Thursday, December 18, 2014

सन्डे मैच [‘त्यागी उवाच’ ब्लॉग की सेंचूरियन पोस्ट]

यह क्रिकेट मैच न टी-ट्वेंटी है न वन-डे है, बल्कि सन्डे है. इसे फुटबाल के आधे मैदान पर ब्रेकफास्ट से पहले खेला जाता है. पूरे मैदान के चारों तरफ चक्कर लगा रहे सुबह की सैर करने वाले बुजुर्ग अथवा मैदान के दूसरे आधे हिस्से में खेले जा रहे मैच के खिलाडी इसके दर्शक होते हैं. सन्डे मैच में दोनों टीमों को मिला कर भी ग्यारह खिलाडी हो जाएँ तो बहुत माने जाते हैं. आम तौर पर खिलाडी खेल के जरूरी सामान के अलावा अम्पायर लेकर घर से नहीं निकलते. मैदान पर ही अम्पायर का बंदोबस्त हो भी जाये तो लोकसभा के सभापति की तरह उसकी कोई नहीं सुनता. टीम में खिलाडी चुनने समेत सारे फैसले शोर-शराबे अर्थात ध्वनि मत से ले लिए जाते हैं. बल्लेबाजी का क्रम अक्सर बाजुओं के बल के आधार पर तय होता है और गेंदबाजी उस जांबाज को नसीब हो पाती है जो छीना-झपटी की कला में पारंगत हो. यही वजह है कि टीम में कप्तान के लिए कोई खास काम नहीं बचता.

खिलाडियों के टोटे के चलते कोई टीम स्लिप पर खिलाडी तैनात करने का नहीं सोच सकती. हाँ, विकेटों के पीछे एक विकेटकीपर और उसके ठीक पीछे एक और बेकअप विकेटकीपर जरूर लगाया जाता है. ध्यान से देखो तो पता चलता है कि प्रमुख विकेटकीपर का मुख्य काम बैकअप विकेटकीपर के लिए गेंदों को छोड़ना होता है. ठीक वैसे ही जैसे दफ्तर के बॉस का प्रमुख काम बाबुओं को काम सौंपना होता है. इन मैचों में हो सकता है मिड-विकेट हो ही ना, वरन उसकी जगह थ्री-फोर्थ विकेट हो. डीप थर्ड मैन या लॉन्ग ऑन पर खड़ा खिलाडी फील्डिंग कम और वाट्स एप ज्यादा करता देखा जा सकता है. इस खेल में बल्ले के प्रहार से निकली गेंद के पीछे आजू-बाजू के फील्डर नहीं भागते, बल्कि हाथ उठा कर यह बताते हैं कि किसे भागना था! जब तक यह तय हो कि फील्डिंग किसकी थी तब तक गेंद सीमा रेखा के बाहर चली जाती है. ठीक उसी तरह जैसे सम्बंधित थाने जब तक यह तय करें कि वारदात किसके क्षेत्र में हुई थी तब तक लुटेरे शहर छोड़ चुके होते हैं. यहाँ किसी फील्डर द्वारा कैच टपकाए जाने को पिछली दफा उसकी गेंद पर बॉलर खिलाडी द्वारा टपकाए गए कैच का बदला मान लिया जाता है. जिसका कोई खास बुरा भी नहीं माना जाता. 

बल्लेबाजी अमूमन एक ही छोर पर की जाती है. दूसरे छोर पर वैसे की भी नहीं जा सकती. क्योंकि उस छोर पर न तो विकेट होती हैं न ही बल्लेबाज के हाथ में कोई बल्ला. रन आउट वगैरह के लिए डंडों की जगह चप्पल आदि बिखरा कर काम चला लिया जाता है. यूँ एक रन लेने से बचा ही जाता है. कारण कि रन लेने के बाद स्ट्राइकर एंड पर पहुंचे बल्लेबाज को चल कर बल्ला देने जाना होता है. सो कौन जहमत उठाये? इस प्रकार के मैच में जीत या हार होने की नौबत के आने से पहले ही झगडा हो जाया करता है. झगडा न भी हो तो बारी की इंतज़ार कर रहे बड़ी उम्र के खिलाडियों द्वारा धोंस-पट्टी देकर मैदान को खाली करा लिया जाता है. इस तरह मैच बे-नतीजा समाप्त हो जाता है. लेकिन मजेदार बात यह है कि दोनों पक्ष अपनी-अपनी टीम को विजेता मान हंसी-ख़ुशी घर लौटते हैं. विन-विन सिचुएशन, मैच में पिछड रही टीम के लिए भी! क्यूँकि जिस तरह लेट चल रही भारतीय रेलें समय बना कर सही समय पर भी पहुँच सकती हैं, उसी तर्ज़ पर सोचा जाता है कि फिसड्डी टीम बचे हुए समय में तेजी से रन बना कर जीत भी सकती थी!! 

