Saturday, December 31, 2011

वाह, वाह री मल्टी....!!





रहन के जिस निज़ाम को हम छोड़ आए हैं वहाँ या तो नीचे जमीन आपकी होती थी या ऊपर आसमान आपका। शुद्ध द्वंद्व था। लोग तलचर थे अथवा छतचर। अब ठिकाना छोड़ ही दिया तो वो राज़ बताएं जिसे आज तलक हमने सीने में छुपाये रखा। मालूम है अरसा पहले हमारे नीचे वाले फ्लेट में कौन रहा करते थे? जी हाँ! खुद निदा फ़ाजली साहब, मुंबई शिफ्ट होने से ठीक पहले तक। और इसी दौरान उन्होने अपनी मशहूर गज़ल का ये मतला लिखा था:

कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं जमीं  तो  कहीं  आसमां नहीं मिलता

खैर! वे तो आलीशान बंगले में बसने मुंबई चले गए मगर हम उसी दुमंजले पर रह गए। हाल ही में हम शिफ्ट हुए तो वो भी मल्टी में, जो आधी-अधूरी ही नहीं बल्कि अधर की दुनिया है। ऐसी बस्ती जहां भूखंडों का पट्टा धौंसपट्टी से गाडियाँ अपने नाम लिखवा लेती हैं, जबकि छतों पर पानी की बड़ी-बड़ी टंकियाँ कब्ज़ा जमा कर बैठ जाती हैं। बेचारा आदमी दोनों लोकों से बेदखल हो कर दरमियानी जगह अर्थात अधर मण्डल में बसने को मजबूर हो जाता है।
मल्टियों का अपना अलग मिजाज़ है, यहाँ के तजुर्बे भी अलग हैं। मसलन अपनी मल्टी को ही लें, जहां का एक खास चलन है। मल्टी में जब मुर्गा बांग दे तभी सवेरा होता है। खुदाया अगर किसी रोज़ मुर्गा बांग नहीं दे तो देहरियों पर पेपर ही न फफड़ायें, दूध के लिए दरवाजों पर टंगे थैले-थैलियों के पेट न भरें, कामवाली बाइयाँ दरों पर दस्तक न दें, प्रातः भ्रमणक सैर पर बाहर न निकल पाएँ। बांग देने के लिए अलग से किसी मुर्गे को दिहाड़ी पर नहीं रखा जाता। चुनांचे हर घर से बारी-बारी किसी को मुर्गे का पार्ट अदा करना होता है। इस माह हम मुर्गा बने थे। मगर एक मर्तबा वक़्त पर बांग नहीं दे पाये क्योंकि चैनल की चाबी गई रात गाड़ी में ही छोड़ आए थे। सैर की मंशा से तड़के-तड़क उठकर बामुश्किल घंटा-पौन घंटा ज़ब्त किया। छह बजे जब लगा पड़ौसी उठ गए होंगे तो डरते-डरते घंटी बजाई। चाबी मांग कर कुकड़ू-कू बोल पाये।
अपनी मल्टी के हर घर में एक सर्कस पॉइंट है। इस जगह बैठ कर आप मौत के कुएं का मज़ा ले सकते हैं। जब-जब बेसमेंट में कोई टू-व्हीलर स्टार्ट कर रहा होता है तो सर्कस में मौत कुएं के अंदर करतब दिखा रहे कलाकार द्वारा मोटर साइकिल की सवारी का साफ-साफ मंजर कानों में खिंच जाता है।....कुछ दिन हुए टॉप फ्लोर पर एक खाली पड़ा फ्लैट आबाद हुआ। ए सी, इंवर्टर आदि की फिटिंग करानी पड़ी। निचली मंज़िल वालों का हाल ऐसा था जैसे हीरा-मोती की जोड़ी में जब हीरा को गिरा कर नाल ठोकी जा रही हो तो माँद पर डबडबाई आँखों खड़ा मोती अपने खुर सहला रहा हो। यहाँ हम खिड़की खोलें तो उनके कमरे में जा खुलती है, जबकि वे दरवाजा बंद करते हैं तो हमारे मुंह पर आ भिड़ता है। चर्चा है कि आजकल दस नंबर की बर्तन वाली बाई चौदह नंबर की बाई साहब से खफा है जो अपनी बालकनी में खड़ी-खड़ी उसके काम में नुक्स निकालती रहती है।
यहाँ किस्म-किस्म के हादसे होते रहते हैं। एक दिन का वाकया है। पत्नी अचानक खाना खाते-खाते दूसरे कमरे में फोन सुनने दौड़ी, जिसकी घंटी निचले फ्लैट में बजी थी। साँझ ढले अक्सर ऐसा हुआ कि फ़र्स्ट फ्लोर पर धूप बाती हुई तो सेकंड फ्लोर वाली मैडम ने ज़ोर से शंख फूँक दिया, और थर्ड फ्लोर वालों पर फोकट भक्ति का सरूर चढ़ गया। ... एक दिन तो हद ही हो गयी। ऊपर तेरह नंबर वालों के मेहमान रुखसत हुए तो आठ नंबर वाले जो खुद घर आए मेहमानों से दो पल चुरा कर दूसरे कमरे में स्कोर देखने आए थे, अकबका कर उन्हें सी ऑफ करने सीढ़ियाँ उतर गए।
सॉरी.... अभी बंद करता हूँ। बहुत तेज बास आ रही है... लगता है किसी के घर दूध जला है!
  




