Monday, November 26, 2018

बॉक्सिंग बाउट



फ़ाइनल्स की पहली बाउट अपनी पिंकी और चीन की पेंग के बीच थी। पिंकी, पेंग को दौड़ा-दौड़ा कर पीट रही थी। पेंग रिंग के चारों तरफ बचती फिर रही थी। रिंग के किनारे-किनारे अगर मोटे-मोटे रस्से न बांधे गए होते तो वह रिंग छोड़ कर कब की भाग गयी होती! वैसे चकमा देकर भाग निकलने में रस्सों के अलावा भी एक और बहुत बड़ी दिक्कत थी। रिंग के अंदर एक हट्टी कट्टी  बाउंसर जैसी महिला दोनों मुक्केबाजों की हरकतों पर नजर रखने के लिए ही छोड़ी गयी थी। यूं कहने को तो उसे रेफ़री कहा जा रहा था, मगर उसका प्रमुख काम किसी बॉक्सर को जिताना या हराना नहीं था। इस काम के लिए अलग से चार पाँच जजों की टोली रिंग के बाहर बिठाई गयी था। जहां तक हमें समझ आया रेफ़री को रिंग में इस लिए रखा गया था ताकि कोई पिटता हुआ मुक्केबाज़ अगर रस्सा टाप कर भागना चाहे तो उसे वापस घसीट कर रिंग में लाया जा सके। खैर, मुक़ाबले में मार खाते-खाते एक समय पेंग को लगा कि वह अब और ज्यादा मुक्के नहीं झेल पाएगी। अपने सामने कोई और रास्ता न देख, वह झट से पिंकी के गले इस अदा से पड़ गयी जैसे राहुल गांधी नरेंद्र मोदी के गले पड़ गए थे। लंबी जद्दों-जहद के बाद रेफ़री ने बुरी तरह से गुत्थमगुत्था हो चुकी दोनों खिलाड़ियों को जैसे-तैसे अलग किया। यह सब देख कर ही हमे रेफ़री का दूसरा अहम काम समझ आया जो कि एक-दूसरे में अंदर तक गुंथ गयी बॉक्सरों को खींच कर अलग-अलग कर फिर से मुक्के खाने के लिए तैयार करना था।

पेंग के अलग होते ही पिंकी ने फिर से मुक्कों की बरसात शुरू कर दी। उसे देख कर ऐसा लग रहा था  कि आज वह पेंग का भरता ही बना कर छोड़ेगी। वो तो शुक्र मनाओ कि बाउट का समय समाप्त हो गया। रेफ़री ने पिंकी को अपनी बांयी तरफ तो पेंग को दांयी तरफ खड़ा कर दोनों की कलाइयाँ मजबूती से पकड़ ली ताकि नतीजा सुन कर दोनों एक दूसरे के सिर न फोड़ बैठें। पिंकी को नतीजे की इंतजार करना मुश्किल लग रहा था। वह कभी गज-गज भर उछल कर खुद को जीता हुआ समझते हुए हवा में मुट्ठी लहराने लगती, तो कभी उत्तेजित होकर  खुशी के मारे जार-जार ही रोने लगती। लेकिन रेफ़री ने जब पेंग का हाथ ऊपर उठा कर उसे जीता हुआ घोषित किया तब हमें पता चला कि खुद खिलाड़ी अथवा ओडियेंस पोल  पर मुक्केबाज़ी का फैसला क्यों नहीं छोड़ा जा सकता! हम और आप जिस खिलाड़ी को जीता हुए मान रहे हों, वह हार जाए और जो हारता हुआ दिख रहा हो वह मुक्केबाज़ जीत जाए तभी समझ आता है कि आखिर जज करना क्या होता है!!

