Sunday, December 6, 2015

छलक छलक जाये रे

सर्दियाँ भी क्या खूब जलवा फरोश हैं! अपने परचम तले पूरे हिंदुस्तान को एक कर देती हैं. बर्फ अगर कश्मीर के ऊपरी हलकों पर गिरती है, तो नज़ला सीधा इंदौर आ कर गिरता है. तब शहर के लोग रोज के काम यूँ अंजाम देते नजर आते हैं जैसे तेल से भरा पात्र लेकर नारदजी पृथ्वी की परिक्रमा पर निकले हों. बेताब सर्दी है कि किसी षोडशी की जवानी सी नाक के बाहर छलकी पड़ती है. चुनांचे बहती हुई नाक को घडी-घडी इस अदा से भीतर की ओर खींचते रहना पड़ता है गोया कोई लजाऊ युवती आँचल से फिसलता पल्लू संभालने का घनघोर जतन कर रही हो. इस मौसम में कुछ अलग किस्म के लोग भी पाए जाते हैं. ये नाक के चालू खाते से छोटी-छोटी रकमें सी निकाल कर रूमाल के सुपुर्द करते हुए जल्दी ही एक बड़ी रकम खड़ी कर डालते हैं....ताकि सनद रहे और वक़्त-जुरूरत काम आये! वहीँ कई बिंदास किस्म के लोग थोड़ी-थोड़ी देर बाद सड़क पर सरे आम यूँ बलगम विसर्जित करते चलते हैं मानो अस्वच्छता की वेदी पर अपनी छोटी सी आहुति के साथ-साथ मोदी जी को स्वच्छ भारत अभियान का मुफ्त आयडिया भी दे रहे हों.

शरद ऋतु राष्ट्र बाबा रामदेव के धंधे के लिए भी बेहद मुफीद साबित होती है. ठण्ड के दस्तक देते ही च्यवनप्राश की बिक्री के साथ-साथ बाबा के भक्तों की भीड़ भी कई गुना बढ़ जाती है. बाबा के अनुयायियों को वक़्त-बेवक्त वाश बेसिन के आगे अनुलोम विलोम की क्रिया में रत देखा जा सकता है. इस सब का नतीजा यह होता है कि कई नाजुक नासिकाओं के अग्र-भाग बार-बार पोंछे जाने के कारण लंगूर के पृष्ठ-भाग जैसे लाल-लाल निकल आते हैं. अलावा इसके भी सर्दियों के काफी फायदे हैं. मसलन घूंघट वाली बहुओं को खबरदार करने के इरादे से देहात के बड़े बूढों को झूठ-मूठ गला खंखारने की कसरत से निजात मिल जाती है. क्यूंकि सर्दियाँ वो शै है जो आते के साथ ही इनके गले में बिल्ली की घंटी की माफ़िक कुकुर खांसी को बाँध कर चली जाती हैं. यही वजह है कि जिन घरों में बड़े बूढ़े पाए जाते हैं उन घरों में अक्सर रात-बिरात चोर उचक्कों के डर से कुत्ता पालने की जरूरत नहीं पड़ती.

ठण्ड का मौसम आया नहीं कि छाती-गला मार्ग जम्मू श्रीनगर हाइवे कि तरह ठप्प हो जाता है और फिर एक अरसा बहाल नहीं हो पाता. इन दिनों में  'चंचल' और 'किशोर कुमार' जैसे गायकों के गले में सहगल और मुकेश उतर आते हैं. जहाँ 'किशोर कुमार' की आवाज़ का अल्हड़पन और शोखियाँ गायब हो कर प्रौढ़ता में तब्दील हो जाती हैं, वहीँ सातवें सुर को साधने वाले 'चंचल' पहले और दूसरे सुर पर बंद लगा कर सुबह-सुबह 'इक बंगला बने न्यारा, इक घर हो प्यारा-प्यारा' जैसे रियाज़ ले कर बैठ जाते हैं.


सच में बड़ी करामाती हैं सर्दियाँ, ये जो न करायें सो कम है!!