Tuesday, December 13, 2011

टूटे फूटे बगैर सड़क पार पहुँचने के पेटेंट उपाय



पापी पेट का सदर मुकाम इधर हो किन्तु दाना-पानी का बंदोबस्त उधर तो सड़क पार करना एक मजबूरी है। जी हाँ सड़क...जिस पर हहराता ट्रैफिक पीक आवर्स में दो धार वाली वह बरसाती नदी बन जाता है जिसमें दोनों सिरों से हजारों क्यूसेक पानी छोड़ दिया गया हो। तब इसके विकराल फाट पर आरूढ़ हो कर उस पार उतरने की कोशिश किसी बिगड़ैल घोड़े को साधने जैसी होती है। तारीख गवाह है कि इस बद-दिमाग घोड़े से टपक कर न जाने कितने प्रोफेसर देश का भविष्य बनाने के बदले हड्डियाँ तुड़वा कर हस्पतालों में अपने वर्तमान की मरम्मत करवाने में लग गए। उनकी बिगड़ी सुधारना मैंने अपना धर्म माना और सिंगल पीस सड़क-रूपी भवसागर के पार जाने की समस्या से उन्हें निजात देने की ठान ली।
इस मसायल को हल करने में पहला ख्याल यह आया कि चलो कैंपस के पीछे से एक बायपास निकलवा देते हैं। सेज वगैरह तो हालिया बात है, दुष्यंत जी तो अरसा पहले कह कर चले गए:
           उफ़ नहीं की, उजड़ गए
           लोग  कितने  गरीब हैं
लोगों से उनका मतलब किसानों से था। अर्थात अध्यापकों के क्वार्टरों के पीछे अगर किसानों के खेत रहे होते तो उन्हें बेदखल कर बायपास निकलवाने में कोई दिक्कत नहीं थी। बदकिस्मती से वहाँ कालोनी बसी है। कॉलोनी भी एकदम पॉश, जिसमे रहने वालों का मैं कुछ उखाड़ पाऊँ यह मेरी औकात नहीं। अब ले दे के दो रास्ते बचते हैं। एक ऊपरी यानी वायुमंडलीय मार्ग और दूसरा अंदरूनी माने भूगर्भीय मार्ग। प्रोफेसरों की पकी उम्र का ध्यान आते ही ओवरब्रिज तो आइडिया में बनते-बनते ही ढह गया। क्योंकि मौत के फरिश्ते जब पिक अप करने को खुद सड़क पर उतरने को तैयार हों तो ओवरब्रिज के रास्ते चढ़ कर उन तक जान देने जाने की मूर्खता भला कोई पढ़ा लिखा क्यूँ करेगा? रही अंडरपास बनाने की बात। सो खबर हो कि यूनिवर्सिटी में जो पढ़ते हैं वे हैं जवां दिल लड़के और लड़कियां। अब इश्क़-मोहब्बत का पर्चा सिलेबस में तो होता नहीं क्योंकि इंशा जी की यही मंशा थी। वे अक्सर कहा करते थे:
     खेलने  दो  इन्हें  इश्क़  की  बाज़ी,  खेलेंगे तो  सीखेंगे
     अब कैस की या फरहाद की खातिर खोलें क्या स्कूल मियां
मगर तय है कि उनके द्वारा भड़काए हुए प्रेमी युगल इश्क़ का खेल कक्षाओं के बाहर तो कहीं न कहीं जरूर खेलेंगे। अभी तक जो बिसात वे पार्क के झुटपुटे में, पार्किंग शेड के तले, लाइब्रेरी में अलमारियों की आड़ में चोरी-छिपे बिछाते रहें हैं, मुझे डर है कि उसे दिन-दहाड़े अंडरपास में बिछा कर न बैठने लगें। यदि ऐसा हुआ तो वो मकसद जिसके लिए अंडरपास बना था उसे फेल होने से कोई नहीं रोक पाएगा।
तीन-तीन विकल्पों का एक के बाद एक यूं मिसकेरिज हो जाने के बाद प्रभु को गुहारने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। मगर वे तो भरे बैठे थे, प्रकट होते ही दहाड़े- ये बता, फ़र्लांग-फ़र्लांग चौड़ी सड़कें मैंने बनाई क्या? और गाड़ियों की रेलमपेल क्या मेरी वर्कशॉप से निकली है? एक तो बाप को धकिया कर खुद मालिक बन बैठा, ऊपर से उसी से मदद मांगता है! फिर दो टूक लहजे में बोले- देख, कुदरती आफतों से निपटने के लिए जरूरी ताकत और अक्ल मैं पहले ही तुझे दे चुका हूँ। तेरे खुद के खड़े किए बखेड़ों का मैंने ठेका थोड़े ही लिया है! तू तो खुदमुख्तार है, संप्रभु है, अपने टंटे खुद सुलट। इतना कह कर वे अंतर्ध्यान हो गए।
