Wednesday, August 12, 2015

तीसरे सुधारों की ओर

हमारे देश में सुधारों की एक लम्बी और गौरवशाली परंपरा रही है. उन्नीसवी सदी के आखिर में हमने धर्म को सुधारने का काम किया. जब धर्म सुधर गया तो बीसवीं सदी में हम आर्थिक सुधारों पर पिल पड़े. इसके चलते देश में बोफोर्स, आदर्श, थ्रीजी और व्यापमं जैस अनेक मानक स्थापित किये गए. यहाँ तक कि शिक्षा और चिकित्सा जैसे शुद्ध सेवा क्षेत्रों में भी देखते-देखते कई अभूतपूर्व सुधार कर दिए गए. और तो और दुकान बढ़ा चुके कारोबारियों की भी कई पुश्तें तर गईं. लेकिन इन सुधारों में देश कब तक मगन रहेगा? देश को अब तीसरे सुधारों की तत्काल जरूरत है.


यह भारत का सौभाग्य ही था जो मेमन की फांसी ने इसे तीसरे ऐतिहासिक सुधारों के मुहाने पर ला कर खड़ा कर दिया. कुछ कानून छांटने वालों को कहीं से दिव्य दृष्टि हासिल हुई, जिसकी कृपा से उन्हें मृत्युदंड के पुराने फैसलों में बड़ी-बड़ी गलतियाँ दिखाई देने लगी. मर चुके व्यक्ति को दुबारा जिन्दा कर गलतियाँ सुधारना किसी के बस में नहीं. मगर फांसी की सजा ख़त्म करना तो बस में है. दुनिया के कई देश मौत की सज़ा पर रोक लगा कर कब के सुधर चुके हैं. अब हमारी बारी है. हमें कानून की किताबों से मौत की सजा वाला पन्ना फाड़ कर तुरंत सुधरना होगा.


सिर्फ फांसी पर रोक लगाने से कानूनी सुधारों को पूरा कर लेना भारत जैसे विशाल देश के लिए शर्म की बात होगी. सो जहाँ-जहाँ, जिस-जिस क्षेत्र में फांसिया लग रही हैं या लगवाई  जा रही हैं, हमें उन सभी क्षेत्रों में सुधार करना होगा. अब पुलिस महकमे को ही ले. आये दिन किसी न किसी पुलिसिये की थाने में फांसी लगा लेने की खबर अख़बार में पढ़ने को मिल जाती है. ऐसा किसी न किसी की गलती से ही होता है. देश में अपराध बढ़ रहे हैं. मुट्ठी भर पुलिस वाले भला कहाँ-कहाँ, किसे-किसे पकड़ें? इसी दबाव के चलते उन्हें आत्महत्या को मजबूर होना पड़ता है. इससे उबरने का एक ही उपाय है- कानूनी सुधार. कातिलों को पकड़ने के लिए इन्हें आज़ादी देनी होगी. इन्डियन पेनल कोड में ऐसे सुधार किये जाएँ कि वे किसी शरीफ़ को सोते से उठा कर उससे कत्ल कबूल करवा सकें. उधर कई पुलिस कप्तान अपनी जान पर खेल कर अपराधियों को पकड़ भी लेते हैं. किन्तु गवाहों के पलटने, वकीलों के दाँव-पेंच और अदालतों की लेटलतीफी से उन्हें सजा नहीं दिलवा पाते. लिहाज़ा, नामर्दगी के ठप्पे के डर से खुद की कनपटी पर लबलबी दबा बैठते हैं. हमें पुलिस प्रणाली में सुधार कर उन्हें अधिकार संपन्न बनाना होगा. जिससे वे गर्ल-फ्रेंड के साथ सैर सपाटे को निकले युगल को आतंकवादी समझ उनका एनकाउंटर कर ख़ुदकुशी से बच सकें. आखिर लाख दो लाख का मुआवज़ा मिलने से उनके अनाथ परिवारों के साथ न्याय थोड़े ही हो सकता है!