Sunday, November 1, 2015

यूपी वेड्स केरला


      25 मई 2015 का दिन. आन्दोलनकारी गुज्जर रेल की पटरियों पर, हम रेल में! यानी इतिहास रचने का पूरा-पूरा मौका. अफ़सोस, हम ही नहीं लपक सके! दरअसल हमारी होशियारी ही हमें ले डूबी. जाने हमें क्या सूझा जो हमने बेटे की बारात की यात्रा के लिए एक पूरा दिन रिजर्व में रख लिया. उधर दूल्हे और उसके खास मित्रों के फ्लाईट के टिकट बुक करा दिए. खैर, माना कि हमसे गलती हुई, पर रेलवे वाले तो सहयोग कर सकते थे! चाहते तो दर्जनों दूसरी गाड़ियों की तरह दिल्ली-त्रिवेंद्रम राजधानी को भी वे रद्द कर सकते थे. शर्म की बात तो यह है कि बदले हुए रूट पर चलाने के बाद भी वे उसे बारह घंटे से ज्यादा लेट नहीं कर पाए. इस सबका नतीजा यह हुआ कि हम इतिहास बनाते-बनाते रह गए.  हमारे बेटे की शादी को दुनिया की पहली ई-शादी होने के गौरव से वंचित हो जाना पड़ा. वरना हम रेल के डब्बे में स्काइप पर मंडप में बैठे पंडितजी से मन्त्र पढ़ रहे होते.

      आगे का किस्सा यूँ कि जहाँ बाप हम एक झटके में ही बन गए थे, वहीँ कानूनन बाप यानि फादर-इन-लॉ बनने के लिए हमें जाने क्या-क्या पापड़ बेलने पड़े! अट्ठाईस की शादी बताई गयी थी किन्तु हमें सत्ताईस को ही अलसुबह उठा दिया गया. पता चला मंडपम के लिए हमें तैयार करने 'मेक अप आर्टिस्ट' आये हैं. फ़ादर-इन- लॉ न हुए, कोई कथकली कलाकार हो गए! फिर शुरू हुआ नौगजा धोती पहनने का कार्यक्रम! हमने बहुत ना-नुकुर की. कहा- हमें बख्शो भाई, शादी बेटे की है हमारी नहीं. बोले- चिंता मत करो उसे भी नहीं छोड़ेंगे. खैर, टॉपलेस वस्त्रम में मंडपम में लाये गए तो वहां उसी युनिफार्म में पिता अपनी पुत्री के संग पहले से मौजूद थे. दो तमिल पंडित उन्हें कुछ रस्में कराने पर पिले पड़े थे. हमें तत्काल संस्कृत भाषी पंडितों की दूसरी जोड़ी के हवाले कर दिया गया. उन्होंने बताया कि आपसे बेटे की शादी के लिए 'अनापत्ति प्रमाणपत्र' माँगने के लिए कुछ रस्में की जायेंगी. कोई उनसे पूछे- भले आदमियों, पचास बारातियों को अड़तालीस घंटे की रेल तपस्या कराने के बाद क्या हम यह कहने को हाजिर हुए हैं कि हमें यह रिश्ता मंजूर नहीं! अब जो नज़ारा नजरों के सामने था उसे देखने पर ऐसा मालूम होता था मानों अक्षय तृतीया पर जोड़ों का 'पेरेलल' में पाणिग्रहण चल रहा हो.