परमपिता से यूं लतिया दिये जाने के बाद मैं परम चाचाओं यानी वैज्ञानिकों की शरण में पहुंचा। चाचाओं ने झटपट इसी थीम पर राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस का अधिवेशन तलब कर लिया। इस महाकुंभ की सदारत करते हुए प्रधानमंत्री जी ने उनसे धारा से कटे, सड़क के छोर पर डरे-सहमे खड़े आदमी के हितों की रक्षा का आह्वान किया। वे फौरन दर्जनों समूहों में बंट कर शोध-पत्र पढ़ने में भिड़ गए। समापन की रस्म के साथ कई उपाय राष्ट्र को समर्पित कर दिये  गए।
कृषि वैज्ञानिकों ने देश में भैंस अनुसंधान केंद्र खोलने को इस समस्या का हल बताया। मुझ जैसों को हक्का-बक्का देख उन्होने साधारण आदमी की जुबान मे समझाया। बड़ी-बड़ी नदियों के उस पार पहुँचने के लिए दोनों तटों पर किश्तियाँ लंगर डाले रहती हैं कि नहीं? ऐसे ही सड़क के दोनों किनारों पर आठ-दस भैंसों का झुंड लंगर डाले रहे। जब किसी प्रोफेसर को सड़क पार जाना हो तो वह लंगर उठाए यानी खूँटों से रस्सियाँ खोले और झुंड को दूसरी तरफ हांक दे। फिर सावधानी से झुंड के बीचों-बीच कवर लेकर दोनों ओर के ट्रैफिक की छाती पर मूंग दलता हुए परली पार पहुँच जाए। बस, समस्या हल। कोई समस्या अगर बचती है तो वह है पर्याप्त संख्या में भैंसों की आपूर्ति की। इस पर निरंतर शोध की जरूरत है।
शीर्ष रक्षा वैज्ञानिकों के विचार में इस सिलसिले में रक्षा चश्में विकसित किए जाने चाहिए। ये आधुनिक थ्री डी चश्में पहनने पर आपकी निगाहें यदि दायीं ओर से आ रहे ट्रैफिक पर मुसलसल जमीं हों तो भी आप रोंग साइड से घुस रहे टू/थ्री/फोर व्हीलर को देख कर ठुकने से बच सकते हैं।... एयरपोर्ट पर प्रवेश द्वार के करीबी घेरे में कदम रखते ही काँच के गेट खुद ब खुद खुल जाते हैं। ठीक इसी तकनीक के इस्तेमाल से सड़क पार कर रहे पैदल यात्री के पैर सड़क पर पड़ते ही तत्काल दोनों ओर ट्रैफिक के चक्के थम जाएंगे और यात्री के उस पार पहुँचते ही स्वतः ही पूर्व स्थिति में लौट आएंगे। यांत्रिकों का दावा था कि वे बस इस तकनीक को सिद्ध करने के मुहाने पर ही खड़े हैं। अर्थशास्त्रियों की जमात ने एकमत से इस चुनौती को इकोनोमी के लिए छुपा हुआ वरदान बताया। देश भर में फैले सड़कों के विशाल जाल को देखते हुए उनके निम्न उपाय से न केवल खाली खजानें ओवर फ्लो करने लगेंगे बल्कि नौकरियाँ भी इतनी पैदा होंगी कि लोग कम पड़ने लगें। उनकी विद्वतापूर्ण राय थी कि पूरे भारत में खुदरा हैलमेट काउंटरों की श्रंखला खड़ा करना ही इस समस्या का असल तोड़ है। पैदल यात्री सड़क के इस पार बने काउंटर से रेंट का भुगतान कर हैलमेट इशू कराएँ और सुरक्षित उधर पहुँचने के बाद उस पार के काउंटर पर जमा करा दें
स्पोर्ट्स साइंटिस्टों ने सड़क पार करने वालों की वीडियो क्लिपिंग का बार-बार चला कर घंटों विश्लेषण किया। उन्होंने गौर किया कि इस दौरान सम्पन्न की जाने वाली तमाम क्रियाएँ इसे कबड्डी के खेल के बेहद करीब लाती हैं। वही- दूसरे के पाले में जाने से पहले गहरी सांस लेना, कबड्डी कबड्डी कबड्डी के बदले राम राम राम की लड़ न टूटने देना। कभी-कभी घबरा कर अधबीच से ही कदम वापस खींच कर अपने पाले में सुरक्षित लौट आना। एक हाथ आगे बढ़ाए हुए दौड़ती गाड़ियों के बीच घुसना...कभी चार कदम आगे बढ़ना तो कभी दो पीछे हटना। यहाँ तक कि खेल के मूल नियम भी वही हैं। छू लिए गए तो खेल से आउट, आगे पीछे दोनों सिम्त घिर कर दबोच लिए गए तो जिंदगी से भी परमानेंटली आउट। फर्क बस इतना कि यहाँ बिना छुए पार पहुंचे तो जीते। उनका कहना था कि कबड्डी के राष्ट्रीय कोच को बुला कर कैंपस में कैंप लगा कर प्रोफेसरों को प्रशिक्षण दिलवाया जाए तो काफी हद तक समस्या से छुटकारा मिल सकता है।
इन उपायों पर अमल शुरू करने भर की देर है। बासलामती सड़क पार करने की समस्या अब बस हल हुई समझो!!            








