बड़ा शोर सुनते थे की इक्कीसवीं सदी में विज्ञान ने ये
तरक्की कर ली,
वो तरक्की कर ली। हम नहीं मानते! हमें तो लगता है कि जिस जगह हम पचास-साठ साल पहले
थे, आज भी वहीं खड़े
हैं। नज़ला जुकाम हो तो पहले भी हकीम वैद्य
जी जड़ी-बूटियों का काढ़ा पीने की सलाह दिया करते थे। आज के पढे लिखे डाक्टर भी
सर्दी खांसी में गोलियां लिखने के बाद भी नमक के पानी के गरारे दिन में पाँच वक़्त
करने की ताकीद करते हैं। भला कोई इनसे
पूछे, भले मानुषों! अगर गरारे ही लिखने थे तो फिर ये तीन-चार
गोलियां क्यों लिख रहे हो। और अगर गोलियां इतनी ही जरूरी थीं तो फिर गरारों के
बदले एक और गोली क्यों नहीं लिख देते! सालों-साल डाक्टरी में एड़ियाँ घिसने पर भी
क्या आपको किसी ऐसी गोली के बारे में नहीं पढ़ाया गया जो सर्दी खांसी में पहले ही
से बेहाल मरीज को गरारों की जहमत से बचा
सके! अब बदकिस्मत मरीज के पास जान बचाने की बस एक ही सूरत बचती है- यही कि कोई ऐसी
जुगत भिड़ाई जाए कि किसी को कानों-कान खबर लगे बगैर गरारे गोल कर दिये जाएँ! मगर आप
भूल रहे हैं कि हर घर में डाक्टर की बैठाई गई एक खुफिया एजेंट होती है जिसे
शास्त्रों में बीवी कहा गया है। वह आपको अपने नेक इरादों में सफल नहीं होने देगी। रह-रह कर
आपको गरियाएगी, “सुबह- सुबह खामखां का बखेड़ा कर रहे हैं, चुपचाप गरारे कर क्यूँ नहीं लेते। आखिर आप ही के भले के लिए तो हैं।“ अब
उनसे कौन उलझे कि हे भागवान! अगर गरारे ही भले के लिए हैं तो फिर पर्ची में लिखी
तीन चार गोलियां काहे के लिए हैं!
आप क्या जानें गरारा क्या चीज़ है! यह सिर्फ वही बता सकता है
जिसे कभी पाँच वक्ती नमाज़ की तरह गरारे करने पड़े हों। इस तुच्छ प्राणी के अनुसार
गरारा एक बेहूदा किस्म की वह क्रिया है जिसमें गरारा करने वाला अर्थात गरारक, बेहद खारे पानी का एक-एक
घूंट भरता है किन्तु उसे न तो गटकता है और न ही कुल्ले की तरह बाहर ही फेंकता है।
तो बजाहिर यह कड़वा घूंट उसे एक अरसा गले के अंदर संभाल कर रखना होता है। न केवल संभाल
कर रखना होता है बल्कि अंदर की हवा बाहर निकालते हुए गले के अंदर ही अंदर उसे गेंद
की तरह टप्पे भी खिलाना होता हैं। इस सब का नतीजा यह होता है कि गरारक एक सियार की तरह आसमान की जानिब मुंह उठा कर हुआं-
हुआं, हुआं- हुआं की तर्ज़ पर गर्र-गर्र, गर्र-गर्र की अजीब सी आवाजें
निकालता हुआ दीख पड़ता है। फर्क बस इतना भर है कि सियार को यह क्रिया समूह के साथ
अंधेरे में करने की सुविधा है, जब उसे दूसरा कोई जानवर नहीं
देख रहा होता। जबकि गरारक को यह काम दिन दहाड़े अकेली-जान सम्पन्न करना होता है। इस
कारण उसे अपने आसपास मौजूद लोगों की नजरों में सरकस जैसे करतब दिखाने वाला जोकर समझे जाने का पूरा-पूरा खतरा रहता है।
गये महीने की ही बात है। नित्य-कर्म से फारिग हुए ही थे कि
पत्नी ने गरारों का पानी सामने रख दिया। हमें वो मनहूस घड़ी याद आ गई जब हम उस
गरारा डाक्टर के पास गए थे। गले के अंदर बहुत गहरे झाँकने के बाद उन्होंने अपना
फैसला सुना दिया था। “गोलियां लिख रहा हूँ पर ये
उतना आराम नहीं करेंगी जितना गरारे....नमक के गुनगुने पानी से दिन में पाँच मर्तबा
गरारे करो।“ “पाँच! हम सकते में आ गए। डरते झिझकते बोले- सर, सीनियर सिटिज़न हूँ, सेवा
निवृत्त हो चुका हूँ,....पाँच बार के गरारे नहीं झेल पाऊँगा।
थोड़ी रियायत कर दीजिये!” वे डपट कर बोले, “रिटायर हो गए तो कहीं काम पर भी नहीं जाना...फिर गरारों में क्या
दिक्कत है!” “तो आप हमें इलाज़ दे रहे हैं
कि काम दे रहे हैं!” इतना कह कर हम भुनभुनाते हुए क्लीनिक से बाहर आ गए।
डाक्टर लोग गरारा तो लिख देते हैं, मगर यह नहीं लिखते कितना गरम
पानी गुनगुना माना जाए...या कितने लीटर पानी में कितने ग्राम नमक मिलाया जाए कि
गरारे का पानी बन जाए। उल्टी दस्त के मर्ज में दवाइयों की दुकान पर बना-बनाया ओ.आर.एस. नाम का घोल मिल जाता है। लेकिन नजला नाज़िल होने
वालों के लिए तैयार किया हुआ गरारों का पानी कहीं नहीं मिलता। सो गरारक को तरह-तरह
की तकलीफ़ों से दो चार होना पड़ता है। बाज दफा पानी में गर नमक कुछ ज्यादा ही डल गया
