अदा और डील डौल में वैसा ही रूआब मानों नए चलन की डब्बा कारों में एम्बेसेडर, बाइकों में एनफील्ड या फिर ट्रैक्टरों में
आयशर हो! जी हाँ! ऐसा ही है हमारा राजे-रजवाड़ों के जमाने का कूलर। जितना पानी आजकल
के मामूली कूलर दिन भर में खर्च करते हैं उस से कहीं ज्यादा तो यह जनाब एक बार
में फिजूल बहा देते हैं। यह उन सड़क-छाप
कूलरों में नहीं जिन्हें घर के छुटके भी कान पकड़ कर इधर से उठा कर उधर बैठा देते
हैं। गर्मी का सीज़न आया नहीं कि बालिश्त भर ऊंची चार ईंटों के तख्ते ताऊस पर
इन्हें उसी ठाठ से गद्दीनशीन किया जाता है जैसे गए जमाने में राजाओं की रस्मी
ताजपोशी किया करते थे। फिर किसी की क्या मजाल जो पूरे सीज़न भर इन्हें अपने सिंहासन
से डिगा सके!
यूं देखें तो इस कूलर में गिनती के दो एक ऐब भी थे। इधर पानी की
जबर्दस्त किल्लत मगर इनकी रईसी में कोई कोर कसर नहीं! महाशय यूं ही पानी गटागट कर
जाते हें गोया गाड़ी का कोई पुराना मॉडल डीज़ल पी रहा हो। साथ ही एक और दिक्कत भी थी। पानी भरने में जरा
भी चूक हुई कि इसके जिस्म के अनगिनत नामालूम सूराखों से पानी का मुसलसल रिसाव शुरू
हो जाता है। फिर तो फर्श पर बहते पानी को सुखाने के लिए आपको घड़ी-घड़ी पैड़ बदलने
पड़ते हैं। लिहाजा जितना पसीना कूलर की हवा खाने से सूख नहीं पाता है उस से कहीं
ज्यादा, पानी को सुखाने के चक्कर में बहाना पड़ जाता है।
कुछ-कुछ वैसे ही जैसे चन्दन घिस-घिस कर लगाने से सरदर्द में फायदा जरूर मिलता है, मगर चन्दन घिसना अपने आप में एक बहुत बड़ा सरदर्द है!
बहुत माथापच्ची के बाद इस मसाइल का हल हमने कुछ यूं निकाला कि कूलर के लिए
पानी की छोटी-छोटी ख़ुराकें तजवीज़ कर दी।
ठीक उसी तरह जैसे किसी शूगर के मरीज़ के लिए दिन में पाँच छः छोटे-छोटे ‘मील’ बांध दिये जाते हैं। इसका लाभ यह हुआ कि कूलर
के ऊपरी हिस्सों में बने बारीक सूराखों का गला खुद ब खुद घुट कर रह गया। लेकिन इस
ईलाज़ ने एक नयी बीमारी पैदा कर दी। अब दिन का हमारा ज़्यादातर समय पाइप को टोंटी
में लगाने और फिर तह कर उसे उठाने में गुजरने लगा। यदि ईमानदारी से उस वक़्त का हिसाब लगाया जाता जब हम कूलर की हवा में रहे, और जब कूलर के बिना रहे तो दोनों में कोई खास फ़र्क़ नहीं आता। उस पर
मुसीबत यह कि आप पल भर के लिए भी गाफ़िल नहीं रह सकते थे। पानी कम रह जाए तो मोटर के
फुंक जाने का खतरा, ज्यादा भरा जाए तो फिर ओवरफ़्लो से निपटने की आफ़त...यानि
कूलर वापरना एक दुधारी तलवार पर चलना था!
अलबत्ता सौ खोट होने पर भी उस में कुछ खास था जो हम उसके सब नाज़-नखरे
खुशी-खुशी उठा लेते थे। दरअसल वह आजकल के तथाकथित स्मार्ट ‘कैटरीना कैफ नुमा’
कूलरों में से नहीं था जो सिर्फ अपने सामने के गलियारे में खड़े बंदे को बस उतनी ही ठंडक पहुंचा पाते हैं जितनी कि भरी
दुपहरी में किसी बिजली के खंभे की छाया में खड़े होने पर मिलती है। हमारा यह कूलर
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘जहां तहां प्रकाश करने वाले आज
के खद्योत सम’ कवियों की तरह नहीं वरन ‘सूर-सूर, तुलसी- शशि’ के समान
है। यह घर भर का पारा कुछ ही मिनटों में हाथ भर नीचे गिरा देता है। इसके सामने ए.
सी. भी एकदम फेल है! हाँ, लगे हाथों एक बात और... जहां आज के
कूलर जेठ के महीने से जूझते हुए बजबजाने लगते हैं, यह इस
खामोश अदा से अपना काम करता है मानो कोई ऋषि वन में मौन तपस्या कर रहा हो अथवा कोई
हंस झील पर मंद-मंद तैर रहा हो। तभी तो घर में आने जाने वाले सब लोग इसका जलवा देख
कर हैफ में सुध बुध खो बैठते हैं। तब अपना
सीना गर्व से सम्राट अशोक के अधीन भारत-भूमि सा चौड़ा हो जाता है!
इति, दास्ताने कूलर-ए-आजम!!