Friday, December 2, 2011

श्रीमद्जलगीता


(पिछले दिनों एक रोज़ ब्लॉग पर पहुंचे तो वह अपनी जगह से गायब मिला। वहाँ छोड़े गए एक पुर्जे से पता लगा कि त्यागी उवाच को बलात अगवा कर लिया गया है। ढूँढने के लिए बहुत हाथ पैर मारे, मगर सब नाकाम। हार कर अपहर्ता से वार्ता करने का जिम्मा अपने बेटे को सौंपा। वार्ता के दो-तीन दौर के बाद ही ब्लॉग छुड़ाया जा सका। बारबार पूछने पर भी उसने यह नहीं बताया कि फिरौती में गूगल ने उससे क्या वसूला है।
खैर, अगले हादसे के डर से पोस्टों को कॉपी-पेस्ट कर बैकअप फ़ाइल बनाई। किताब छापने की मंशा से वे लेख भी टाइप कर रख लिए जो ब्लॉग पर नहीं पड़े थे मगर अन्य पत्र-पत्रिकाओं में छपे थे। ब्लॉगर बंधुओं से मेहनत वसूल (टिप्पणी के जरिये) के लिए उनमे से एक ब्लॉग पर लगा रहा हूँ जो हास्य-व्यंग्य की पत्रिका लफ्ज मे छपा था ....)   


अथ श्रीमदजलगीता

एक: नल क्षेत्रे-जल क्षेत्रे
जलक्षेत्रे नलक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः
बालका नर नारीश्चैव किमकुर्वत संजय।
(अर्थात, हे संजय, जल क्षेत्र यानि नल के मुहाने पर जल-युद्ध के लिए तत्पर बालकों, नर और नारियों ने क्या किया?)