अगला मुक़ाबला शुरू हुआ। दस्ताने टकराते ही दोनों खिलाड़ी आक्रमण की मुद्रा में आ गयीं। किंग कोबरा की तरह घड़ी-घड़ी दोनों अपने-अपने धड़ कभी बांये लहराती, तो कभी दांये। एक दूसरे से बराबर दो-दो हाथ की दूरी रखते हुए दोनों अपने-अपने विपक्षी की तरफ एक अरसे तक फूँ-फाँ करती रही। इस तरह पहला दौर यूं ही डराने धमकाने में गुजर गया। दूसरा दौर शुरू हुआ। अबकी बार एक खिलाड़ी अपने असली और नकली दोनों दाँतो की जोडियाँ ज़ोर से किटकिटाते हुए दूसरी की तरफ यूं झपटी मानों सर्जिकल स्ट्राइक करके ही लौटेगी। किन्तु दूसरी ने चपल नेवले की तरह फुर्ती से बगल हो कर उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया। अब दूसरी ने पहली के थोबड़े पर कस कर मुक्का जमाया मगर बदकिस्मती से जिसे वह थोबड़ा समझ रही थी वह सामने वाली का दस्ताना निकला। तीसरे और आखिरी दौर में बड़ा ही जंगी मुक़ाबला देखने को मिला। अब वे इस स्टाइल में लड़ने लगीं मानों दो झगड़ालू पड़ोसनें एक दूसरे का झोंटा खीच-खींच कर उसकी दुर्गति बनाने पर तुली हों। कभी एक बॉक्सर विपक्षी को रिंग के रस्सों पर पटक देती तो कभी दूसरी, सामने वाली को जमीन पर गिरा कर उसकी छाती पर चढ़ बैठती। 

कहना मुश्किल था कि कौन किस पर भारी है। दोनों ही साढ़े उन्नीसी नजर आ रही थी , बिलकुल न तुम जीते, न हम हारे की तर्ज़ पर। अब सबकी निगाहें उधर लगी थी। देखने की बात यह थी कि वे किस पूनम के चाँद को सूरज सिद्ध करते हैं यानि किसके गले में सोना डालते हैं, किसके हिस्से में चांदी लिखते हैं! आप समझ ही गए होंगे कि हमारा इशारा जिन गुणीजन की तरफ है, उन्हें ही जज कहा जाता है!

Sunday, October 7, 2018

गए थे नमाज़ बख्शवाने....रोज़े गले पड़ गए !!



बड़ा शोर सुनते थे की इक्कीसवीं सदी में विज्ञान ने ये तरक्की कर ली, वो तरक्की कर ली। हम नहीं मानते! हमें तो लगता है कि जिस जगह हम पचास-साठ साल पहले थे, आज  भी वहीं खड़े हैं।  नज़ला जुकाम हो तो पहले भी हकीम वैद्य जी जड़ी-बूटियों का काढ़ा पीने की सलाह दिया करते थे। आज के पढे लिखे डाक्टर भी सर्दी खांसी में गोलियां लिखने के बाद भी नमक के पानी के गरारे दिन में पाँच वक़्त करने की ताकीद करते हैं।  भला कोई इनसे पूछे, भले मानुषों! अगर गरारे ही लिखने थे तो फिर ये तीन-चार गोलियां क्यों लिख रहे हो। और अगर गोलियां इतनी ही जरूरी थीं तो फिर गरारों के बदले एक और गोली क्यों नहीं लिख देते! सालों-साल डाक्टरी में एड़ियाँ घिसने पर भी क्या आपको किसी ऐसी गोली के बारे में नहीं पढ़ाया गया जो सर्दी खांसी में पहले ही से बेहाल मरीज को गरारों की जहमत  से बचा सके! अब बदकिस्मत मरीज के पास जान बचाने की बस एक ही सूरत बचती है- यही कि कोई ऐसी जुगत भिड़ाई जाए कि किसी को कानों-कान खबर लगे बगैर गरारे गोल कर दिये जाएँ! मगर आप भूल रहे हैं कि हर घर में डाक्टर की बैठाई गई एक खुफिया एजेंट होती है जिसे शास्त्रों में बीवी कहा गया है। वह आपको अपने  नेक इरादों में सफल नहीं होने देगी। रह-रह कर आपको गरियाएगी, “सुबह- सुबह खामखां का बखेड़ा कर रहे हैं, चुपचाप गरारे कर क्यूँ नहीं लेते। आखिर आप ही के भले के लिए तो हैं।“ अब उनसे कौन उलझे कि हे भागवान! अगर गरारे ही भले के लिए हैं तो फिर पर्ची में लिखी तीन चार गोलियां काहे के लिए हैं!