Monday, December 1, 2014

वादा और तगादा

कर  लिया  था  वादा उन्होंने  पांचवे  दिन का
किसी से सुन लिया होगा,  दुनिया चार दिन की है

जी नहीं! पांचवे दिन का नहीं, पहली तारीख का वायदा किया था उन्होंने, जो इतनी दूर भी नहीं थी. तभी तो अचानक आन पड़ी जरूरत का हवाला देते ही हमने जरा भी सोचे बिना पांच हजार उनके हाथ पर धर दिए थे. वो दिन और आज का दिन... दसियों पहली तारीखें आई और आकर चली गयी. वही वादे वाली पहली तारीख नहीं आई.

ऐसा भी नहीं कि हमने डरते-डरते, इशारों-इशारों में उन्हें कभी याद दिलाने की कोशिश नहीं की. की, और बाजाफ्ता की. मगर ऐसी तमाम हरकतों के बीच वे राजा दुष्यंत की तरह मेनका की तरफ से बेखबर से ही बने रहे. कभी ज्यादा हुआ तो यूँ मुस्कुरा कर चल दिए जैसे फिल्म सदमा के आखिरी सीन में कमल हासन की कलंदरी पर श्रीदेवी मुस्कुरा कर चल देती है. इधर हम सोचते कि हो न हो उनकी जरूरत अभी तक बनी हुई हो. उधर खटका यह भी है कि वे भी कहीं यह न सोच रहें हों कि हमें जरूरत होती तो जरूर मांग लेते. कुल मिला कर मजाज़ वाली शायराना सूरत बनती नज़र आ रही है-

मुझे ये आर्ज़ू, वो निक़ाब उठायें ख़ुद
उन्हें ये इंतजार, तक़ाज़ा करे कोई

क्या करें! तक़ाज़े की विद्या में हम काला अक्षर भैंस बराबर हैं. रकम वापस माँगने के ख्याल भर से ही अपनी जुबान को लक़वा मार जाता है, चेहरा शर्म के मारे पानी-पानी हुआ चाहता है. कई बार तय कर लिया कि बस अब और नहीं! बाहर निकलने के गुर सीखे बगैर आइन्दा कभी देने के चक्रव्यूह में प्रवेश नहीं करेंगे.

मगर यह सब आइन्दा... अभी तो एक अन्य पारिवारिक मित्र का किस्सा बकाया है. मांगे तो उन्होंने पच्चीस थे किन्तु हमारी औकात देखते हुए पंद्रह पर ही मान गए थे. यह जरूर है कि रकम लेने के बाद शहर से लगभग लापता हो गए थे. शक है कि पंद्रह में से हजार पांच सौ देकर उन्होंने मोबाइल वालों को भी अपनी तरफ मिला लिया था. वर्ना सैकड़ों मर्तबा कॉल करने पर कंपनी की लड़की हर बार यही क्यूँ कहती- उपभोक्ता का मोबाइल फोन या तो स्विच ऑफ़ है या पहुँच क्षेत्र से बाहर है. भाई लोग बहुत पीछे पड़े कि घर तो लापता नहीं हुआ, जाकर ले क्यूँ नहीं आते. (मानों वे दरवाज़ा खोले हमारी राह ही देख रहे हों कि कब हम पहुंचें और कब वे उधार पटायें!) जवाब में हम यही कहते- पगलों, उन पर होते तो वे छुपते ही क्यूँ फिरते? पत्नी ने भी ताना दिया- तो क्या इतनी बड़ी रक़म यूँ ही डूब जाने दोगे! तो हमने सौदे का फायदा गिनाते हुए समझाया. भाग्यवान, गनीमत मानों बात पंद्रह हजार में निपट गयी. सोचो, पंद्रह लौटा कर अगर पच्चीस पचास मांग लेते तो हम कहाँ के रह जाते!


अलबत्ता गम है तो बस एक. गुम हो जाने के बजाय बाबा खड़गसिंह के घोड़े के प्रसंग की तरह अगर वे यह कह देते कि भैया भूल जाओ, तो मन मार कर चैन से एक तरफ तो बैठ जाते. और हाँ....परिजन भी आए दिन यूँ दिक् न करते!!    

Thursday, November 13, 2014

मेरिज गार्डन एक खोज



शादी के कार्ड पर साफ शब्दों में लिखा था-‘सरताज मेरिज गार्डन, राजीव गाँधी चौक के पास’. राजीव गाँधी चौराहा शहर का जाना माना चौराहा था, लिहाज़ा पूछताछ की जरूरत महसूस नहीं हुई. हाला कि मेरिज गार्डन कभी पहले देखा नहीं था पर चूँकि शहर में रहते तीस साल हो गए थे इतना जरूर पता था कि हमारी मंजिल चार में से किन दो राहों के बीच स्थित थी. पहले एक राह पर गाड़ी डाली. जब बहुत दूर तक गार्डन नजर नहीं आया तो तय पाया कि किसी जानकार से पूछना बेहतर होगा. एक ठेले वाले ने बताया कि गलत दिशा में आ गए, दूसरे वाली राह पकड़नी थी. अब हमने गाड़ी मोड़ कर दूसरी राह पर डाली किन्तु इत्मीनान नहीं होने से सोचा पूछताछ  कर लें. गाड़ी ठहराकर एक दुकानदार से पूछा तो उसने बताया कि पहली दफा जिधर गए थे उधर ही जाना था. फिर तो अगले आधे घंटे हम शूर्पणखा की तरह कभी राम से लक्ष्मण, तो कभी लक्ष्मण से राम की तरफ ठेले जाते रहे.        