दो: न्यूनतम साझा कार्यक्रम

*सीमा सुरक्षा बल की तर्ज़ पर जल सुरक्षा बल /नल सुरक्षा बल का गठन
*स्विस बैंकों में जमा जल राशियों का पता लगा कर देश में वापस लाना
*जमीन के अन्दर से जमीन के अन्दर दुश्मन की पेय जल पाइप लाइन पर अचूक वार करने वाले मध्यम दूरी के जल प्रक्षेपास्त्र का परीक्षण करना
*शासकीय कर्मचारियों को अपने घरों के लिए पानी भरने हेतु स्ट्रेटेजिक टाइम आउट की मंजूरी
*गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों के लिए सस्ती दरों पर (एक रूपया प्रति ड्रम ) पानी मुहैय्या कराना
तीन: अदा-ए-नल

वो तेरा इस लहज़ा आना ...
कि एक लम्हे की झलक, फ़िर दूर कहीं खो जाना,
मुद्दतों तडपना।
जाने जानां...
वो तेरा इस लहज़ा आना।

चार: जल मेनिफेस्टो
सदियों से समाज दो वर्गों में बंटा है। एक तरफ मुट्ठी भर जलवान कुलीन तो दूसरी तरफ असंख्य जलहीन दीन। एक आकंठ सिंचित तो दूसरा ठेठ वंचित। दोनों में जल संघर्ष अटल है। वंचितों, एक जुट हो! जल पर कल जन-जन का हक़ होगा।


पाँच: पानी के प्रकार

पानी के तीन भेद हैं। पहली प्रकार का पानी वह है जो स्वयं नलों में आ जाता है। दूसरी प्रकार का पानी मोटर आदि से जबरन खींच कर नलों में लाया जाता है। और तीसरी प्रकार का पानी वह है.....जो टैंकर-युद्ध में अपने घोर पराक्रम से प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर प्राप्त किया जाता है.

छह: जहर

अरे! अरे! क्या कर रहे हो? नीट पीओगे तो लीवर का सत्यानाश हो जाएगा। पानी में कुछ मिला क्यों नहीं लेते? सोडा, व्हिस्की, पेप्सी.... कुछ भी।





सात: ये जो एक शहर था

इस नगरी में अब कोई नहीं रहता - न कोई मानुस, न चौपाया और न ही परिंदा। सड़कें तो हैं मगर वीरान हैं; फैक्ट्रियों में मशीनों के हमेशा घूमते चक्के पूरी तरह जाम हैं। हाट-बाज़ार अब यहाँ किसी रोज नहीं सजते और न ही नुमायशें या मेले ही भरते। मंदिरों में भजन और मस्जिदों में अजान की गूंजें कब की गुम हो चुकी हैं। स्कूलों और कालिजों के प्रांगण एक अरसे से सूने है। सब तरफ़ एक मुर्दनी सी छाई हुई है।
सुनते हैं, जब यहाँ पानी था तो एक शहर हुआ करता था।



आठ: जल ऑडिट

सर्व जल अभियान से सम्बंधित एक याचिका की सुनवाई करते हुए माननीय न्यायालय ने सरकार को निर्देशित किया कि वह शीघ्र एक जल नियामक तंत्र विकसित करे। साथ ही सरकार को आदेश भी दिया कि वह हर घर के जल खर्च का वार्षिक ऑडिट कराये। माननीय न्यायालय ने यह भी कहा कि शौच जैसे अत्याधिक महत्व के कार्यों पर खर्च की गई जल राशि को ऑडिट से मुक्त रखा जाए।





नौ: जलोपनिषद

पानी एक है, निराकार है, किंतु हम सांसारिक जीवों को यह टैंकर, टंकी, बाल्टी आदि के रूप में दिखता है। यह सब प्रकार के बंधनों से परे है मगर मोह माया के अज्ञान में पड़ कर प्राणी इसे तेरा-मेरा समझने लगते हैं व सिर-फुटौवल करते हैं।



दस: जलोपदेश

पानी के मिल जाने पर इतना अहंकार मत कर, न ही नल के चले जाने पर नाहक शोक कर। पानी एक आनी जानी चीज़ है। हमेशा खुले नल के नीचे रखी खाली बाल्टी को ही परम सत्य जान।

ग्यारह: दहेज

अरे, बहू क्या लाई दहेज में?
क्या ख़ाक लाई! इसने तो नाक ही कटवा दी।
पड़ोसियों के यहाँ क्या शानदार दो-दो सिंटेक्स की टंकियाँ और पानी खींचने वाली मोटर आई।... हमारे तो भाग ही फूट गए। कलमुँही, सिर्फ़ दो ड्रम पानी और ग्यारह खाली पीपे लेकर चल दी।