तो गरारक पर जो गुजरती है उसे आसानी से बयान नहीं किया जा सकता। गरारा-रूपी हलाहल को
हलक में उछालते-उछालते अक्सर वह भगवान शिव की तरह नील-कंठ हो कर रह जाता है।
दुनिया का सबसे झकमार और उबाऊ काम अगर कोई है, तो वो गरारे करना है। बच्चों
को रोज भारी भरकम गृह कार्य के तले दाबने वाले जालिम मास्टरों की तरह ही डाक्टरों
की प्रजाति भी मरीजों को गरारा जैसे फिजूल
के जानलेवा कामों में भिड़ा कर मजा लेती
है। लेकिन हमारी बात अलग है। हम पर जुल्म करने वालों को शायद मालूम नहीं कि वे अगर
दवाई डाक्टर हैं, तो हम पढ़ाई डाक्टर (पीएच. डी.) है। वे इलाजपति हैं, तो हम किताबपति हैं। सो उन्हें चकमा देना हमारे लिए कोई बड़ी बात नहीं।
जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि उनसे कहीं बड़ी मुसीबत पत्नी है, जो घर में हमारी हरकतों पर लगातार नजर रखती है। वह कब औचक रसोई से वाश
बेसिन की तरफ देखने आ जाये कि हम गरारे कर भी रहे हैं या नहीं, कोई नहीं बता सकता! मगर हम भी छकाने में कुछ कम नहीं। हम मुंह से गरारों
जैसी इतनी ऊंची आवाज़ निकालते हैं कि रसोई में काम कर रही पत्नी आसानी से सुन सके।
साथ ही घूंट के माप के बराबर पानी की छोटी-छोटी आहुतियां लगातार वाश बेसिन को देते
चलते हैं ताकि पत्नी के अचानक इधर आन पड़ने पर उसे बिलकुल शक न हो। इस तरह अपनी
होशियारी के दम पर हम डाक्टर और अपनी धर्म पत्नी दोनों को सदा चकमा देने में तो
कामयाब रहे किन्तु सर्दी खांसी को चकमा नहीं दे सके। सो अगली बार फिर डाक्टर के
पास जाना पड़ा और फिर गरारे गले पड़ गए!!
behetreen
ReplyDeleteधन्यवाद भाई जी
ReplyDeleteBahut badhia sir..
ReplyDeleteThanks unknown...
ReplyDeleteगरारे से बचने के लिए चाय म् नमक डालकर पी जाइए
ReplyDeleteऔर गरारे से मुक्ति पाइए।
Vo additional tha...gararon ke sath!
Deleteइतना डूब कर लिखा आपने कि खोपड़ी में गरारा घुस गया। :)
ReplyDeleteओह!गले से नीचे की तरफ जाने के बजाय ऊपर भेजे में पहुंच गया!
DeleteMeri baat pahle hi maan lete to doosri baar Dr ke pass na Jana padta ...
ReplyDeleteजी... गलती पति से ही होती है, खास कर पत्नी के सामने!
Deleteआभार शिवम् भाई
ReplyDeleteगुरुदेव! बचपन में जब फिल्में देखते थे तो गरारे और कुर्ते पहनी हुई नायिकएं इस पोशाक में जब कमाल की उर्दू से सनी हुई ग़ज़लों सी गुफ्तगू करती थीं तो लगता था कि खूबसूरती तो इसी लिबास में दूनी होकर प्रकट होती है. बस हमने बचपन से जो सुंदरता की कल्पना की वो सलवार कुर्ते में काम और गरारे कुर्ते में ज़्यादा थी. मुझे क्या पता था की नमाज़ में जो दुआ हमने मांगी थी वो हमें जवानी में कदम रखते ही नसीब हो जाएगी और आज तक मेरे साथ लगी रहेगी.
ReplyDeleteसर्दियों ने कुछ इस तरह जिस्म को जकड़ रखा है की हर साल बदलते मौसम के साथ हर साल बिला नागा त्यौहारों की तरह आ जाती है. और फिर शुरू होता है गरारे का सिलसिला. मांगी थी जो दुआ वो क़ुबूल हो गई. और वो भी ऐसी कि साल में दो बार, बिला नागा!
गुरुमाता का कहना माना कीजिये और गरारों का सस्वर आनंद उठाइये.
ओय...तुस्सी साड्ढे नाऴ या ओदे नाऴ!
DeleteBhut khoob sir
ReplyDeleteआभार प्रदीप
Deleteवाह...बहुत खूब गुरुदेव।।
ReplyDeleteऐ तबीयत-ए-नासाज, क्यों इतने रहमदिल डॅाक्टर से रूबरू करवा देती है, जो कड़वी गोलियों से ठीक करे तो जादूगर लगता है, और घरेलू नुस्खे बताए तो कसाई।। 😄😄 उमदा हाल-ए-दिल बयां किया है।
ReplyDeleteकड़वी दवाई घूंट के साथ अंदर... घरेलू नुस्खे ऐसे जैसे लम्बीऽऽऽऽऽऽ जुदाई!!
DeleteIs blog se sab se bada faayda medical duniya ko hai. Ek taraf pharmaceutical companiyo ko ekdum garaaro k liye ORS maafik ghol taiyaar karna chahiye, vahin dusri taraf medical schools ko turant apni kitaabo mein garaaron ki definition ko adopt kar lena chahiye.
ReplyDeleteगरारों की गोली भी बना सकते हैैं...फिर गरारा घोल की जरूरत नहीं!
DeleteVery original and refreshing as you feel after गरारे ..
ReplyDelete