साहित्य के क्षेत्र में भी सुधारों की भारी जरूरत है. अगर देश की सर्वोच्च न्यायालय की खंड पीठ से गलती हो सकती है तो एक अदद संपादक/ उपसंपादक अपनी विवेकहीनता से रचना को रद्दी की टोकरी में क्यों नहीं फेंक सकता! रचना की अस्वीकृति उभरते हुए लेखक के लिए किसी फांसी से कम नहीं होती. युवा लेखकों की रचनाएँ नामंजूर कर उनके अदबी सफ़र का बेवक्त खात्मा करना किसी युवती को भरी जवानी विधवा करने जैसा जुर्म है. हमें यह बर्बर प्रथा तत्काल ख़त्म कर सुधरना होगा. रचनाओं को पहले पाओ, पहले छापो के आधार पर स्वीकृत कर संपादकों की गलती से काफी हद तक बचा जा सकता है. इस फैसले से हम सुधारों की तरफ एक मजबूत कदम बढ़ा सकेंगे.


एक शिक्षक होने के नाते मेरा मानना है कि अगर सुधारों की कहीं सबसे ज्यादा जरूरत है, तो वह शिक्षा के क्षेत्र में है. परीक्षाओं में फेल होकर स्कूल/ कालिजों के पढाकों का पंखे से झूल जाना आज आम बात है. गुणीजनों का कहना है, टीचरों के गलत कापियां जांचने के कारण ही ऐसा होता है. लिहाज़ा हर साल न जाने कितनी राष्ट्रीय प्रतिभाएं अपनी जान से हाथ धो बैठती हैं. भले ही कुछ लोग शक करें, किन्तु शिक्षक भी आखिर है तो इंसान ही! इंसान हैं तो गलतियाँ भी होंगी ही. मतलब... सुधार हो ही नहीं सकता? बिलकुल हो सकता है! इस मामले में हम खुदा से बहुत कुछ सीख सकते है. यह ईश्वर ही है जो कभी कोई गलती नहीं करता. क्यूंकि कुछ करता ही नहीं, तो गलती क्या करेगा? वह तो अकर्ता है!! बस यही वह सूत्र है जिसे पकड़ कर अर्थात शिक्षक को अकर्ता बना कर, सुधार की तरफ बढ़ा जा सकता है. वह पेपर ही सेट न करे, वीक्षकीय कार्य ही न करे, कापियां ही न जांचे, तो गलतियाँ कहाँ से होंगी? दरअसल हो यह कि परीक्षाएं ही ना हों. बस सारा टंटा अपने आप ख़त्म! छः माह की मियाद पूरी होते ही विद्यार्थी खुद-ब-खुद अगले सेमेस्टर में पहुँच जाये. कोर्स की अवधि ख़त्म होते ही उन्हें सनद/डिग्रियां बाँट दी जाएँ. सब कुछ समयबद्ध हो. ठीक वैसे ही जैसे बिना परीक्षा कुछ सालों बाद आप बचपन से जवानी में पहुँच जाते हैं. एक तय उम्र में शादी कर, माँ-बाप, फिर दादा-दादी का पद प्राप्त करते हुए एक दिन टपक जाते हैं. परीक्षाएं होती तो बहुतेरे बचपन में ही पड़े सड़ते रहते, कईयों की शादियाँ ही न हुई होती! यूँ देखा जाये तो रहीमदास जी बहुत पहले इन सुधारों का आग़ाज़ कर चुके हैं, जब वे कहते हैं:


              समय पाय फल होत हैं, समय पाय झर जाय      

              सदा रहे  नहिं  एक सा, का  रहीम  पछताय    

बाकी बचे तमाम क्षेत्रों में सुधार के लिए मैं माननीय प्रधानमंत्री जी का आह्वान करूँगा कि वे शीघ्र ही एक 'राष्ट्रीय सुधार आयोग' का गठन करें. यदि वे जोर देंगें तो मैं इसका अध्यक्ष पद सम्भालने पर भी राजी हो सकता हूँ.