आप क्या जानें गरारा क्या चीज़ है! यह सिर्फ वही बता सकता है जिसे कभी पाँच वक्ती नमाज़ की तरह गरारे करने पड़े हों। इस तुच्छ प्राणी के अनुसार गरारा एक बेहूदा किस्म की वह क्रिया है जिसमें गरारा करने वाला अर्थात गरारक, बेहद खारे पानी का एक-एक घूंट भरता है किन्तु उसे न तो गटकता है और न ही कुल्ले की तरह बाहर ही फेंकता है। तो बजाहिर यह कड़वा घूंट उसे एक अरसा गले के अंदर संभाल कर रखना होता है। न केवल संभाल कर रखना होता है बल्कि अंदर की हवा बाहर निकालते हुए गले के अंदर ही अंदर उसे गेंद की तरह टप्पे भी खिलाना होता हैं। इस सब का नतीजा यह होता है कि गरारक एक  सियार की तरह आसमान की जानिब मुंह उठा कर हुआं- हुआं, हुआं- हुआं की तर्ज़ पर गर्र-गर्र,  गर्र-गर्र की अजीब सी आवाजें निकालता हुआ दीख पड़ता है। फर्क बस इतना भर है कि सियार को यह क्रिया समूह के साथ अंधेरे में करने की सुविधा है, जब उसे दूसरा कोई जानवर नहीं देख रहा होता। जबकि गरारक को यह काम दिन दहाड़े अकेली-जान सम्पन्न करना होता है। इस कारण उसे अपने आसपास मौजूद लोगों की नजरों में सरकस जैसे करतब दिखाने वाला जोकर  समझे जाने का पूरा-पूरा खतरा रहता है।

गये महीने की ही बात है। नित्य-कर्म से फारिग हुए ही थे कि पत्नी ने गरारों का पानी सामने रख दिया। हमें वो मनहूस घड़ी याद आ गई जब हम उस गरारा डाक्टर के पास गए थे। गले के अंदर बहुत गहरे झाँकने के बाद उन्होंने अपना फैसला सुना दिया था।  गोलियां लिख रहा हूँ पर ये उतना आराम नहीं करेंगी जितना गरारे....नमक के गुनगुने पानी से दिन में पाँच मर्तबा गरारे करो।“ “पाँच! हम सकते में आ गए। डरते झिझकते  बोले- सर,  सीनियर सिटिज़न हूँ, सेवा निवृत्त हो चुका हूँ,....पाँच बार के गरारे नहीं झेल पाऊँगा। थोड़ी रियायत कर दीजिये!” वे डपट कर बोले, “रिटायर हो गए तो  कहीं काम पर भी नहीं जाना...फिर गरारों में क्या दिक्कत है!”  “तो आप हमें इलाज़ दे रहे हैं कि काम दे रहे हैं!” इतना कह कर हम भुनभुनाते हुए क्लीनिक से बाहर आ गए।

डाक्टर लोग गरारा तो लिख देते हैं, मगर यह नहीं लिखते कितना गरम पानी गुनगुना माना जाए...या कितने लीटर पानी में कितने ग्राम नमक मिलाया जाए कि गरारे का पानी बन जाए। उल्टी दस्त के मर्ज में दवाइयों की दुकान पर बना-बनाया ओ.आर.एस.  नाम का घोल मिल जाता है। लेकिन नजला नाज़िल होने वालों के लिए तैयार किया हुआ गरारों का पानी कहीं नहीं मिलता। सो गरारक को तरह-तरह की तकलीफ़ों से दो चार होना पड़ता है। बाज दफा पानी में गर नमक कुछ ज्यादा ही डल गया तो गरारक पर जो गुजरती है उसे आसानी से बयान नहीं किया जा सकता। गरारा-रूपी हलाहल को हलक में उछालते-उछालते अक्सर वह भगवान शिव की तरह नील-कंठ हो कर रह जाता है।