      फिर शुरू हुआ हमारी दुर्गति का असली सिलसिला. इस दुर्गति के दो तीन कारण थे...अव्वल तो बंद हॉल के अंदर लगातार मंगल-ध्वनि, उस पर हमारा जरा ऊँचा सुनना. दूसरे देवभाषा का हमारा कच्चा ज्ञान! तीसरी सबसे अहम् वजह जो थी, वो थी संस्कृत के मन्त्रों का तमिल बघार में हम तक पहुंचना. पर हम भी खाये-पिये थे. हमने बुदबुदा कर चकमा देने की वही स्ट्रेटेजी पकड़ी जो हम खुद के पाणिग्रहण में आजमा चुके थे. किन्तु यहाँ के पंडितजी बड़े चालाक निकले. प्रायमरी के किसी घाघ मास्टर की तरह वे अगले हरुफ़ पर तब तक नहीं पहुंचते, जब तक पिछला ठीक-ठीक नहीं बुलवा लिया जाता. इस दौरान हमसे क्या क्या हरकतें नहीं करवाई उन मरदूदों ने ! .... कभी वो हमसे कानों पर हाथ धरवाते, कभी हवा में सूत सा कतवाते. कभी उठक-बैठक लगवाते तो कभी दंडवत करवाते. मालूम होता था गोया पंडितों के चोगे में फायनल ईयर के सीनियर अपनी पूरी मंडली के साथ हमारी रेगिंग का मज़ा लूट रहे हों. मन में बारहा खयाल आता कि भाग खड़े हों, पर हनु के नुकसान की सोच कर रुक जाते. उधर लड़की के पिता भी अनजान बने बीच-बीच में कनखियों से हमारी दशा देख कर कुटिलता से मुस्कुरा देते. बचपन में पढ़ी लोमड़ी और सारस की कथा याद हो आई...समझ गए यह सारस का बदला है. सगाई के वक़्त फलौदा में जो गत हमने उनकी बनाई थी, उसी का फल गुरुवायूर में आज हम भुगत रहे हैं.

      सदया (केला पत्ता भोज) के ऐलान के साथ रस्में ख़त्म हुई, पर परीक्षा की घड़ियाँ अभी बाकी थीं. अपना तो सर ही चकरा गया जब सामने फैले केले के पत्ते पर कई कतारों में थोड़ी-थोड़ी दूर पर सैकड़ों नैवैद्यम की फसल सी पलक झपकते ही रोप दी गई. अब ठीक उसी पहेली की सी सूरत थी जिसमे बताना होता था कि भूल भुलैय्या के इधर खड़ी बकरी दूर किसी कोने में रखे घास के ढेर तक कैसे पहुंचेगी! समझ नहीं आ रहा था कि क्या खाया जाये, और जो खाया जाये वह कैसे खाया जाये. एक तरफ चटनी को सब्जी और सब्जी को चटनी समझने का पूरा खतरा था. तो दूसरी तरफ हलुवे को कढ़ी के साथ खाये जाते देख जगहंसाई का डर भी था. गनीमत ये रही कि हमारे बाजू में एक मल्लू भाई साहब आ बैठे. उन्हें देख-देख कर खाते हुए अपनी नैया भी वैसे ही पार लग गयी जैसे परीक्षा हॉल में होशियार बच्चे के ठीक पीछे बैठा बुद्धु बच्चा भी टीप टीप कर पास हो जाता है!  


   

Friday, October 9, 2015

उसके इस तरह यूँ बे-रस्मी चले जाने पर

पहले मिल जाता
तो साले वो देता घुमा के
कि भूल जाता
सब को सोता छोड़
तमाम रिश्ते तोड़
सिद्धार्थ सा चले जाना.

      नालायक! कैसे भूल गया
      तू वो दिन
      घर से चला गया था
      बिन बताये जब कहीं
      क्या हाल हुआ था
      बदहवास बाप का उस रोज़?

गोद में खिलाया जिन्होंने
पकड़ उंगली चलना सिखाया
उन्ही को धता बता
हट्टा कट्टा बेशर्म
तू लपक कर चढ़ बैठा
बुजुर्गों के लिए
आरक्षित सीट पर!
बता, यही तमीज सिखाई थी
क्या हमने तुझे?

      जरूर उस रात
      गहरे अँधेरे में
      रतौंधी वाले दूत
      उतरे होंगे धरती पर
      उठा ले गए होंगे तुम्हें
         किसी और के धोखे
      पर चकमा दे कर
      भाग नहीं सकते थे
      तुम उनकी पकड़ से
      और दे नहीं सकते थे
      दस्तक अलसुबह दरवाजे पर!

लाचार माँ चिरौरी करते
थकती नहीं थी
हर बार मिलने पर- यही कि
'बिट्टन को कहना मिल जाये'.
जाना ही था, ससुरे!
मिल तो लेना था एक बार
उस बदनसीब माँ से
सदा-सदा के लिए

सफ़र पर चलने से पहले. 

