Monday, January 19, 2015

किश्तों में ख़ुदकुशी: ब्लॉगर भाई बेचैन आत्मा को समर्पित पोस्ट


कटिहार तक ठीक ठाक आई थी. किन्तु स्टेशन पर खड़े-खड़े ही दस मिनट लेट हो गयी. इसके बाद तो इसे लेट होने में मजा सा आने लगा. यहाँ तक कि इलाहाबाद आते-आते यह तीन घंटे से ज्यादा देरी से चल रही थी. हर ऐरी-गैरी सवारी गाड़ी/मालगाड़ी इसे लतियाती हुई वैसे ही आगे निकल रही थी जैसे कमजोरों को धकिया कर हट्टे-कट्टे लोग लाइन में आगे बढ़ जाते हैं. दूर-दूर तक पटरियां खाली हैं, कहीं कोई ट्रैफिक जाम नहीं, फिर भी जाने क्यूँ बारात की घोड़ी सी घडी-घडी खड़ी हो जाती है. कभी ज्यादा तबियत से चलती भी है तो ऐसे जैसे पुराने मॉडल का लम्ब्रेटा पहाड़ पर चढ़ रहा हो, मगर रुकती है तो यूँ गोया अब कहीं जाना ही न हो. कहने को पूर्वोत्तर क्रांति है मगर दो कदम चलने पर ही दम फूल जाता है, किसी दिल के मरीज़ की तरह. जिस गाड़ी को सराय रोहिल्ला से मिन्टो ब्रिज तक चलाना था न जाने किस खब्ती ने उसे गौहाटी-दिल्ली रूट पर लगा दिया. अभी-अभी अच्छी भली चल रही है. अचानक चलते-चलते बियाबान में खड़े होकर न जाने क्या सोचने लगती है. शायद सोचती हो कि अगर इस जगह चौराहा होता तो किधर जाती. रेलवे वाले मिलें तो एक बात पूछें. आखिर उधर से आने वाली हर गाड़ी क्या ओबामा की 'बीस्ट' है जो हमें रोक कर उस मरदूद को निकाले जा रहे हो!

अँधेरे में खड़ी है. बेटे ने नेट पर देख कर बताया, कहाँ खड़ी है. पहुँचना दोपहर एक बजे था किन्तु रेलवे साइट पहुँचने का समय साढ़े चार दिखा रही है. फिर साढ़े आठ, दस, साढ़े बारह, सुबह के ढाई, ....गोया

          ये जिंदगी एक मुसलसल सफ़र है
          मंजिल पे पहुंचा तो मंजिल बढ़ा दी

सुना था, जो होता है वह पहले से तय होता है. ऐसा है तो फिर इस गाड़ी का दिल्ली पहुँचना भी जरूर तय होगा. है कोई माई का लाल- कोई मुल्ला, कोई पंडित, कोई सूझा, कोई ज्योतिषी जो अपनी पोथी बांच कर एक-मुश्त बता सके कि आखिर यह गाड़ी दिल्ली प्लेटफार्म पर कब जा कर लगेगी!! ये बंदा उसकी टांग के नीचे से निकलने को तैयार है. आज की फ्लाईट छूटी तो छूटी, अब डर इस बात का है कि कहीं कल शाम की भी ना छूट जाये!

कोई एक सौ छप्पन बार रुक चुकी है कानपुर से चल कर. अभी टुंडला भी नहीं आया. ऐसा लगता  है मानों इसके चक्के ठण्ड से जकड गए हों, या फिर चलना भूल गए हों....फिर ठहरी हुई है. अब तो आजिज़ ही आ गया हूँ. दिल करता है गाड़ी से ही कट मरुँ, झंझट ख़त्म हो! किन्तु ऐन वक्त ससुरी फिर खड़ी हो गयी तो!!!

 शायद 'खुमार बाराबंकवी' साहब इसे ही कहते हैं किश्तों में ख़ुदकुशी का मज़ा!!