अब अपने सब्र का बाँध टूटने को था. सभी साथियों से मशविरा करना शुरू कर दिया था कि ख़राब मौसम में अमरनाथ यात्रियों की तरह क्यूँ न घर लौट चला जाये. एक कुलीग को सबसे लिफाफे इकठ्ठा करने को कह इंडियन कॉफ़ी हाउस चलने की भी ठान ली थी. तभी एक नौजवान साथी ने अपने मोबाइल पर जीपीएस लगा लिया और वास्कोडिगामा की तरह मेग्नेट की सुई सी देखते हुए हमें दिशा बताने लगा. जीपीएस ने अब हमें जिस सड़क पर डाला उसके किनारे पर एक पुर आबाद कलाली थी जहाँ कई दीवाने किलोलें कर रहे थे. आगे का मार्ग नीम-अँधेरे में लिपटा पड़ा था, निपट सुनसान. मन में डरावने विचार आने लगे. अपनी गाड़ी किसी फोकटिया की तो थी नहीं जो एक लिफाफे में पूरा कुनबा जिमाने ले जा रहा हो. दुल्हन के बाप के हम छह कुलीग थे- फ़ी बाराती एक लिफाफ़ा वाले. किसी अंतर्राष्ट्रीय लग्ज़री कार की तरह लूट के सॉफ्ट और लुभावने टारगेट. रास्ते का ये आलम था कि गाड़ी आगे बढ़ने के साथ-साथ मेरिज गार्डन मिलने की उम्मीद कमतर होती जा रही थी. अब तो हमें गूगल पर भी शंका होने लगी थी कि कहीं अपहरणकर्ताओं के हाथों में तो नहीं खेल रहा! तब जेब से निमंत्रण-पत्र निकाल कर उत्तरापेक्षियों की लम्बी सूची में से पासा फेंक कर एक को फोन लगाया और समारोह स्थल के कोआर्डिनेट पूछने चाहे. लेकिन अपना दुर्भाग्य कि बारात दरवाजे पर आ चुकी थी. शोर शराबे में उत्तर सुनना तो दूर, उन्हें प्रश्न सुनाने में ही पसीना आ गया.

देखते-देखते बस्तियां भी विदा हो गयीं. दायें-बाएं खेत उग आये. मगर सर पर कफ़न बांधे जांबाजों की तरह हम फिर भी आगे बढ़ते गए. मुड़ते-मुडाते अब हम एक मुकाम पर पहुंचे. यही समारोह स्थल था.  देख कर लगता था कि कल अलसुबह जब लाईट और साउंड का तिलस्सिम टूट कर बिखरेगा तो यह भव्य स्थल किसी गन्ने पेरने की चरखी या खेतों को सींचने के रहट सा नज़र आएगा.


वहां पहुँच कर हमने खैरियत मनाई. साथ ही कसम खाई कि आइन्दा समारोह स्थल की अच्छे से रेकी कराये बगैर किसी शादी में शरीक़ नहीं होंगे.  

Monday, November 3, 2014

चार्ल्स शोभराज का बाप


दुल्हे को दुल्हन मिली, दुल्हन को दूल्हा. दुल्हे के बाप को वंश चलने वाली मिली, दुल्हन के माँ बाप की बला टली. वे गाएँ, नाचें, नोट लुटाएं. रिश्तेदारों में किसी को भाभी मिली, किसी को चाची; किसी को जीजा मिला तो किसी को फूफा. वे ख़ुशी मनाएं. हम जैसे निरे बाराती को क्या मिला जो हम बंदरों की तरह उछलें, कूदें? हमें ऐसा क्या मिलना है जो हम हाथ का हिल्ला छोड़ ट्रैफिक की मगरमच्छी, हहराती धारा में अपनी कश्ती डाल दें? फखत एक दावत न! .... वह भी पेट्रोल खर्च और मोटे लिफाफे के एवज में!

इब्ने इंशा कह गए हैं:
इक नाम तो रहता है जग में, पर जान नहीं
जब देख लिया इस सौदे में नुकसान नहीं
शम्आ पे देने जान पतंगा आया है
सब माया है.


यानि पतंगा तक अपना नफा नुकसान देखता है. हम तो आदमी ठहरे, हम क्यूँ न देखें! महंगाई बढ़ने के साथ साथ जहाँ लिफाफे फूलते जा रहे हैं वहीँ व्यंजन फटीचर होते जा रहे हैं. जिधर  देखो बारातियों के हक़ पर जम कर डंडी मारी जा रही है. जब जी में आया प्लेट से रबड़ी/रसमलाई उडा दी, दही-बड़ा का पत्ता साफ कर दिया. ईमान तो मानों बचा ही नहीं! इस कदर गई-गुजरी डिशेज़ परोसने की भला क्या तुक कि बारातियों को वापस घर जा कर खाना खाना पड़े. ठगाई की आखिर कोई हद है कि नहीं!
 