Monday, September 7, 2015

कल के व्यापमं


 आप हमारे होनहारों के निर्माता हैं... भारत के भावी शिक्षक! अगली पीढ़ी आपके हाथों में सुरक्षित है, जो देश को बहुत आगे ले जाएगी. इतने ऊंचे शिखर पर जिसके सामने आज का व्यापमं भी शर्म के मारे धरती में गड जाये. इन भावी शिक्षकों से कुछ मुठभेड़ों (गौरतलब है कि फर्जी मुठभेड़ नहीं!) का सौभाग्य इस खादिम को भी प्राप्त हुआ, जो आपकी खिदमत में पेश है-

(एक)

भावी शिक्षक (प्रिंसिपल से फोन पर)- सार, हमें बी.एड. के बारे में कुछ इन्क्वायरी कोरना.

प्रिंसिपल- जी करें.

भावी शिक्षक- सार, हम दो सेमेस्टर एक साथ कोर सकते?

प्रिंसिपल (सकते में!)- दो क्यों....आप चारों सेमेस्टर एक साथ कोर सकते!

भावी शिक्षक (कुछ खिसियाते हुए)- वो क्या है कि सार, हमारी तोबियत ख़राब है.

प्रिंसिपल- आपको पूरा कॉन्फिडेंस है कि साल भर ख़राब ही चलेगी?...अरे, आज ख़राब है
     तो कल ठीक हो जाएगी!

भावी शिक्षक- लेकिन सार, हम इतनी दूर रहते...क्लास नहीं कोर सकते.

प्रिंसिपल- क्यूँ नहीं कर सकते? आई.आई.टी., आई.आई.एम. में देश के कोने-कोने से बच्चे पढने जाते हैं....लोग यू.एस., यू.के. तक पढने चले जाते हैं... फिर आप   यहाँ क्यूँ नहीं आ सकते?

भावी शिक्षक- सार, हम नौकरी भी कोरते हैं ना!

प्रिंसिपल- फिर तो ऐसा करो कोई फर्ज़ी डिग्री बनाने वाला गिरोह ढूंढो. दो चार लाख दो, घर बैठे डिग्री ले लो. (उधर से फोन कट जाता है!)

(दो)

(बी.एड. के वैकल्पिक विषय का पेपर. परीक्षा शुरू होने का समय. एक भावी शिक्षक हडबडाया हुआ परीक्षा केंद्र में घुसता है.) 

भावी शिक्षक (अधीक्षक से)- सर, मेरा रोल नंबर नहीं मिल रहा.

अधीक्षक- अपना एडमिट कार्ड दिखाओ जरा! (देखते हुए) केंद्र तो यही है. आपने सीटिंग प्लान ध्यान से देखा?

भावी शिक्षक- जी सर, कई बार देखा...मेरा रोल नंबर कहीं नहीं है.

अधीक्षक (सहायक से)- देखिये जरा, इनका रोल नंबर किस कमरे में है?

सहायक- देख लिया सर, किसी कमरे में नहीं है!

भावी शिक्षक- जल्दी करो सर, मेरा पेपर छूट जायेगा...

अधीक्षक (परीक्षा फॉर्म देखते हुए)- लो, तुम्हारा तो आज पेपर ही नहीं है!...आज शैक्षिक तकनीकी का है. शैक्षिक प्रशासन का 26 को है. आप गलत दिन आ गए!

भावी शिक्षक- नहीं सर, मेरा शैक्षिक तकनीकी ही है...शैक्षिक प्रशासन गलती से लिखा गया होगा.

अधीक्षक- ऐसा कैसे गलती से लिखा गया होगा!...परीक्षा फॉर्म तुमने नहीं भरा क्या?

भावी शिक्षक- नहीं सर, एजेंट ने भरा था.

अधीक्षक- और हस्ताक्षर?...वो भी उसी ने किये थे क्या?

भावी शिक्षक- जी सर!!!