बारह: मल्टीलेयर वॉशिंग

( समय- खाना खाने के फौरन बाद, स्थान- वॉश बेसिन )
सुनती हो !सभी बच्चों को ले कर आ जाओ और हाथों को एक के ऊपर एक रख कर खड़े हो जाओ। हाँ ऐसे, अब मै धीरे-धीरे पानी डालूँगा, सभी के हाथ एक साथ धुल जायेंगे।
नोट- एक ही पानी से कुल्ला करने पर शोध अभी जारी है।

तेरह: नल घनत्व पैमाना

एक या कम घर प्रति नल- यानी कुलीन वर्ग
प्रति नल दर्जन भर तक घर- यानि साधारण वर्ग
प्रति नल दर्जन से अधिक घर- यानि निम्न वर्ग
( इस वर्गीकरण के दायरे से बाहर- यानि वंचित वर्ग)


चौदह: वरदान

जिस प्रकार द्वापर युग में अपने विश्व रूप के अलौकिक दर्शन हेतु आपने पार्थ को दिव्य चक्षु प्रदान किए थे प्रभु, उसी तरह आज  इस अभागे को भी टैंकर की मोटी धार धारण करने के लिए एक भव्य टंकी प्रदान कर!

पंद्रह: शकुंतला
द्वार पर आए साधू को तत्क्षण सत्कार और भिक्षा न देकर तूने घोर अपराध किया है कन्ये! जा, मैं तुझे शाप देता हूँ...कि जिसके मोह में पड़ कर तूने मेरा अपमान किया है वह तुझे सदा-सदा के लिए भूल जाएगा।
नहीं, नहीं, साधुवर  नहीं, इतना बड़ा दंड मत दीजिये मुझे इस छोटी सी भूल का। ...आप मुझे शिला बना दीजिये...मक्खी बना कर दीवार से चिपका दीजिये...मुझे सब मंज़ूर है, परंतु हे कृपानिधान, अपना दिया हुआ यह कठोर शाप वापस ले लीजिये। मैं बावरी पिया के ध्यान में नहीं, पानी के ध्यान में थी  जो तीन रोज़ से नहीं आया था।
ठीक है...पर साधु की ज़ुबान से निकले वचन कभी खाली नहीं जाते। जा! दूरदर्शन पर प्रसारित टैंकर के संपर्क नंबर देख कर तू यदि फ़ोन करेगी तो तेरे घर पानी आ जाएगा।   


सोलह: डायनासोर

पापा, पापा, ये खंडहर से कैसे हैं? कौन से ज़माने के हैं ये? बताओ न पापा।
बेटा, लोग इन्हें वाटर पार्क कहा करते थे। सदी के शुरू में पानी का संकट क्या आया कि ये चलन से बाहर हो गए। पुरातत्व विभाग ने इन्हें जल स्मारक घोषित कर पर्यटकों हेतु खोल दिया है।


सत्रह: टंकी वंदना

जल दे
पानी दायिनी जल दे
घर घर के टब, जग, मग तक
सब भर दे।
खुश्क कंठ
पपडाए लब
तरसे घट घट को झट
तर कर दे।
तीक्ष्ण ताप हर
शीघ्र शाप हर
धरती के कण कण को
निर्झर कर दे
पानी दायिनी जल दे।
जल दे।


