Saturday, March 27, 2010

खंड खंड व्यंग्य

एक पोरट्रेट
उनकी सफाचट चाँद पर इने-गिने बाल इस जतन से रखे गए प्रतीत होते थे मानो पश्चिम दिशा से खोपड़ी के गोलार्ध पर अक्षांश रेखाएं पूर्व की ओर चली गयी हों।
रचना कर्म
रचना कर्म खुजाने की तरह है। जब तक खुजा न लो, चैन नहीं पड़ता, वैसे ही जब तक लिख न मारो, करार नहीं आता। ...जब खुजली हदों को पार कर जहाँ-तहाँ फूटने लगे, समझो कि लेखक साहित्यकार हो गया।
उपवासी
व्रत उपवास करने वाले निराहारी नहीं बल्कि भिन्न आहारी होते हैं, उसी तरह जैसे विकलांग 'डिफरेंटली एबल्ड' होते हैं, 'डिसेबल्ड' नहीं.
फॉरप्ले
पत्रिका खरीदते ही हम उस पर टूट कर नहीं पड़ते बल्कि वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसे कोई शेर करता है। वह शिकार को खाने से पूर्व उसके साथ खेलता है, उसे चाटता है, सहलाता है उसी भांति हम भी कभी पन्ने पलटते हैं, कभी इनडेक्स देखते हैं, तो कभी यहाँ वहाँ टटोलते हैं।
गप्पी
रन लेने दौड़ पड़े खिलाडी रन लेना भूल कर बीच विकेट के बातों में लग जाएँ।
प्रयोगशाला
कपाल के बीचो-बीच से शुरू हो कर नाक के पठार से होती हुई ठुड्डी के मध्य बिंदु को मिलाने वाली रेखा के एक तरफ का क्षेत्र .......जिधर विज्ञापित रेज़र से शेव करने के बाद सुंदरियाँ लिपट-लिपट जाएँ।
आश्रित
पत्नी, बच्चे, बीमारी।
सूचना
यहाँ हर तरह का श्रृंगार किया जाता है.....काया पलट नहीं।
डायपर
बच्चे का अटेच्ड टायलेट, मम्मी का एम्पावरमेंट।
भगवान का परफार्मेंस क्वोशेंट
माना मनोकामनाओं की कुल संख्या अथवा भक्तों पर आन पड़े संकट=
मन-वांछित फल प्राप्त अथवा संकट मोचित= ब
भगवान का परफार्मेंस क्वोशेंट = ब /अ

Friday, March 19, 2010

जब हमने चाकू चलाया

जाने हमें कौनसे पालतू कुत्ते ने चाटा था जो हम अपने मित्र एवं मेजबान, जिनकी पत्नी हाल ही में मायके प्रस्थान कर गयी थी, के सामने रसोई कार्य में हाथ बंटाने का प्रस्ताव रख बैठे। तुरंत प्रस्ताव मंजूर कर उन्होंने काटे जाने वाले मद एक तश्तरी में रख कर हमारी ओर बढ़ा दिए। फिर जो औजार उन्होंने हमारे हाथ में थमाया उसकी धूसर सतह पर पड़े काले भूरे चकत्तों को देख कर मालूम पड़ता था गोया वह मोहनजोदड़ो या हड़प्पा के ज़माने का हो व उत्त्खनन से प्राप्त किया गया हो। मेरे मित्र उसेचाकू कह रहे थे, मगर चाकू समझ कर उस पुरातात्विक नमूने के साथ बेइंसाफी करने को मेरा मन नहीं मान रहा था। फ़र्ज़ करो वह चाकू ही था, तो कोई सिद्ध पुरुष भी यह सही-सही कह सकने कि स्थिति में नहीं था कि वह किधर से उल्टा है, किधर से सीधा अथवा उसके किस हिस्से को मूठ कहा जाए, किस को धार। जिस तरह 'श्रीराम' नाम लिख कर समुद्र में फेंकने से शिलाएं तैरने लगी थी, प्रस्तुत यंत्र को 'चाकू' नाम से पुकारने पर वह चल निकलेगा, कुछ ऐसे ही चमत्कार की उम्मीद हम भी कर रहे थे। किन्तु बारी-बारी चारों तरफ से इस्तेमाल की लाख सर-पटक कोशिशों के बाद भी आलू व प्याज अक्षत ही रहे, यानि दो टुकड़ों में भी तब्दील न हो सके। ताज्जुब हुआ कि आखिर घर के लोग इससे किस तरह काम लेते रहे होंगे? उसी क्षण हमें अहसास हुआ कि आखिर तजुर्बा क्या होता है! यह भी कि अभ्यास हो तो काटने के लिए किसी चाकू, छुरे अथवा दरांते की भी जरूरत नहीं होती, बल्कि चीजें वैसे ही 'रसरी आवत जात' की तर्ज पर खुदबखुद कट जाती हैं।
हर किसी में चाहे सौ नुक्स हों, एक न एक सिफत जरूर होती है। इस तथाकथित चाकू में भी एक बड़ा भारी गुण था। यह उस दुर्लभ प्रजाति का वारिस था, जो खरबूजे पर गिरे या खरबूजा उस पर, खरबूजे का कुछ नहीं बिगड़ता था। शरीफ खानदान के बेहद नेक चाल-चलन वाले इस उपकरण से पालक, ककड़ी, टमाटर आदि तरकारियों के साथ-साथ काटने वाले के हाथ भी सर्वथा सुरक्षित रह सकते थे। किसी-किसी गुमराह चाकू को झगडालू, शराबी पति के हाथों में आकर अपनी पत्नी की अंतड़ियाँ बाहर निकालते भी देखा गया है। लेकिन हमारे मित्र के चाकू में गलत हाथों में पड़ने की सम्भावना न के बराबर थी। बेशक यह 'चाकू' घास-फूस की तरह हानिरहित और अहिंसक था।
खैर, जैसे-तैसे हमने अपने मित्र को खींच कर घर से बाहर नाश्ता लेने के लिए तैयार कर लिया। रास्ते में मौका पा कर उनसे विनती की, 'बरखुरदार, इस तरह के औजार आज देश भर में इने-गिने ही रह गए हैं, सो इन्हें विलुप्ति से बचाना हम सबका दायित्व बनता है। अतः आप इसे इसकी सही जगह, राष्ट्रीय संग्रहालय पंहुचा दें तो यह बेजुबान आपको जी भर कर आशीष देगा, साथ ही साथ सम्पूर्ण राष्ट्र भी आपका चिर ऋणी हो जायेगा।'