(तीन)

(नवप्रवेशित एम. एड. विद्यार्थियों की पहली क्लास)

प्रोफ़ेसर (भावी शिक्षकों से)- आप सबने बी.एड पास किया है. आपमें से कोई ऐसा है, जिसे यह भी पता न हो कि उसका बी.एड. कॉलेज किस दिशा में है?

           (एक-दो हाथ खड़े होते हैं)

प्रोफ़ेसर- शाबाश! आपकी ईमानदारी के सदके!!

प्रोफ़ेसर (बचे हुए भावी शिक्षकों से)- अच्छा, आप बताएँगे, कितने दिन कॉलेज गए होंगे, आप लोग साल भर में?

एक भावी शिक्षक- सर, हम तो रोज़ जाते थे.

प्रोफ़ेसर- बहुत बढ़िया! कितने स्टूडेंट होते होंगे क्लास में अमूमन, हर रोज़?

भावी शिक्षक- हर रोज़ तो पांच सात ही आते थे, सर.

प्रोफ़ेसर- सौ में से?... और बाकी?

भावी शिक्षक- बाकियों को फोन कर टेस्ट वाले दिन बुलवा लिया जाता था!!

(चार)

भावी शिक्षक (फोन पर)- सर, आपके यहाँ एम. एड. में एडमिशन चालू है?

शिक्षक- नहीं, एडमिशन तो कब के ख़त्म हो चुके...अब तो कक्षाएं चल रहीं हैं.

भावी शिक्षक- तो क्या अब नहीं हो सकता?

शिक्षक- अब कैसे होगा?...कुछ ही दिनों में पहला टेस्ट होने वाला है.

भावी शिक्षक- वैसे आपके यहाँ एम. एड. कितने साल का है, सर?

शिक्षक- दो साल का...2015 से पूरे हिंदुस्तान में दो साल का ही है!

भावी शिक्षक- तो क्या एक साल वाला अब नहीं है?

शिक्षक- मुझे दो साल का मालूम है. NCTE ने इस वर्ष से दो साल का कर दिया है.

भावी शिक्षक- किन्तु हमने सुना है कि 2014-15 के एडमिशन हो रहे हैं.

शिक्षक- भई, जुलाई 2015 ख़त्म होने को है. 2015-16 की पढाई चल रही है. 2014-15 के एडमिशन अब कहाँ से होंगे?

भावी शिक्षक- हमें किसी ने बताया है, तभी हम पूछ रहे हैं.

शिक्षक- तो जिसने बताया है, उसी से पूछो. वही शायद बता पाए!
         (फोन काट देते हैं)

(पांच)

प्राचार्य- आओ, आओ, कहो कहीं पढ़ा रही हो?

भावी शिक्षक (पैर छूते हुए)- जी सर, आपके आशीर्वाद से.

प्राचार्य- किस कॉलेज में?

भावी शिक्षक- सेंट अम्बर टीचर ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट में सर.

प्राचार्य- मगर यह तो अलीराजपुर में है. वहीँ रहने लगी हो या डेली अप-डाउन करती हो?

भावी शिक्षक- नहीं सर, क्लासेस यहीं लगती हैं!

प्राचार्य- हें!!


Wednesday, August 12, 2015

तीसरे सुधारों की ओर

हमारे देश में सुधारों की एक लम्बी और गौरवशाली परंपरा रही है. उन्नीसवी सदी के आखिर में हमने धर्म को सुधारने का काम किया. जब धर्म सुधर गया तो बीसवीं सदी में हम आर्थिक सुधारों पर पिल पड़े. इसके चलते देश में बोफोर्स, आदर्श, थ्रीजी और व्यापमं जैस अनेक मानक स्थापित किये गए. यहाँ तक कि शिक्षा और चिकित्सा जैसे शुद्ध सेवा क्षेत्रों में भी देखते-देखते कई अभूतपूर्व सुधार कर दिए गए. और तो और दुकान बढ़ा चुके कारोबारियों की भी कई पुश्तें तर गईं. लेकिन इन सुधारों में देश कब तक मगन रहेगा? देश को अब तीसरे सुधारों की तत्काल जरूरत है.