दुनिया का सबसे झकमार और उबाऊ काम अगर कोई है, तो वो गरारे करना है। बच्चों को रोज भारी भरकम गृह कार्य के तले दाबने वाले जालिम मास्टरों की तरह ही डाक्टरों की  प्रजाति भी मरीजों को गरारा जैसे फिजूल के जानलेवा कामों  में भिड़ा कर मजा लेती है। लेकिन हमारी बात अलग है। हम पर जुल्म करने वालों को शायद मालूम नहीं कि वे अगर दवाई डाक्टर हैं, तो हम  पढ़ाई डाक्टर (पीएच. डी.) है। वे इलाजपति हैं, तो हम किताबपति हैं। सो  उन्हें चकमा देना हमारे लिए कोई बड़ी बात नहीं। जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि उनसे कहीं बड़ी मुसीबत पत्नी है, जो घर में हमारी हरकतों पर लगातार नजर रखती है। वह कब औचक रसोई से वाश बेसिन की तरफ देखने आ जाये कि हम गरारे कर भी रहे हैं या नहीं, कोई नहीं बता सकता! मगर हम भी छकाने में कुछ कम नहीं। हम मुंह से गरारों जैसी इतनी ऊंची आवाज़ निकालते हैं कि रसोई में काम कर रही पत्नी आसानी से सुन सके। साथ ही घूंट के माप के बराबर पानी की छोटी-छोटी आहुतियां लगातार वाश बेसिन को देते चलते हैं ताकि पत्नी के अचानक इधर आन पड़ने पर उसे बिलकुल शक न हो। इस तरह अपनी होशियारी के दम पर हम डाक्टर और अपनी धर्म पत्नी दोनों को सदा चकमा देने में तो कामयाब रहे किन्तु सर्दी खांसी को चकमा नहीं दे सके। सो अगली बार फिर डाक्टर के पास जाना पड़ा और फिर गरारे गले पड़ गए!!


Friday, May 4, 2018

दास्ताने कूलर-ए-आजम



अदा और डील डौल में वैसा ही रूआब मानों नए चलन की डब्बा कारों में एम्बेसेडर, बाइकों में एनफील्ड या फिर ट्रैक्टरों में आयशर हो! जी हाँ! ऐसा ही है हमारा राजे-रजवाड़ों के जमाने का कूलर। जितना पानी आजकल के मामूली कूलर दिन भर में खर्च करते हैं उस से कहीं ज्यादा तो यह जनाब एक बार में  फिजूल बहा देते हैं। यह उन सड़क-छाप कूलरों में नहीं जिन्हें घर के छुटके भी कान पकड़ कर इधर से उठा कर उधर बैठा देते हैं। गर्मी का सीज़न आया नहीं कि बालिश्त भर ऊंची चार ईंटों के तख्ते ताऊस पर इन्हें उसी ठाठ से गद्दीनशीन किया जाता है जैसे गए जमाने में राजाओं की रस्मी ताजपोशी किया करते थे। फिर किसी की क्या मजाल जो पूरे सीज़न भर इन्हें अपने सिंहासन से डिगा सके! 



यूं देखें तो इस कूलर में गिनती के दो एक ऐब भी थे। इधर पानी की जबर्दस्त किल्लत मगर इनकी रईसी में कोई कोर कसर नहीं! महाशय यूं ही पानी गटागट कर जाते हें गोया गाड़ी का कोई पुराना मॉडल डीज़ल पी रहा हो।  साथ ही एक और दिक्कत भी थी। पानी भरने में जरा भी चूक हुई कि इसके जिस्म के अनगिनत नामालूम सूराखों से पानी का मुसलसल रिसाव शुरू हो जाता है। फिर तो फर्श पर बहते पानी को सुखाने के लिए आपको घड़ी-घड़ी पैड़ बदलने पड़ते हैं। लिहाजा जितना पसीना कूलर की हवा खाने से सूख नहीं पाता है उस से कहीं ज्यादा, पानी को सुखाने के चक्कर में बहाना पड़ जाता है। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे चन्दन घिस-घिस कर लगाने से सरदर्द में फायदा जरूर मिलता है, मगर चन्दन घिसना अपने आप में एक बहुत बड़ा सरदर्द है!

