Sunday, June 20, 2010

ऐसा रहा हमारा हवाई सफ़र

औरों की देखा-देखी हमने भी गेट पर खड़े जवान की तरफ टिकट के साथ परिचय पत्र बढ़ा दिया। उसे फोटो ठीक ही लगी होगी जो उसने हमें अन्दर जाने दिया। अन्दर कई काउंटरों पर ठेला गाड़ियाँ लिए लोगों की भीड़ लगी थी। सोचा लेटलतीफ हैं, टिकेट कटा रहे होंगे। सीधे जाने पर माँ के भक्तों सी घुमावदार लाइन मिली। बारी आने पर हमें कोई सा पास लाने को कहा गया। एजेंट की ठगी पर झुंझलाते हुए हमने अपनी पोशाक की तल व पहली मंजिल पर स्थित सभी जेबों की रकमों को इकठ्ठा करना शुरू कर दिया। मगर काउंटर संभाल रही सुंदरी ने बोर्डिंग पास के बदले में हमारा सारा सामान एक तरफ रखवा लिया। हमने खैर मनाई कि सस्ते में छूट गए मगर तुरंत ही फ़िक्र भी हुई कि प्रवास में किसके लत्ते पहनेंगे? पास ले कर हम जिस शख्स के पास गए, खुन्नस के मारे उस मरदूद ने सबके सामने सांगोपांग तलाशी ले कर हमारी इज्ज़त पर वो हाथ डाला जो बचपन में अम्बियाँ चुराने पर बाग़ वालों ने भी नहीं डाला होगा। फिर हमें जिस अदा से जहाज तक ले जाया गया वह ऐसा ही था जैसे गोबर पाथने वाली औरतों को गाँव के बाहर पथुआरे तक मर्सीडीज में ले जाया जाये। अनुमान था कि किराये के अनुपात में विमान की सीटें तख्ते-ताउस जैसी न भी सही, राजाओं और मनसबदारों के जैसी विशाल व आलीशान तो जरूर होंगी। किन्तु सीट की पीठ पर पड़े मटमैले जालीदार कपडे, सीटों के बीच सरहदरुपी हत्थे और सीट बेल्ट को छोड़ दें तो उसमे नंगला से खुड्डा के बीच चलने वाली खटारा से जियादा जगह शर्तिया नहीं रही होगी।

सवारियां अभी बैठी ही थी कि इंजन से जोरदार घुर्र-घुर्र शुरू कर दी। तभी दो तीन नवयुवक-युवतियों ने हाथों में कुछ लिए विमान में बराबर-बराबर दूरी पर पोजीशन ले ली। उनके चेहरे मासूम थे, चुनांचे लग नहीं रहा था कि वे अपहर्ता होंगे। साथ ही विमान अभी उड़ा भी नहीं था, ऐसे में हाइजेक कि थ्योरी तज कर मन को बेहद तसल्ली हुई। उनके बर्ताव की लोच को देखते हुए शक हुआ कि हो न हो वे सेल्समन टाइप के जीव हों। सोचा जैसे बसों में दन्त मंजन, चुटकुलों की गुटका किताबें या मोसंबी का ज्यूस निकालने वाली मशीन बेचते हैं, वैसा ही कुछ बेचते होंगे। मगर वे जनाब पेटी बांधना सिखाने लगे जो लगभग सभी सवारियां पहले ही बाँध चुकी थी। उन्होंने निकास द्वारों के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी दी जिसे विमान में प्रवेश कर सीटों तक पहुँचने के दौरान यात्री अपने आप ले चुके थे।
आखिरकार विमान चला तो कुछ कदम चल कर फिर खडा हो गया। खिड़की से झाँकने पर पता चला कि जाम लगा है। ज्यों ही अगला विमान थोडा खिसकता है, पिछला उसके पीछे चिपक लेता है मानो डर रहा हो कि कहीं तीसरा विमान बीच में न घुस जाये! कुछ इंतिजार के बाद जाम खुला। अब विमान ने रफ़्तार तो पकड़ी मगर वह रफ़्तार टमटम की सी थी । वैसी ही दुलकी चाल, गहरी नदी के जल प्रवाह सी मंथर, अलसाई हुई। इसी विध एक अरसा गुजर गया, लगा अगर मोटरकार में जा रहे होते तो कभी के मथुरा जरूर पहुँच गए होते। जब हम सोच ही रहे थे कि अब उड़े, अब उड़े तभी जहाज यूँ ठहर गया गोया ठिकाने पर आ लगा हो। मगर थोड़ी देर बाद उसके सर जुनून सा सवार हुआ और वह पागल हाथी सा चिंघाड़ कर दौड़ पड़ा। डर के मारे हमने कुर्सी के हत्थे थाम लिए। तभी महसूस हुआ जैसे हमें किसी गहरी खाई में फेंक दिया गया हो। बैठे थे तो कुर्सी सीधी थी किन्तु अब हम करीब-करीब लेटे लेटे से लग रहे थे, जैसे डेंटिस्ट के यहाँ हों और वह जमूरा ले कर बस दांत उखाड़ने ही वाला हो। विमान के बीच का रास्ता तिरछा हो कर यूँ लगने लगा मानो कोई सीढ़ी स्वर्ग को चली गयी हो, जिसके उस पार व्योम बालाएं अप्सराओं सी दिख रही थी।