यह भारत का सौभाग्य ही था जो मेमन की फांसी ने इसे तीसरे ऐतिहासिक सुधारों के मुहाने पर ला कर खड़ा कर दिया. कुछ कानून छांटने वालों को कहीं से दिव्य दृष्टि हासिल हुई, जिसकी कृपा से उन्हें मृत्युदंड के पुराने फैसलों में बड़ी-बड़ी गलतियाँ दिखाई देने लगी. मर चुके व्यक्ति को दुबारा जिन्दा कर गलतियाँ सुधारना किसी के बस में नहीं. मगर फांसी की सजा ख़त्म करना तो बस में है. दुनिया के कई देश मौत की सज़ा पर रोक लगा कर कब के सुधर चुके हैं. अब हमारी बारी है. हमें कानून की किताबों से मौत की सजा वाला पन्ना फाड़ कर तुरंत सुधरना होगा.


सिर्फ फांसी पर रोक लगाने से कानूनी सुधारों को पूरा कर लेना भारत जैसे विशाल देश के लिए शर्म की बात होगी. सो जहाँ-जहाँ, जिस-जिस क्षेत्र में फांसिया लग रही हैं या लगवाई  जा रही हैं, हमें उन सभी क्षेत्रों में सुधार करना होगा. अब पुलिस महकमे को ही ले. आये दिन किसी न किसी पुलिसिये की थाने में फांसी लगा लेने की खबर अख़बार में पढ़ने को मिल जाती है. ऐसा किसी न किसी की गलती से ही होता है. देश में अपराध बढ़ रहे हैं. मुट्ठी भर पुलिस वाले भला कहाँ-कहाँ, किसे-किसे पकड़ें? इसी दबाव के चलते उन्हें आत्महत्या को मजबूर होना पड़ता है. इससे उबरने का एक ही उपाय है- कानूनी सुधार. कातिलों को पकड़ने के लिए इन्हें आज़ादी देनी होगी. इन्डियन पेनल कोड में ऐसे सुधार किये जाएँ कि वे किसी शरीफ़ को सोते से उठा कर उससे कत्ल कबूल करवा सकें. उधर कई पुलिस कप्तान अपनी जान पर खेल कर अपराधियों को पकड़ भी लेते हैं. किन्तु गवाहों के पलटने, वकीलों के दाँव-पेंच और अदालतों की लेटलतीफी से उन्हें सजा नहीं दिलवा पाते. लिहाज़ा, नामर्दगी के ठप्पे के डर से खुद की कनपटी पर लबलबी दबा बैठते हैं. हमें पुलिस प्रणाली में सुधार कर उन्हें अधिकार संपन्न बनाना होगा. जिससे वे गर्ल-फ्रेंड के साथ सैर सपाटे को निकले युगल को आतंकवादी समझ उनका एनकाउंटर कर ख़ुदकुशी से बच सकें. आखिर लाख दो लाख का मुआवज़ा मिलने से उनके अनाथ परिवारों के साथ न्याय थोड़े ही हो सकता है!


साहित्य के क्षेत्र में भी सुधारों की भारी जरूरत है. अगर देश की सर्वोच्च न्यायालय की खंड पीठ से गलती हो सकती है तो एक अदद संपादक/ उपसंपादक अपनी विवेकहीनता से रचना को रद्दी की टोकरी में क्यों नहीं फेंक सकता! रचना की अस्वीकृति उभरते हुए लेखक के लिए किसी फांसी से कम नहीं होती. युवा लेखकों की रचनाएँ नामंजूर कर उनके अदबी सफ़र का बेवक्त खात्मा करना किसी युवती को भरी जवानी विधवा करने जैसा जुर्म है. हमें यह बर्बर प्रथा तत्काल ख़त्म कर सुधरना होगा. रचनाओं को पहले पाओ, पहले छापो के आधार पर स्वीकृत कर संपादकों की गलती से काफी हद तक बचा जा सकता है. इस फैसले से हम सुधारों की तरफ एक मजबूत कदम बढ़ा सकेंगे.