खैर, माबदौलत ने इसका तोड़ यूँ निकाला है. हम तयशुदा अमाउंट को दो हिस्सों में तोड़ कर दो लिफाफे ले जाते हैं. मंच पर चढ़ कर पार्ट पेमेंट का पहला लिफाफा पकड़ा देते है. खाने की क्रिया के संतोषजनक ढंग से संपन्न हो जाये तो दूसरे लिफाफे की मार्फ़त बकाया चुकता कर देते हैं, वरना उसे जेब से निकाल कर बाहर ही हवा नहीं लगने देते. 

Monday, August 18, 2014

एक दीक्षांत समारोह की रिहर्सल



वो ज़माने लद गए जब घर के बड़े बुजुर्ग दूल्हे को घसीट कर मंडप में बिठा दिया करते थे. आजकल के कॉर्पोरेट दूल्हे घोड़ी से उतर कर खुद अपनी बारात में ठुमके ही नहीं लगते बल्कि दस-पंद्रह दिन पहले से पेशेवरों की तरफ इसकी रिहर्सल भी करने लगते हैं. गुणी जन तो यहाँ तक कहते सुने गए हैं कि जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते ही ये हनीमून आदि की रिहर्सल भी करने लगते हैं. फिर हमारे विश्वविद्यालय का इस साल का दीक्षांत समारोह तो गोल्डन जुबली वाला था, ऊपर से महामहिम शिरकत करने आने वाले थे तो भला हम रिहर्सल से क्यूँ परहेज़ करते.

मगर चूँकि दीक्षांत समारोह का दिन अभी दूर था, सो पहली-पहली रिहर्सल के लिए लोगों के पाँव नहीं उठ पा रहे थे. एक सज्जन ऑडिटोरियम के बाहर नामों की सूची यूँ हाथ में थामे खड़े थे मानों रंगोली का छपा हुआ नमूना लिए हों. वे एक बार सूची पर निगाह डालते, फिर सूची का आदमी भीड़ से खोज-खोज कर लाइन में खड़ा करते. तभी उनकी मदद को एक और महाशय आगे आये. अब वे आदमी ढूंढ-ढूंढ कर लाने और काफिला बनाने में इस लहजा हेल्प करने लगे जैसे कोई मजदूर दीवार चिनने वाले राज को ईंटें पकडाता है.

अकादमिक कारवां अगर अजगर मान लिया जाये तो उसका मुंह और धड़ तो धूप में थे, मगर पूंछ छाया में थी. हम ठीक उस जगह खड़े थे जिस जगह जीव की गरदन रही होती. आगे खड़े हुए हम जैसे आम लोग कड़ी धूप सहन करने की रिहर्सल के साथ-साथ छाया में खड़े खास लोगों पर कुढ़ने की भी रिहर्सल कर रहे थे. मेरे एकदम पीछे खड़े सज्जन के पैरों पर उनके सर के ऊपर लगे ए.सी. का पवित्र पानी इस अदा से टपक रहा था गोया उनका पाद-पूजन कर रहा हो. उनके श्रीचरणों से छिटका इक्का दुक्का छींटा जब तब हमें भी पवित्र कर जाता था. इस तरक़ीब से हमें भी कुछ वैसी ही शीतलता प्राप्त हो रही थी जैसी मियां चाँद को सूरज से हो जाया करती है.

कैमरामैन अभी तक पेंग्विन के झुण्ड की माफ़िक एक किनारे पर खड़े थे. चल समारोह जैसे ही चलना शुरू हुआ तो उनकी रिहर्सल भी शुरू हो गयी. वे अदबदा कर ऊदबिलावों की तरह इधर उधर दौड़ते दिखे. वे थोड़ी दूर दौड़ते, फिर उचक-उचक कर न जाने क्या देखते और फिर दौड लगाने लगते. तभी दो चार फोटोग्राफर भाग कर चढ़ाव पर तैनात हो गए, तो कईयों ने अपने कैमरों को सर के ऊपर छतरी की तरह तान लिया. एक जालिम तो कैमरा धरती पर रख कर इस इत्मीनान से बैठ गया मानों गंगा-तट पर दीप दान करने चला आया हो. उधर दूसरा अपने लेंस के जरिये समूचे चल समारोह को अपने कैमरे में यूँ समाने लगा ज्यूँ कोई एनाकोंडा अपने शिकार को तिल-तिल कर निगल रहा हो.