बहुत माथापच्ची के बाद इस मसाइल का हल हमने कुछ यूं निकाला कि कूलर के लिए पानी की छोटी-छोटी ख़ुराकें तजवीज़ कर दी।  ठीक उसी तरह जैसे किसी शूगर के मरीज़ के लिए दिन में पाँच छः छोटे-छोटे  मील बांध दिये जाते हैं। इसका लाभ यह हुआ कि कूलर के ऊपरी हिस्सों में बने बारीक सूराखों का गला खुद ब खुद घुट कर रह गया। लेकिन इस ईलाज़ ने एक नयी बीमारी पैदा कर दी। अब दिन का हमारा ज़्यादातर समय पाइप को टोंटी में लगाने और फिर तह कर उसे उठाने में गुजरने लगा। यदि ईमानदारी से उस वक़्त  का हिसाब लगाया जाता जब हम कूलर की हवा में रहे, और जब कूलर के बिना रहे तो दोनों में कोई खास फ़र्क़ नहीं आता। उस पर मुसीबत यह कि आप पल भर के लिए भी गाफ़िल नहीं रह सकते थे। पानी कम रह जाए तो मोटर के फुंक जाने  का खतरा,  ज्यादा भरा जाए तो फिर ओवरफ़्लो से निपटने की आफ़त...यानि कूलर वापरना एक दुधारी तलवार पर चलना था!

अलबत्ता सौ खोट होने पर भी उस में कुछ खास था जो हम उसके सब नाज़-नखरे खुशी-खुशी उठा लेते थे। दरअसल वह आजकल के तथाकथित स्मार्ट कैटरीना कैफ नुमा कूलरों में से नहीं था जो सिर्फ अपने सामने के गलियारे में खड़े बंदे को बस  उतनी ही ठंडक पहुंचा पाते हैं जितनी कि भरी दुपहरी में किसी बिजली के खंभे की छाया में खड़े होने पर मिलती है। हमारा यह कूलर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के जहां तहां प्रकाश करने वाले आज के खद्योत सम कवियों की तरह नहीं वरन सूर-सूर, तुलसी- शशि के समान है। यह घर भर का पारा कुछ ही मिनटों में हाथ भर नीचे गिरा देता है। इसके सामने ए. सी. भी एकदम फेल है! हाँ, लगे हाथों एक बात और... जहां आज के कूलर जेठ के महीने से जूझते हुए बजबजाने लगते हैं, यह इस खामोश अदा से अपना काम करता है मानो कोई ऋषि वन में मौन तपस्या कर रहा हो अथवा कोई हंस झील पर मंद-मंद तैर रहा हो। तभी तो घर में आने जाने वाले सब लोग इसका जलवा देख कर हैफ में सुध बुध खो बैठते हैं। तब  अपना सीना गर्व से सम्राट अशोक के अधीन भारत-भूमि सा चौड़ा हो जाता है!

इति, दास्ताने कूलर-ए-आजम!!

Thursday, April 19, 2018

घर का जोगी जोगड़ा



घर के बाहर आप कितने  ही तुर्रम खाँ बने क्यों न घूमते हो, घर के अंदर आपकी औकात धपई भर की नहीं है। भले ही दुनिया भर को ये पता हो कि रिश्ते में आप रामानुजन के परपौत्र लगते हैं, अंकों की जादूगरनी शकुंतला देवी भी आपके सामने फेल है...और यह भी कि आप संख्याओं से यूं खेलते हैं जैसे सपेरों की सन्तानें करैत और कोबरा से खेलती हैं या फिर मछुआरों के बच्चे समंदर की ऊंची-ऊंची लहरों से खेलते हैं। मगर इस सब से क्या होता है? माह की हर पहली-दूसरी  तारीख को घर में दूध के लगाए गए आपके हिसाब को तो आपकी श्रीमती जी तब तक सही नहीं मानती जब तक वह खुद हिसाब करके न देख ले!!  अगर आपको हजार रुपये दे कर किराने की दुकान पर सामान लाने को भेजा जाता है, तो आने पर आपको उनके कई सवाल झेलने पड़ते हैं, जैसे- क्यूँ जी, सामान कितने का आया? मान लो आपने कहा- सात सौ बहत्तर रुपये का, तो तत्काल एक और सवाल आप पर दाग दिया जाता हैं- वो तो ठीक है, मगर कितने रुपये वापस किए दुकानदार ने?...यानि उन्हे आपकी काबिलियत पर इतना एतबार हो ही नहीं हो पाता कि आपने बकाया यानि पूरे दो सौ अट्ठाईस रुपये दुकानदार से वापिस ले लिए होंगे!