एक शिक्षक होने के नाते मेरा मानना है कि अगर सुधारों की कहीं सबसे ज्यादा जरूरत है, तो वह शिक्षा के क्षेत्र में है. परीक्षाओं में फेल होकर स्कूल/ कालिजों के पढाकों का पंखे से झूल जाना आज आम बात है. गुणीजनों का कहना है, टीचरों के गलत कापियां जांचने के कारण ही ऐसा होता है. लिहाज़ा हर साल न जाने कितनी राष्ट्रीय प्रतिभाएं अपनी जान से हाथ धो बैठती हैं. भले ही कुछ लोग शक करें, किन्तु शिक्षक भी आखिर है तो इंसान ही! इंसान हैं तो गलतियाँ भी होंगी ही. मतलब... सुधार हो ही नहीं सकता? बिलकुल हो सकता है! इस मामले में हम खुदा से बहुत कुछ सीख सकते है. यह ईश्वर ही है जो कभी कोई गलती नहीं करता. क्यूंकि कुछ करता ही नहीं, तो गलती क्या करेगा? वह तो अकर्ता है!! बस यही वह सूत्र है जिसे पकड़ कर अर्थात शिक्षक को अकर्ता बना कर, सुधार की तरफ बढ़ा जा सकता है. वह पेपर ही सेट न करे, वीक्षकीय कार्य ही न करे, कापियां ही न जांचे, तो गलतियाँ कहाँ से होंगी? दरअसल हो यह कि परीक्षाएं ही ना हों. बस सारा टंटा अपने आप ख़त्म! छः माह की मियाद पूरी होते ही विद्यार्थी खुद-ब-खुद अगले सेमेस्टर में पहुँच जाये. कोर्स की अवधि ख़त्म होते ही उन्हें सनद/डिग्रियां बाँट दी जाएँ. सब कुछ समयबद्ध हो. ठीक वैसे ही जैसे बिना परीक्षा कुछ सालों बाद आप बचपन से जवानी में पहुँच जाते हैं. एक तय उम्र में शादी कर, माँ-बाप, फिर दादा-दादी का पद प्राप्त करते हुए एक दिन टपक जाते हैं. परीक्षाएं होती तो बहुतेरे बचपन में ही पड़े सड़ते रहते, कईयों की शादियाँ ही न हुई होती! यूँ देखा जाये तो रहीमदास जी बहुत पहले इन सुधारों का आग़ाज़ कर चुके हैं, जब वे कहते हैं:


              समय पाय फल होत हैं, समय पाय झर जाय      

              सदा रहे  नहिं  एक सा, का  रहीम  पछताय    

बाकी बचे तमाम क्षेत्रों में सुधार के लिए मैं माननीय प्रधानमंत्री जी का आह्वान करूँगा कि वे शीघ्र ही एक 'राष्ट्रीय सुधार आयोग' का गठन करें. यदि वे जोर देंगें तो मैं इसका अध्यक्ष पद सम्भालने पर भी राजी हो सकता हूँ.   

Monday, June 8, 2015

बा-पटरी


['त्यागी उवाच' के तेवर से अलग  पेश है आज एक कविता]

कई दिनों बाद,
शाम भूख महसूस होने पर
भेल बनाई,
खाते-खाते टीवी पर
बकवास देखी.

          कई दिनों बाद,
          आज बालकनी से
          सूखे कपडे उतार कर
          तह किये.
          पौधों को
          कई दिनों बाद
          जी भर पानी दिया.

कई दिनों बाद,
सुबह-सुबह चाय पर
'भास्कर' और 'हिन्दू'
शब्द-शब्द चाट डाला.
नाश्ता कर चुकने पर  
थोड़ी देर
सुस्ताना भी हो गया.

          थाली में
          दाल रोटी समेत,
          कई दिनों बाद
          जो चीज घर में
          जहाँ हुआ करती थी
          उसी जगह लौट आई.

रात में
सोने से पहले आज
कई दिनों बाद,
तकिये के पास पड़े
'नया ज्ञानोदय' की
दो चार कहानियाँ तो
पक्का पढ़ मारूंगा.

           'रूटीन'
           सच में
           कितना अच्छा है!!