आखिर मंचीय कार्यक्रम की रिहर्सल प्रारंभ हुई.  कार्यक्रम के दौरान प्रमुख वक्ता ने जुबान फिसलने की रिहर्सल एकाधिक बार की. उधर दर्शकों ने भी जम कर जम्हाइयां लेने का बाकायदा अभ्यास किया. चूँकि बीच-बीच में नजर बचा कर ‘सुविधाएँ’ का रुख किया जा सकता था, मुख्य कार्यक्रम के दिन दबाव सहन करने की रिहर्सल ढंग से नहीं हो पाई. रिहर्सल और असल का फासला पाटने के लिहाज़ से दूसरी रिहर्सल में दो फर्क नजर आये. एक तो कार्यक्रम के मुख्य अतिथि, जिन्हें विद्यार्थियों को मैडल पहनाने थे उनका कद काट कर छोटा कर दिया गया. दूसरे, ठिगने अतिथि के छोटे डगों से तालमेल बिठाने की गरज से काफिले के प्रगमन का अभ्यास फिर-फिर किया गया. बेशक कुछ खामियां तब भी रह गयीं. मसलन यह देखते हुए कि दीक्षांत समारोह के बाद भोजन का भी आयोजन होना है, खाने की रिहर्सल नहीं हो पाई. लेकिन कोई डर नहीं, अभी और रिहर्सलें पड़ीं थी कमीबेशी दूर करने को.

हम इधर रिहर्सल पर रिहर्सल में पिले पड़े थे. हो न हो उधर महामहिम भी इसी सब में मुब्तला हों. गो ‘आग दोनों तरफ है बराबर लगी हुई’ की तर्ज़ पर. किन्तु संभव है न भी हों, क्योंकि बारात की घोड़ी इतनी मर्तबा मंडप चढ़ चुकी होती है कि उसे क्या अभ्यास करना!



Tuesday, July 1, 2014

नया दौर

(एक मंत्री रामदुलारे, भूतपूर्व मंत्री-पुत्र. प्रातःकालीन वेला. मंत्रीजी सरकारी बंगले में चाय की चुस्की संग मंथर गति से झूला झूलते हुए. दृष्टि कहीं दूर स्थित. विचारमग्न. तभी एक लाल बत्ती गाड़ी बंगले के बाहर रुकती है. सेवक दौड़ कर फाटक खोलता है. मंत्रीजी बुदबुदाते है, अरे, गुरूजी! और अपने सियासी गुरु की अगवानी को लपकते हैं.)


गुरूदेव का शुभ आगमन

मंत्रीजी- अहो भाग्य, जो आज कुटिया में आपके चरण रज पड़े! एक मुद्दत के बाद दर्शन दिए, गुरुदेव?

गुरुदेव- शहर से गुजर रहा था, सोचा आपकी कुशल-क्षेम लेता चलूँ. कहो, सब मंगल तो है?

मंत्रीजी- जनता का दिया सब कुछ है, गुरुदेव.

गुरुदेव- किन्तु हमें आपके मुख पर चिंता की लकीरें दिख रही हैं! दोनों होनहार तो धंधे से जम गए कि नहीं?

मंत्रीजी- ऊपर वाले का बड़ा रहमो-करम है. छोटे की दारू की भट्टियाँ चल रही हैं, बड़े के कालेज. फिरौती और दलाली से कमाई, सो अलग.

गुरुदेव- बहुत अच्छे! यानि दबंगई में भी बाप पर गए हैं! आखिर खून तो आपका ही है!

मंत्रीजी- सब आपका आशीर्वाद है, गुरुदेव! शहर के थानों में दोनों पर कई संगीन मामले दर्ज हैं.

गुरुदेव- फिर किस चिंता में घुले जा रहे हैं, मंत्रीवर?

मंत्रीजी- क्या कहूँ, गुरुदेव! जबसे गठिया बाय रहने लगी मंत्री बने रहना मुश्किल हो रहा है.

गुरुदेव- वो कैसे? गठिया बाय न हुई कोई विरोधी दल का नेता हो गया!

मंत्रीजी- यही समझो, गुरुवर. आपको तो पता ही है कि चुनाव गली के मुहाने पर खड़े हैं. उधर दूसरे बायपास के बाद से ही सभाएं लेना भारी पड़ने लगा है. चुनावी सभाओं के मंच ऐवरेस्ट से दिखते हैं. जन प्रचार दुश्वार हो गया है.

गुरुदेव- अब तो भई, उम्र का लिहाज़ करो. किसी राजभवन या दूतावास में स्थापित हो रहो और आराम से बुढ़ापा काटो. वैसे भी पार्टी अब युवाओं पर ज्यादा भरोसा कर रही है.

मंत्रीजी- सोलह आने सही कहा, गुरूजी. बस मेरी एक ही दिली ख्वाहिश है कि किसी तरह मंत्री पद भी घर का घर में ही रहे.

गुरुदेव- तो इस में दिक्कत क्या है? तुम्हारे दो-दो बेटे हैं. दोनों सर्वगुण संपन्न. अपना पुश्तैनी चुनाव क्षेत्र किसी एक के नाम कर दो.

मंत्रीजी- यही तो दुविधा है, गुरूजी! आखिर वारिस बनाऊं तो किसे बनाऊं? दोनों एक दूसरे पर बीसे पड़ते हैं.

