Friday, April 13, 2012

जल, छलिया छलिया छलिया छलिया, जल....! (पानी से निकली समापन पोस्ट)



अत्यावश्यक सूचना
कालेज में नया सत्र प्रारम्भ होने वाला है। समस्त शिक्षक गण कृपया अपने घरों में नल/टैंकर के आने वाले दिवस, समय और आवृत्ति की जानकारी दो दिनों के अंदर कार्यालय में उपलब्ध कराएं ताकि समय सारिणी बनाते समय ध्यान रखा जा सके। समय सारिणी घोषित होने के उपरांत किसी प्रकार के निवेदन पर विचार नहीं किया जा सकेगा।

गुत्थी
प्रोफेसर बामनिया के सप्ताह में चार पहले पीरियड लगाए जाने हैं। दुर्योग से पहले पीरियड के समय ही उनके घर नल आता है। जहां उनका कालेज सप्ताह में छह दिन लगता है, वहीं नल आने की दर एक दिन छोड़ कर एक दिन है। हिसाब लगा कर बताइये कि सप्ताह में उनके पीरियड किस-किस वार को लगाए जाएँ ताकि नल आने वाले ज्यादा से ज्यादा दिन वे घर पर हाजिर रह कर पानी भरने की जुगत कर सकें।

न फिरने वाले दिन
बकवास करते हैं सब! झूठ बोलते हैं वे लोग जो यह फैलाते फिरते हैं कि किसी के भी दिन एक से नहीं रहते... सबके दिन फिरते हैं। अरे, सर्दी के बाद गर्मी पड़ने से, गर्मी खत्म होने पर बरसात आने से, घन गरजने, जल बरसने से क्या होता है? मौसमों की बदली से हालात तो नहीं बदल जाते! नलों मे सैलाब तो नहीं आ जाता। वे तो सदा की तर्ज़ पर टप-टप-टप ही टपकते हैं। अब रेलगाड़ी को ही लें। समय गुजरने के साथ-साथ उसके फेरे बढ़ते जाते हैं। वही गाड़ी जो सप्ताह में एक दिन चलना शुरू हुई थी, अगले साल दो फेरे करने लगती है और दो-एक साल के बाद हर रोज़ चलने लगती है। मगर पानी? वह तो दो दशक पहले भी हफ्ते में दो दिन छोड़ कर आता था, आज भी वही तीन दिन आता है। उल्टे कम दाब और थोड़ी देर तक , सो अलग!
गौरतलब है कि हमारे तबक़े से आज तक कोई आलिम-फ़ाज़िल, अदीब-शायर या कि फनकार नहीं निकला है, और आगे भी क्या ही निकलेगा? कारण है कि इलमों-हुनर उन्हीं के हिस्से में आते हैं जिन पर दिली सुकून और बेमुद्दत फुर्सत नाज़िल होती है। जिन का पूरा वजूद ही पानी की गिरफ्त में हो वे भला उसे किसी पर कैसे कुर्बान कर सकते है! इस लिए कहता हूँ कि चौबीसों घंटे पानी की फ़िक्र में मुब्तला रहने वालों की जिंदगी भी कोई जिंदगी है? उनकी जिंदगी तो बस इन शब्दों में (निदा साहब से क्षमा प्रार्थना के साथ) बयां की जा सकती है:
सारे दिन तकलीफ के, क्या मंगल क्या वीर
न  भी  सोये  देर  तक,  प्यासा रहे गरीब