदले मैं तुम मेरी बहन से वहीं अपने गाँव में टीका करा लो। ठीक वैसे ही, जिस तरह दो कर्मचारी 'म्यूचुअल ट्रान्सफर' करा लेते हैं। इससे टीका-करण में सुगमता तो होगी ही, साथ ही राष्ट्रीय खजाने पर पड़ने वाला बोझ भी कुछ कम हो सकेगा।
तीसरी और आखिरी तरकीब - सर्व ज्ञात तथ्य है कि दूर बसे भाइयों को प्रतिवर्ष बहनें डाक द्वारा राखी पहुँचाती हैं। इसके एवज में भाई लोग भी अपना आशीर्वाद और स्नेह मनीऑर्डर द्वारा भेज कर निश्चिंत हो जाते हैं। मुझे कोई वजह दिखाई नहीं देती कि इसी माकूल व्यवस्था को रोली-टीका के लिए भी लागू न किया जा सके। टेलेफोन, ई -मेल के हाथों बुरी तरह पिटे डाक विभाग के स्वास्थ्य के लिए भी यह गुणकारी होगा। अलावा इसके, मेरे जैसों के मस्तक भी बिन टीका सूने नहीं रहेंगे।
Wednesday, November 4, 2009
श्री कर्स्टन की त्रिगुणी माया
१- जीत का सामना
माथा तो मेरा तभी ठनक गया था, जब तुमने विदेशी जमीन पर पहली ट्राई सीरीज़ जीत ली थी। फिर मैंने अपने दिल को समझा लिया था कि यह तुक्का भी तो हो सकता है! किंतु एक के बाद एक, पाँच सीरीज़ में जीत, वो भी घरु मैदानों के इतर। यह सब तो संयोग नही हो सकता। अब तो मेरा शक यकीन में बदल गया है कि परदेस में रंगरेलियां मनाने को जरूर तुमने गोरी चमड़ी वाली मेरी सौतें पाल रखी हैं । चूल्हे में जाए मरी ऐसी जीत, और ऐसा किरकेट! कहे देती हूँ, कल ही सन्यास ले लो वरना मेरा मरा मुँह देखो।
२- हार के पार
चैम्पियंस ट्राफी के एक अहम् मैच में पहले नंबर पर काबिज़ भारत की पाकिस्तान के हाथों करारी हार पर बवाल खड़ा हो गया है। आरोप है कि मैच में एकाधिक अनफिट खिलाड़ी खिलाये गए थे। एकाधिक ही क्यों? मैं तो कहूँगा कि सारे के सारे खिलाड़ी ही अनफिट थे। यूँ देखा जाए तो इसमे खिलाड़ियों का कुछ दोष भी नहीं है। हिंदुस्तान जैसे देश में जहाँ चित्त कि वृत्तियों के निरोध का पाठ घुट्टी में पिलाये जाने का रिवाज़ रहा हो, वहां आख़िर जीत के लिए फिट खिलाड़ी पैदा भी कैसे हो सकते हैं? तो क्या हम भारतवासियों के भाग्य में पराजय के अलावा कुछ भी नहीं बदा है? नहीं, ऐसा नहीं है - दो तीन रास्ते हैं। अव्वल तो छद्म राष्ट्रवादी इजाजत दें तो कोच, मेंटल कंडीशनर, चीयर लीडर्स की तरह ही फिट खिलाड़ी भी आयात किए जा सकते हैं। मगर देशभक्ति कुछ ज्यादा ही अंगडाई ले रही हो तो खिलाड़ियों की स्नायु-दुर्बलता दूर करने हेतु जैतून का तेल, शिलाजीत या स्वर्ण- भस्म सरीखे देसी नुस्खे आजमा कर देखे जा सकते हैं। फायदा महसूस न होने की सूरत में टीम को एक सेक्सोलोजिस्ट की सेवाएं तो दी ही जा सकती हैं, जो उपलब्ध घरेलू अनफिटों में से ही सर्वाधिक फिट खिलाड़ी चुनने में हमारी मदद कर सके। हाँ! टीम में चयन के दावेदार उम्र-दराज खिलाड़ियों की फिटनैस पर खास निगाह रखने की जरूरत है, क्योंकि उम्र ढलने से कुदरती तौर पर कमजोरी आ कर छा जाया करती है।
३-अनदुही प्रतिभा
३-अनदुही प्रतिभा
हिंदुस्तान के नौजवानों , मैं तुम्हारा आव्हान करता हूँ। हे युवाओं! दुनिया को दिखा दो, कि तुम्हारे होते किसी के लिए भी देश की नाक के साथ छेड़-छाड़ करना मुमकिन नहीं। सर्कुलर रोड पर शाम के झुटपुटे में पार्क मोटर सायकिलों की आड़ में खड़े बेखबर आलिंगनबद्ध जोडों, जागो! और स्वयं का मोल पहचानो, पहचानो की तुममे देश को जिताने की अकूत क्षमता है। जमाने की निगाहों से ओझल हो, बुद्धा गार्डन की सूनी झाडियों के तले लुक-छिप कर काम-क्रीडा में रत प्रेमी युगलों! तुम्हे तनिक भी अहसास नहीं कि तुम अपने साथ-साथ राष्ट्र की भी प्रतिभा निखारने में किस कदर जी-जान से जुटे हो। तुम्हे नहीं पता तुम क्रिकेट के आसमान के उभरते नक्षत्र हो,विश्व कप
के संभावित हो, भावी टीम के कर्णधार हो। व्यर्थ का संकोच और लोक-लाज त्याग कर अपनी साधना का बेधड़क और खुल्लम-खुल्ला अभ्यास करो ताकि लोगों की नजरों में आ सको। .....तभी तो इने-गिने चेहरों में से ही उठा-गिरा कर टीम खड़ी करने की कवायद में लगे चयनकर्ताओं को पञ्च-तारा होटलों के वातानुकूलित कक्षों से बाहर निकाल अपनी ओर खींच सकोगे। श्रीकांत और उनकी मण्डली को भी चाहिए कि वे गेंद ओर बल्ले से आगे जा कर बिखरी हुई कुदरती प्रतिभा को सहेजें , जिसे क्रिकेट का अल्पकालीन कोर्से करा कर विश्वकप की जंग में उतारा जा सके।
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