गुरुदेव(सोचते हुए)- देखो भई, आजकल क़ाबलियत का जमाना है. जो ज्यादा काबिल हो, उसे ही गद्दी सौंपना.

मंत्रीजी- मगर गुरुदेव, एक हीरा है तो दूसरा मोती! कौन ज्यादा काबिल है, किस विध पता लगे?

गुरुदेव (गंभीर मुद्रा में)- मंत्रीवर, वो दिन लद गए जब डरा धमका कर, दारू बाँट कर, जात पांत के नाम पर तकसीम कर वोट मिल जाया करते थे. अब लोग सयाने हो चले है. नए दौर में चुनाव जीतना इतना आसान नहीं रहा.

मंत्रीजी- फिर तो आपका ही आसरा है, गुरुवर! आप ही कोई रास्ता निकालें. बताएं कि रामदुलारे का उत्तराधिकारी कौन हो?

गुरुदेव- ठीक है. दोनों बेटों को बुलवाइए. (दोनों आते हैं)

गुरुदेव- देखो बरखुरदार, तुम्हारे डैडी की इच्छा है, हम तुम दोनों की परीक्षा लें. जो खुद को ज्यादा काबिल साबित करेगा वही मंत्रीजी का राजनीतिक वारिस होगा. मैं ठीक दस दिन बाद चिंतन शिविर से लौटूंगा. फैसला तभी होगा. तब तक तुम दोनों दिए गए काम की रिपोर्ट तैयार रखोगे.

(चलते-चलते गुरूजी दोनों को काम सौंपते हैं)


उत्तराधिकार का फैसला

(दस दिनों के पश्चात)

गुरुवर (बड़े से)- बताओ बेटा, मंत्रीजी के प्रचार में तुमने क्या किया?

बड़ा- बताना कुछ नहीं गुरुदेव, मुझे दिखाना है. आइये, चलिए जरा मेरे साथ....(गाड़ी में सवार हो कर शहर के दौरे पर निकलते हैं)
 
बड़ा- देखिये गुरूजी, वहां देखिये, उस ट्रक के पीछे

गुरुदेव- अरे हाँ, जहाँ ‘देखो, मगर प्यार से’ लिखा रहता था वहां लिखा है, ‘सबके प्यारे, रामदुलारे’. मान गए भई, क्या जबरदस्त आयडिया है!

बड़ा- और ऑटो के पीछे भी.

गुरुदेव- नेहरु न गाँधी, दुलारे की आंधी... बढ़िया, बहुत बढ़िया! लेकिन जो पहले पहल वोट डालेंगे उन पढ़े लिखे युवाओं के लिए कुछ किया कि नहीं?

बड़ा- (गाड़ी विश्वविद्यालय की तरफ मोडते हुए) देखिये गुरुदेव, कालेजों की चाहरदीवारी को गौर से देखिये.

गुरुदेव- क्या बात है! आदमकद अक्षरों में पूरी दीवार पुती पड़ी है. पर लिखा क्या है बेटा? ज्वायन ए.बी.डी.डी. यानि?

बड़ा- मतलब ‘सदस्यता लें, अखंड भारतीय दुलारे दल’

गुरुदेव- शाबास! किन्तु इस सब में तो काफी लागत आई होगी?

बड़ा- ज्यादा नहीं गुरुदेव. बस सिर्फ दस लाख. रोजाना बीस पेंटरों की मजूरी, दो बखत का खाना, ठर्रे की बोतल, पेंट ब्रश वगैरह.

गुरुदेव- चलो अब घर चलो, छोटे की रिपोर्ट भी लेनी है.

(घर पहुँचते हैं)

गुरुदेव (छोटे से)- अब तुम्हारी बारी है. तुमने क्या काम किया दस दिनों में, सब को बताओ?

छोटा- गुरुदेव! मैंने डेड की वेबसाईट तैयार करवाई, रामदुलारे एट मंत्रीजी डॉट कॉम.

गुरुदेव- वेबसाईट? ये वेबसाईट किस मर्ज़ की दवा है, बेटा?

छोटा- जैसे अगले ज़माने में चारण और भाट हुआ करते थे, वैसे ही आज के ज़माने में वेबसाईट हैं. वे आपका चरण वंदन करती हैं, गुणगान करती हैं. मालूम है, सिर्फ तीन दिन में दस हजार हिट्स हुए हैं डेडी की साईट पर!

गुरुदेव- बहुत खूब! अलावा इसके और भी कुछ किया है, पुत्र?

छोटा- जी, मैंने डेड का फेस बुक अकाउंट भी खुलवाया है.

गुरुदेव (विहंसते हुए)- तुम्हारे डेड के पहले ही कुछ कम अकाउंट थे जो एक और खुलवा दिया.

छोटा- गुरूजी, ये बैंक का अकाउंट नहीं है. यह अकाउंट अपने आप में एक वोट बैंक है.

गुरुदेव-  वो कैसे भला?