कुछ देर बाद विमान हवा में सूखे पत्ते की तरह लड़खड़ाने लगा। फर्क सिर्फ इतना था कि पत्ता नीचे गिर रहा होता है जबकि हम ऊपर उठ रहे थे। हम छोटू की मम्मी की तरफ से सोच कर परेशान हो उठे। पिछले दिनों हुए तमाम विमान हादसे याद आने लगे। पछतावा भी हुआ कि उड़ने से पहले सरकारी मुआवजे को सही ढंग से ठिकाने लगाने हेतु हमने वसीयत क्यों नहीं कर छोड़ी! यह हिन्दुओं के जाप और मुसलमान भाइयों के कलमा पढने का ही असर था कि जल्दी ही सब कुछ ठीक-ठाक हो गया। अब विमान हवा में ठहर सा गया था किन्तु सवारियों ने आमद रफ्त शुरू कर दी। इंजन का शोर बदस्तूर जारी था वरना हम समझते कि इसे ही लैंडिंग कहते हैं और दरवाजे से कोई आठ दस किलोमीटर लम्बी सीढ़ी के लगने का इंतिजार कर रहे होते।

Friday, June 11, 2010

वक़्त की पाबन्दी के साइड इफेक्ट्स

हमें एक पुरानी स्टुडेंट की शादी में जाना था। कार्ड देख कर समय की तस्दीक की। लिखा था- ७बजे से आपके आगमन तक। इस लेख का हमने यह अर्थ लगाया कि आपको जब आना हो आओ , लेकिन सनद रहे कार्यक्रम ठीक सात बजे शुरू हो जायेगा। इस हिसाब से हमें पौने सात पर चल देना चाहिए, यही सोच हमने पत्नी को फटाफट तैयार होने को कहा। वह पलट कर बोली- इतनी जल्दी भी क्या है? हमने कहा- भागवान! हम पर नहीं तो दूल्हे के बाप पर तो तरस खाओ, वे बेचारे बुजुर्गवार ७ बजे से मंडप के गेट पर हाथ जोड़ कर मूर्ति से खड़े हो जायेंगे। मैरिज गार्डेन पहुचे तो गेट पर गहरा सन्नाटा था, अन्दर जरूर गहमा-गहमी थी। टेंट वाले कुर्सियां उतारने में लगे थे तो केटरर मेजें सजा रहे थे। अब हम पर क्या गुजरी वो हम ही जाने!
कुछ दिनों बाद हमारे एक सहकर्मी के भाई की शादी पड़ी। तब तक हम काफी दुनियादार हो चुके थे ओर वक़्त का कुछ-कुछ मतलब समझने लगे थे। इस बार हम दो घंटे लेट यानि ९ बजे मंडप पहुंचे। स्टेज सजी थी मगर दूल्हा-दुल्हिन कहीं नजर नहीं आ रहे थे। हमने अनुमान लगाया कि टायलेट वगैरह गए होंगे, आ जायेंगे। कुछ घड़ियाँ इंतज़ार के बाद पहले भोजन कर लेना ही हमें उचित विकल्प लगा। आइसक्रीम खा चुकने के बाद पान का बीड़ा मुंह में दबाने तक भी स्टेज खाली पड़ी थी। हाँ, जेवरों से जियादा मेक अप में दबी कुछ संभ्रांत महिलाएं ऊंघती सी वहाँ जरूर आ बैठी थी। वर वधु की करीबी समझ कर हमने उनसे पूछा- दूल्हा-दुल्हिन कहाँ हैं, आपको पता है क्या? अहसान सा उठाते हुए एक ने आँखे खोली और कहा- नहीं । आशीर्वाद हाथ में लिए हम तकरीबन पौना घंटे दूल्हे की तलाश में यहाँ-वहाँ भटकते रहे। फिर हमने अपनी गाड़ी उठाई और जनवासे का रुख किया। वहाँ पहुंचे तो देखा जनाब रकाबी में पैर रख कर घोड़ी पर चढ़ रहे हैं।...और दुल्हिन, जाने वह कहाँ थी? हो न हो ब्यूटी पार्लर से मंडप के लिए निकल पड़ी हो!
संगीत की एक महफ़िल की सुनाएँ। देश के एक नामचीन गायक की एकल प्रस्तुति थी। पास पर साफ और मोटे हरूफों में लिखा था कि कृपया समय से १५ मिनट पूर्व स्थान ग्रहण कर लें। हमें यह भी मालूम था कि कलाकार बेहद नाज़ुक मिजाज़ होते हैं और बेवजह की हरकतें प्रस्तुति के दौरान पसंद नहीं करते । सो गाडी पार्क करने से ले कर सभागार में अपनी सीट ढूँढ कर उसे ग्रहण करने में खर्च होने वाले समय का हिसाब लगाया, जो कि दस मिनट निकला। अब पंद्रह में ये दस मिनट जोड़ कर हम कोई पच्चीस मिनट पहले पहुँच गए। सभागार खाली था, कुछ कद्रदान गेट पर अवश्य मंडरा रहे थे। मुमकिन है, अकेले में दम घुटता सा देख बाहर आयोजकों में आ खड़े हुए हों। रफ्ता-रफ्ता रसिकों की आमद-रफ्त का सिलसिला बना लेकिन जब तक साजिन्दे मंच पर आ कर अपने साज़ ठीक करते, भले आदमियों का सोने का समय को चुका था।