अट्ठारह: टैंकर प्रस्थान पर

जलपति बप्पा मोरया
अगली पसर तू जल्दी आ।

Monday, November 7, 2011

सुबह सुबह सैरगाह से लाइव




सवेरे सवेरे जब आप विश्वविद्यालय परिसर की लंबी सड़क पर सैर के लिए चेक इन करते हैं तो अक्सर पंचतारा पथ पर रात भर स्टे का लुत्फ़ उठा चुके ढोरों के रेवड़ चेक आउट कर रहे होते हैं। ये मुफ्तखोर सरकारी अफसरों की तरह अकड़े-अकड़े फिरते हैं, आपका धर्म है कि भीरु प्रजा की तरह चुपचाप इनसे बच कर निकल जाएँ। नीम अंधेरे उठ कर घूमना काफी फायदे की चीज है। एक तो घर परिवार की बहुओं को पर्दे की जरूरत नहीं पड़ती, दूसरे जवान लड़कियाँ बुरी नजर वालों से बची रहती है। पहचाने न जाने से उद्योगपतियों और सीईओ जैसे मालदारों को भी फिरौती के लिए उठाए जाने का डर नहीं होता। कोई निजी लाभ न होने पर भी मैं मुंह अंधेरे निकलता जरूर हूँ अलबत्ता वक़्त का उतना पाबंद नहीं हूँ। जब कि दो एक जालिम तो इतने मुस्तैद हैं कि इन्हें देख कर भ्रम होता है कि ये सूरज निकलने से एक घंटा छत्तीस मिनट पहले निकलते हैं या सूरज इनके निकलने के एक घंटा छत्तीस मिनट बाद निकलता है।
खैर, थोड़ा आगे बढ़ने पर रास्ते में स्वामिभक्त और जागरूक किस्म की नस्ल के कुत्ते मिलते हैं। ये अपने परम आलसी और नासमझ मालिकों को जबरन चेन से घसीटते हुए सैर करा कर उन पर परोपकार करते देखे जा सकते हैं। सधवा पुरुष अमूमन अपनी पत्नियों के साथ घूमते हैं। जिनकी पत्नियाँ मायके गयी हों या परमानेंटली परम पिता के घर जा बैठी हों वे उसका कडक प्रतीक-रूप यानि डंडा बगल में दबा कर घूमते हैं। बाकी के जो अविवाहित पात्र हैं वे यूं ही दुर्घटना को आमंत्रण देने के लिए चले आते हैं। एक संत किस्म के इंसान हर रोज एक हजार एक सौ ग्यारह बार जय राम जी के जाप का दृढ़ संकल्प ले कर घर से निकलते हैं। टार्गेट पूरा करने के चक्कर में ये मनुष्य तो मनुष्य बल्कि मनुष्येतर प्राणियों को भी नहीं बख्शते। दो कारणों से ये लगभग रेंगते से चलते हैं। एक तो यह कि दिन में ज्यादा से ज्यादा जीवों से, संभव हो तो लौट फेर दोनों बार भेंट हो सके और दूसरे यह कि कहीं गिनने मे गलती न हो जाए।
यदि आप में तेज चलने का कुटैव  है तो कई बार अपने आपको जज़्ब करने को तैयार रहिए। क्योंकि भैंसों का झुंड तो एक बार आपकी राह छोड़ भी सकता है मगर सड़क घेर कर दीवार की तरह जा रही स्त्रियॉं के जत्थे के उस पार तो हवा की भी क्या मजाल जो जा सके। फिर आप किसी किसी खेत की मूली हो कर कैसे जा पाएंगे? हाँ, ऐन उसी वक्त किसी दैव योग से मोटर साइकिल पर मंदिर के लिए निकलने वाले पुजारी जी या फिर छुट्टी मना कर अलसुबह स्टेशन से ऑटो मे लौट रहे होस्टेलर्स गुजरें और हैड लाइट से बिदक कर वे आपको जगह दे दें तो आपका सौभाग्य! वरना जो रास्ते बचते हैं वे हैं: या तो आप डिवाइडर फांद कर रोंग साइड पकड़ लें या फिर यू टर्न ले कर वापस मेन गेट तक पहुँचें और दुबारा अपनी सैर शुरू करें। आगे चलने पर हनुमान मंदिर मिलेगा। वहाँ परिजनों द्वारा मंदिर की चौखट पर सत्तर अस्सी साला बुजुर्ग बिना कोई झंझट पाले पवन-पुत्र से उसी तरह बल ग्रहण करते नजर आएंगे जैसे बिना मीटर लगाए बिजली के खंभे पर तार डाल कर गुणी जन सीधे बिजली खींच लेते हैं।
अब जहां आप पहुँचते हैं वहाँ कसरत के नाम पर की जा रही बे सिर-पैर की हरकतें देख कर आप वाकई चकरा जाएंगे कि कहीं ताजमहल के बाद आगरा का दूसरा विश्व प्रसिद्ध मुकाम कहीं यही तो नहीं! आगरा के आबाद वार्डों में फिर भी हंसने, गाने, रोने और कपड़े फाड़ने जैसी इनी गिनी क्लासिकल क्रियाएँ ही संपादित होती हैं, जबकि यहाँ मैदान में प्रदर्शित हरकतों की बेहद मौलिक और विस्तृत रेंज देखी जा सकती है। इधर देखिये, बेतहाशा ताली पीटी जा रही है। शक्लों से नहीं लगता कि ये जनाब न मर्दों में आते हैं न जनानों में, मगर ताली पीटने की  अदा बिलकुल वैसी ही है। उधर कई मरदूद नाक की सीध चलने के जमाने के दस्तूर के उलट नितम्बों की सीध चल रहे हैं। दूर झुटपुटे में एक दो फिलोसफर बंधु ऐसे हैं जो लगता है घंटों से खड़ी दौड़ पर पिले पड़े हैं। खड़ी दौड़ वह विचित्र दौड़ है जिसमे आदमी दौड़ने का उपक्रम अवश्य करता है किन्तु कहीं पहुंचता नहीं हैं। बहुत हुआ, अब इन्हें इनके हाल पर छोड़ते हैं। ये अपनी दुनिया में मुब्तला रहें, हम अपनी दुनिया मे लौटते हैं।
  