छोटा- फेस बुक अकाउंट पर पोस्ट डलती हैं, स्टेटस डलते हैं जिन्हें लोग लाइक करते हैं.

गुरुदेव-  मगर कोई लाइक करे इस से तुम्हारे डेड का क्या लाभ?

छोटा- इस से हवा बनती है, गुरुदेव!

गुरुदेव- ठीक है, लेकिन पचास सौ आदमियों के लाइक करने से लहर थोड़े ही बन जाती है?

छोटा- जब लाखों लाइक करते हैं गुरुदेव, तो लहर नहीं सुनामी आ जाती है.

गुरुदेव- पर लाखों लोग लाइक करेंगे ही क्यूँ?

छोटा- करेंगे गुरुदेव, जरूर करेंगे. क्योंकि करवाया जायेगा उनसे लाइक. सिद्धांत है पैसे झोंको और भट्टी से शराब की तरह लाइक खेंच लो!

गुरुदेव- अच्छा, ये बताओ अनपढ़ मजदूर, किसान जो कंप्यूटर चलाना नहीं जानते उनके वोट का क्या करोगे?

छोटा- कोई फिक्र नहीं गुरुवर. आज हर हाथ मोबाइल है. उन्हें कोई भी कॉल आएगी तो सबसे पहले रिकार्ड किया हुआ मैसेज सुनाई देगा.

(तभी गुरुदेव का सेल बज उठता है, फोन सुन चुकने के बाद...)

गुरुदेव- सुनिए! फैसला साफ़ है, टिकट पर छोटे का हक है! अगला चुनाव आमने सामने नहीं बल्कि तकनीक के बल पर लड़ा जायेगा और तकनीक में छोटा आगे है.

मंत्रीजी- फैसला सर आँखों पर गुरुदेव, पर बताएँगे कि फोन आखिर था किस का?

गुरुदेव- किसी का नहीं था! कोई कोयल सी कूक रही थी:
सम्माननीय नागरिक, रामदुलारे की जयहिंद! वर्षों से आपका समर्थन और सहयोग ही हमारा संबल और मार्गदर्शक रहा है. इसे आज भी बनाये रखें और राष्ट्र की प्रगति में अपना योगदान दें. जयहिंद! वन्देमातरम!! 


और बड़ी बहू का धमाका

बड़ी बहू- माफ़ी चाहूंगी, गुरुवर! देवर जी तो अंगूठा छाप हैं. वो फेस बुक तो तब चलायेंगे जब उन्होंने बुक की लाइनों पर कभी उँगलियाँ चलाई हों. ये तो देवरानी ने कंप्यूटर की पढ़ाई की है, सो उसी का कमाल है!


गुरुदेव- तब तो हम छोटी बहू को ही राम दुलारे जी की गद्दी का वारिस घोषित करते हैं! 

Friday, June 13, 2014

सीधी बात- एक परीक्षार्थी से



सवाल एक :

हे परीक्षार्थी, आखिर आप परीक्षक को हर दर्जे का बुद्धू क्यों समझते हैं? अव्वल तो सफ़े के दोनो तरफ गज-गज भर के हाशिये छोड़ते हो । फिर मालदा आम की कलमें सी रोपते हुए आर पार निकल जाते हो। और दम इस बात का भरते हो मानो चीन के गाँवों में आबादी बो रहे हो । ड्यूवी का कहा गांधीजी के मुंह में डाल, अरबिन्द की उक्ति सुकरात के मत्थे मंढ सोचते हो किसी को पता भी नहीं चलेगा! अपनी घटिया तुकबंदी को इंवर्टेड कॉमा  में रखकर मीर का कलाम बनाकर चला दोगे और हाथ भी नहीं आओगे। उस मीर का, जिसके सामने अकबर और जौक भी पानी भरते हैं। यकीन नहीं, तो मुलाहिजा फरमायें:

      न हुआ, पर न हुआ मीर का अंदाज़ नसीब
      जौक’, यारों ने बहुत ज़ोर गज़ल में मारा

या फिर मियां अकबर का यह कुबूलनामा –

      मैं हूं क्या चीज, जो  इस  तर्ज़  पे  जाऊं अकबर
      नासिख-औ-ज़ौक भी जब चल न सके मीर के साथ

भाई, परीक्षार्थी हो परीक्षार्थी रहो। चार्ल्स शोभराज क्यों बनते हो? कलम के रास्ते कागज पर उतरे अपने दिमागी फितूर को सवालों के जवाब बता कर परीक्षक को क्यों ठगते हो?
 