अभी कल ही की बात है। पड़ोस की एक श्रीमतीजी हमारी वाली को उनके पतिदेव की गोपनीय रिपोर्ट बता कर गयी। बताने से पहले ये वचन लिया के वे इसे गोपनीय ही रखेंगी।  आश्वस्त होने पर खुल कर बोली- क्या कहूँ बहन जी! पता नहीं अपने मियां जी काहे के साइंटिस्ट हैं एक तरकारी तक तो ढंग की खरीद नहीं सकते, फिरोजी रंग का सूट मंगाओ तो आसमानी उठा कर चले आते हैं! मैं तो कहती हूँ जो आदमी मूंग और मसूर में फ़र्क नहीं कर सकता वो क्या खाक रिसर्च करता होगा! उधर हमारे एक और एम.बी.ए मित्र हैं बहुत बड़ी कंपनी के सी.ई.ओ। वे जिस भी कंपनी में जाते हैं उसे ही मुनाफ़े में ला खड़ा करते हैं। उन्हीं की मार्फत कंपनी बड़े-बड़े सौदे करती हैं। मगर अपनी पत्नी की नज़र में वे खुद एक घाटे का सौदा हैं क्योंकि अगर सब्जी वाला दस के दो के हिसाब नींबू दे रहा हो तो बीस के पाँच नींबू तक की डील करना तो उनके बस की बात नहीं है! और तो और वे टूथपेस्ट का ऑफर वाला 150 ग्राम का पैक छोडकर 100 ग्राम वाला उठा कर ले आते हैं। दुनिया के लिए होंगे आप मेनेजमेंट गुरु....बिजनेस बढ़ाने के नए-नए आइडिया बांट कर लोगों पर धाक जमाने वाले! मगर अपने घर में तो आप अक्ल के वह पैदल हो जो धनिया मिर्ची भी जेब के पैसे लगा कर खरीदता है! जबकि आपकी धर्मपत्नी अलग-अलग तीन चार ठेलों से सब्जी खरीदकर आपसे ज्यादा धनिया मिर्ची फोकट में इकट्ठा कर लेती है। 
  
चलो मान लिया कि आप एक बड़े भारी खगोलवेत्ता हैं! सब ग्रह-उपग्रह आपकी गणनाओं के गुलाम हैं। आप उनके लिए जैसी भी लकीर खीच देते हैं वे उसी के फकीर हो जाते हैं। फिर आँख पर बंधे कोल्हू के बैल की तरह रात दिन एक ही लय ताल मे वहीं चक्कर काटते रहते हैं। सूरज को भी ठीक उसी घड़ी में ग्रहण लगने लगता है जो आपके द्वारा निश्चित कर दी गयी होती है। चन्द्र ग्रहण भी आपके तय किए गए समय पर खुद ब खुद खत्म हो जाता है...बिना एक मिनट इधर या उधर चूके हुए। मगर आपकी यह सारी विद्या वेधशाला की चौहद्दी के अंदर ही काम आती है .....सुबह घर में प्रवेश करने के साथ आपकी सारी खगोल-विद्या देहरी पर ही छूट जाती है। नाश्ते में पत्नी के पूछने पर पराँठे की इच्छा जताने के बावजूद प्लेट में जब दलिया मिलता है (इस नेक सलाह के साथ, कि दलिया हल्का और पेट के लिए मुफ़ीद होता है!) तब महान खगोल शास्त्री को अच्छी तरह समझ में आ जाता  है कि ब्रह्माण्ड के हर छोटे बड़े ग्रह-उपग्रह की चाल पर नजर रखना एक बात है किन्तु पत्नी की किसी भी चाल को पकड़ पाना बिलकुल ही दूसरी बात है। दरअसल पत्नी के सामने पड़ते ही आपकी सारी विद्या छूमंतर हो जाती है और देखते ही देखते आपकी आत्मा एक महापंडित का चोला छोड़ महामूर्ख के चोले में प्रवेश कर जाती है!

यानि हमारे पुरखे सही ही कह गए है....कोई जोगी घर के बाहर कितना ही सिद्ध क्यूँ न हो जाए,  घर के भीतर तो उसे जोगड़ा ही रहना है!!