Thursday, October 27, 2011

शोध के ये दीवाने



इनसे मिलिये....श्रीमति हरकाली। कुछ दिनों पहले गुमशुदा हो गयी थीं। फिर एक दिन इनके घर के बाहर नयी नेम प्लेट देखी गयी। नाम के आगे डाक्टर लगा हुआ था। ओह... तो मोहतरमा अज्ञातवास में जचगी करा कर शिशु के साथ लौट आई हैं। सुना है कोयल की एक प्रजाति अंडे सेने की जहमत से बचने के लिए अपने अंडे कोए के घोंसले में रख छोडती है जो उन्हें अपना समझ कर से देते हैं। इसी तरह, आपने भी बिना पेट फुलाए, जी मितलाए या प्रसव पीड़ा भुगते सीधे माँ बनाने का गौरव प्राप्त कर लिया। हाँ, कोयल भले ही अपने अंडे खुद देती हो, इनके बारे में यह पक्के तौर पर कहना मुश्किल है।
...और इस विभूति से मिलिये। रिसर्च कर रही थी। डाटा कलेक्ट करते करते हसबैंड कलेक्ट कर बैठी। इल्म की राह से भटक कर फॅमिली की राह पर चल निकली:
राहे खुदा  में  आलमे  रिंदाना  मिल गया
मस्जिद को ढूंढते थे कि मैखाना मिल गया
कहाँ कागजों पर कलम घसीटने वाली थी, कहाँ नवजात के पोतड़े फचीटने लगी। ...फिर एक दिन अचानक इन्हें ख़याल आया कि जैसे एनआरआई लड़के शॉर्ट विजिट पर स्वदेश आते हैं और सगाई अथवा मंडप कर उल्टे पाँव लौट जाते हैं, उसी तर्ज़ पर ये भी एक फ्लाइंग विजिट मारें और हाथों हाथ थीसिस जमा कर पिया के घर लौट जाएँ। सो, आजकल इसी मुहिम पर वतन में हैं और गाइड की नाक में दम किए हुए हैं।
चलिये, अब इन महाशय से मिलने सीधे इनकी डेस्क पर ही चलते हैं। अरे...ये तो सीट से नदारद हैं। नहीं, नहीं निश्चित ही ये फील्ड में सर्वे करने नहीं गए। जरूर कोई सा आवेदन पत्र लाने लोक सेवा आयोग के दफ्तर गए होंगे या फिर डाक घर में उसे स्पीड पोस्ट करने। जानते हैं कि डिग्री मिल जाने भर से प्रोफेसरी हाथ आने वाली नहीं, सो हर तरफ हाथ मारने में कोई हर्ज़ नहीं समझते। एकाधिक राज्यों के पीएससी से ले कर बैंकों के पीओ, वन रक्षक, केवी व्याख्याता, यहाँ तक कि प्राथमिक शिक्षक तक की कोई परीक्षा नहीं छोड़ते। वैसे ये शोध केंद्र पर भी बैठते हैं, और खूब बैठते हैं। नहीं बैठते तो ऑनलाइन ट्रेडिंग कहाँ से करते? शेयर और डिबेंचर की गलियों के फेरे कैसे लगाते? शोध केंद्र पर इन्हें शोध के अलावा बहुत कुछ करते देखा जा सकता है। कमाल यह है कि फिर भी इनकी थीसिस लगभग तैयार है! मीर साहब भी पशोपेश में हैं:
दामन पे छीटें हैं न खंजर पे कोई दाग
तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो
क्या है कि ये यूजीसी फैलो हैं, काफी ज़हीन भी हैं!!