सवाल दो :

प्रिय परीक्षार्थी, आप परीक्षक को बिकाऊ मानें, हमें कोई ऐतराज़ नहीं। कारण - आज सभी तो बिकाऊ हैं। मगर एक पीएच.डी. धारी परीक्षक की इज्ज़त क्या इतनी सस्ती है कि कॉपी से नत्थी किए पाँच सौ रूपल्ली के एक नोट में लुट जाए! उस पर यकीन यह कि इस ज़लालत के बाद भी परीक्षक आपको पास कर देगा। प्रिय परीक्षार्थी, आपकी जनरल नॉलेज तो बेहद कमजोर है। थ्री-जी घोटाला, टेलीफ़ोन स्कैम और मेडिकल दाखिला धांधली में बंटी रक़मों का आपको बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं है। सामान्य ज्ञान की कमी को देखते हुए आपका पास होने का हक़ ही क्या बनता है? मेरे हिसाब से तो अगर आप खुद ब खुद पास हुए जा रहे हो, तो भी परीक्षक को आपको फेल कर देना चाहिए। क्योंकि आप अगर गलती से पास हो गए तो जहां तहां यही ढिंढोरा पीटते फिरोगे कि “देखो कितना भ्रष्ट परीक्षक है, घूस लेकर पास करता हैं।“ यानि फेल अपने दुष्कर्मों से होगे, मगर बदनाम करोगे बेचारे परीक्षक को।


सवाल तीन :

परीक्षार्थी श्री , आप मुंह से भले ही कुछ न कहें आपका चाल चलन सब कह देता है । क्या यह सच नहीं कि आप परीक्षक को एक कबाड़ी  से ज़्यादा कुछ नहीं समझते? ऐसा कबाड़ी जो मूल्यांकन केंद्र आते समय दिमाग घर पर छोड़कर, हाथ में फीता या तोल-कांटा लेकर आता है । तभी परीक्षा हाल में तुम ऐसे कमाल करते हो। तुम्हें संजीवनी बूटी लाने को कहते हैं। बदले में तुम हिमालय पर्वत टिका कर चलते बनते हो। अब मरो, फिरो ढूंढते संजीवनी! सब कहूँगा मगर सच नहीं कहूँगा की तर्ज पर एक वही नहीं लिखते जो पूछा गया है, बाकी सब लिख मारते हो। उस पर मानते यह हो गोया सुभाषितानि रच रहे हो! तुम तो फैज साहब के कोई पक्के शागिर्द नज़र आते हो, भाई। जो अपनी परीक्षा के दिन याद करते हुए अपने अनुयायियों को बिना लाग लपेट कहते हैं:

            उनसे  जो  कहने  गए  थे  'फैज़' जां सदका किए
            अनकही ही रह गयी वह बात सब सब बातों के बाद

जिसका भावार्थ है कि परीक्षार्थी को चाहिए कि वह कहने में हिचके नहीं, अपनी बात लपक-लपक कर कहे। आखिर कहने की स्वतन्त्रता भी कोई चीज है! भले ही कह पाये या ना कह पाये, पर कहने में कोई कोर कसर न रखे। इस चक्कर में कई-कई कॉपियाँ जरूर भर दे। ठीक वैसे ही जैसे कोई देहाती स्त्री पुत्र की चाह में कई अनचाही पुत्रियों को जन्म दे-दे कर घर भर देती है।

सवाल चार :

भाई परीक्षार्थी, इन कारनामों के बाद यदि परीक्षा का फल खराब निकल आए तो इसका इल्ज़ाम परीक्षक के सर धरना कहाँ तक ठीक है? जबकि परीक्षक न तो धृतराष्ट्र है जो पुत्र मोह में दुर्योधन को राजपाट दे दे, न ही द्रोण कि द्वेष वश एकलव्य का अंगूठा कटवा ले। न उसे किसी उधो से कुछ लेना, न किसी माधो को कुछ देना। परीक्षा के फल तो किस्मत के लेखे हैं। परीक्षक की भला क्या औकात जो विधि के काम में दखल दे! वह तो सभी मूल्यांकन कार्य खुद को अकर्ता समझते हुए निपटाता है। यही वजह है कि मूल्यांकन हाल के बीचों बीच एक गोला खींच उसके इर्द गिर्द चार पाँच गोले और बना देता है। बीच के घेरे में तीन और बाहर के घेरे में क्रमशः चार, पाँच, छह सात और आठ लिख देता हैं। फिर अच्छी तरह मिलाई गयी कापियाँ दोनों मुट्ठियों में भरकर छत की ओर उछाल देता है। अब कौन सी कॉपी किस घेरे में जा गिरेगी, खुद परीक्षक को भी पता नहीं होता। अंत में घेरे में लिखे नंबर बिना किसी छेड़ छाड़ के कॉपियों पर चढ़ा देता है। किसको तीन मिलें किसे आठ, ये परीक्षार्थी का अपना नसीब। इस तरह परीक्षक अपने हाथ मे कुछ भी नहीं रखता। वह न आठ का श्रेय लेता है, न तीन का इल्जाम।
कहा भी है –

      सवाल तो बिना मेहनत के हल नहीं होते
      नसीब को भी मगर इम्तहान में रखना

इम्तहान मे मुकद्दर रखने में कोताही तुम खुद बरतो। मगर खराब नंबरों का उलाहना परीक्षक को दो। ये कहाँ का इंसाफ है?

जवाब दो, भिया परीक्षार्थी!!