Saturday, May 24, 2014

फिर शोले




[खबर है कि गुजरे जमाने की बॉक्स ऑफिस पर सुपर-हिट फिल्म शोले एक बार फिर बनने जा  रही है। शूटिंग कभी भी शुरू हो सकती है। हाँ, यह रील शोले नहीं, बल्कि रियल शोले होगी। कास्ट तय हो गयी है, पट-कथा भी लिखी जा चुकी है। फिर शोलेफिल्म की स्टोरी लाइन आपकी ख़िदमत में पेश है।]


क्लैप सीन

तरेरा के बीहड़ों में गब्बर का गिरोह हजार-हजार कोस की रियाया पर हुकूमत का ठर्रा चढ़ा कर झूमता हुआ। सामने प्रोफेसरानों की उम्र के कुछ देर पहले घिघियाते साल 63, 64 और 65 अपनी जान बच जाने के मुगालते में बरबस खिलखिला कर सुरक्षित भागते हुए। अचानक गब्बर की पिस्टल से निकली ठाँय, ठाँय, ठाँय की गूजों के बाद सन्नाटा। धरती पर औंधे मुंह गिरे खून से लथपथ वर्ष 63, 64 और 65। गब्बर सरदार अपनी पिस्टल की नाल का धुआँ फूंकते हुए।


फ्लैश बैक: शिक्षक गढ़ का सीन

शिक्षक गढ़ का दृश्य। हर तरफ मुर्दनी छाई हुई। .... खबर है कि गब्बर आ रहा है, वो कभी भी आ सकता है! रिटायरमेंट के 65 से वापस 62 होने के सरकारी हुक्मनामे के कभी भी आ धमकने की दहशत से बुजुर्ग गढवासियों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही हैं। 1947 में बँटवारे के फैसले के बाद सरहद पर बसे गाँव वासियों को एक अरसे तक यह इत्मीनान नहीं था कि उनका गाँव हिंदुस्तान में आता हैं कि पाकिस्तान में! कुछ ऐसा ही हाल उन प्रोफेसरों का था जो 62 के पार थे। वे टोबा टेकसिंह की तरह सोच-सोच कर हलकान हुए जा रहे थे कि वे अभी सेवा में माने जाएंगे या कि सेवानिवृत! यदि 62 में रिटायरमेंट का फरमान आता है तो उनका विदाई समारोह अतीत में कैसे आयोजित किया जाएगा? क्या सब टाइम मशीन पर सवार हो सन 2013 या 2012 में जाकर शॉल-श्रीफल ग्रहण करेंगे? इनसे पढे विद्यार्थियों की  डिग्रियाँ क्या निरस्त कर दी जाएंगी? डिग्रियाँ वैध बनाने के लिए क्या इन्हें दोबारा दाखिला लेकर वैध शिक्षकों से पढ़ना होगा? जो पढ़ लिख कर नौकरियों पर लग चुके हैं क्या उन्हें निकाल बाहर किया जाएगामान लो इस खबर की डोंडी दोपहरी में पिटती है, तो क्या पढ़ाते-पढ़ाते प्रोफेसरों के हाथों से चाक छीन कक्षा-बदर कर जबरन घर भेज दिया जाएगा? देर शाम खबर आती है, तो ऐसी सूरत में क्या घर पर फोन लगाकर कह दिया जाएगा, कल से आपको कॉलेज आने की जरूरत नहीं है। आपकी पारी आज सायं 7 बजे खत्म हो चुकी है...अब आप सेवानिवृत्त हैं।

चुनाव आते ही प्रोफेसरों में सवाल सवाल का एक दिलचस्प खेल शुरू हो जाता है। हर कोई दूसरे से पूछता है- क्यूँ, ड्यूटी तो नहीं आयी ना?” अगर नहीं आयी हो तो दूसरे का जवाब होता है- अभी तक तो नहीं आई, पर पता नहीं कब आ जाए! 65 से 62 के खटके के चलते अब रिटायरमेंट-रिटायरमेंट का खेल खेला जा रहा है। । इस खेल में पूछने वाला पूछता है, और, आपका रिटायरमेंट कब है?” तो सामने वाले का जवाब कुछ ऐसा होता है- अभी तक तो 2017 है, पर पता नहीं कब तक?”

[सस्पेन्स!! आखिर 65 से 62 की उलट बांसी की वजह है क्या? कोई तो राज है जो इसकी तह में छुपा है! जवाब जानने के लिए हमें फिर बीहड़ चलना होगा।]


तरेरा बीहड़ का सीन

सांभा नाम का, सरदार का एक मुंह लगा बागी। हिन्दी के किसी प्रोफेसर द्वारा पीएच. डी. कराये जाने से इंकार के बाद बेहद खफ़ा। प्रोफेसरों की पूरी कौम से बदला लेने के लिए एक अदद मौके की तलाश में। एक दिन सरदार को खुस्स देखा तो आवाज़ मे नरमी भर कर बोला, रदा, ये बूढ़ी गायें अब बस घास खाती हैं और दिन भर जुगाली करती हैं। पहले सी दुधारू भी नहीं रहीं। इन्हें बूचड़खाने भेज दिया जाए तो सरकार का खर्च ही नहीं बचेगा, उलटे आमदनी भी होगी। आप तो जानते ही हैं कि आजकल अपना पकड़ का धंधा कितना मंदा पड़ गया है।पहले पहल सरदार माना नहीं, पलटकर बोला- यूं ही हांक रहे हो सांभा, या तुम्हारे पास कोई सुबूत है कि ये गायें अब थनों से नीचे दूध नहीं उतारती? यह सुन सांभा झट से उठा और खोह में अस्सलाह में छुपा कर रखी एक किताब उठा लाया। बोला- सरदार, जान की बख्शीश देते हो तो पढ़ कर सुनाऊँ? लिखा है:

            कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
            कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए।

दुष्यंत नाम के प्रोफेसर ने खुद कुबूल किया है, अब तो मानोगे ना? उसका कहना है कि सांझ होते–होते ये लोग सिरहाना ढूँढने लगते हैं। सरदार, आप सोच नहीं सकते ये कितने शातिर हैं!  इन्होंने सन्यास से पहले अपने लिए वानप्रस्थ का इंतजाम कर रख छोड़ा है। आखिर के तीन चार साल सुस्ताने के....रिसर्च कराना धीरे-धीरे ठप्प, कक्षाएं भी शनै-शनै गोल! फिर 65 से 62 का आयडिया सरदार की खोपड़िया में घुसाने की गरज़ से जोड़ा- सरदार, इस तरकीब के दो फायदे हैं! बोले तो फक्कत एक गोली से दो-दो भेजे बाहर!! अव्वल तो इन मरदूदों को रिटायरमेंट से पहले किस्तों में रिटायर होने की कोई सुविधा नहीं मिलेगी, यानि आखिरी दम तक जम कर काम लेने की फुल गारंटी! ग्लोबलाइज़ेशन का भी यही तक़ाज़ा है। दूसरे, दुनिया का सबसे बड़ा सरदार, अमरीका भी आपके इस कारनामे पर खुस्स होगा और आपको खूब साबासी देगा!
  
इतना सुनना था कि गब्बर सुरती थूक उठ खड़ा हुआ और बेल्ट फटकारते हुए चट्टान पर इधर से उधर टहलने लगा। ....फिर मन ही मन कुछ ठान कर टीले पर बैठ गया और पिस्टल में गोलियां भरने लगा।




Tuesday, May 13, 2014

बड़े लोग


वे बड़े आदमी हैं….
उनके करीबी रिश्तेदार भी बिना अप्वाइंटमेंट के घर पहुँच जाएँ तो बुरा मान जाते हैं। फिर हम तो आखिर हैं किस गिनती में? कभी-कभी तो हमें यह भी शक होने लगता है कि हम उनके परिचित भी है कि नहीं! एक बार की बतायें। टेलीफोन से बाकायदा मिलने का वक़्त लेकर नियत समय पर घर की घंटी बजाई तो एक सेवकनुमा शख्स बैठकघर की राह दिखा कर कहीं गुम हो गया। इसके बाद एक मुद्दत तक हमारे कान किसी तरह की हलचल को तरस गए। इस दौरान बैठे-बैठे हम उनकी बैठक का पूरा जायज़ा ले चुके थे। ढूंढ रहे थे कि कहीं कोई खुली खिड़की, झरोखा या यहाँ तक कि झिर्री ही दिख जाए जिस से बाहर का हाल पता लगे कि वहाँ क्या चल रहा है? मगर मालूम होता था कि बिना इजाज़त उन्हें हवा और रोशनी तक का घर में प्रवेश गवारा नहीं था। खैर, आखिर वह घड़ी आई जब वे नमूदार हुए- सूट, बूट और टाई समेत। हमने पूछा, हम गलत वक़्त तो नहीं आ गए? किसी फंक्शन वंक्शन में तो नहीं जाना आप लोगों को?’ बोले, नहीं नहीं, आपको अप्वाइंटमेंट दे दिया था तो फंक्शन में कैसे जाते?’ अच्छा, तो फिर ऑफिस से अभी हाल लौटे होगे?’, हमने जानना चाहाअरे नहीं आज तो हम ऑफिस से काफी जल्दी आ गए थे’, उन्होने साफ किया। हम सोचने लगे, कि सुना तो था बड़े लोग मुंह में सोने की  चम्मच लेकर पैदा होते है। आज पता चला कि वे चम्मच के साथ-साथ गले में टाई, बदन पर सूट और पैरों मे बूट लेकर भी पैदा होते हैं! हो न हो, बैठकखाने में भी देर से इसीलिए आ पाये हों कि टाई से मैच करते हुए अंतर्वस्त्र ऐन वक़्त कहीं ढूँढे न मिल रहे हों!

कुछ देर बाद साहब फोन का जवाब देने बंगले के किसी अंदरूनी हिस्से में चले गए। एकांत मिला तो हम सोचने लगे कि क्या अफसर के दिल पर दस्तक देने से पहले इश्क़ को भी अनुमति लेनी पड़ती है? क्या अपने घट का पट भी वे किसी सेवक से खुलवाते हैं? अपनी मोहब्बत को वे कितने नजदीक तक आने की इजाजत देते होंगे? तभी एक बालक, जो चेहरे मोहरे पर जायेँ तो उनका बेटा रहा होगा, कुछ लेने बैठक में दाखिल हुआ। मनुष्य जैसे प्राणियों में अंतरंगता के बिना संतानोत्पत्ति का रहस्य पहले पहल हमें समझ में नहीं आया। फिर खयाल आया कि साहब ने मैडम को जरूर वही चमत्कारी फल खिलाया होगा जो त्रेता युग में महाराज दशरथ ने अपनी रानियों को खिलाया था। जो भी हो, हमने उनके बेटे को पास बुला कर धीरे से पूछा, बेटा, मम्मी घर पर नहीं हैं क्या?” क्यूँ? घर पर ही तो हैं!”, बच्चे ने कहाअच्छा, तो मेडिटेशन वगैरह कर रहीं होंगी?” जवाब में जो बेटे ने जरा घुमा कर, ज्यादा शरमा  कर बताया उसका सार यह था। मम्मी की पार्लर वाली दो दिन की छुट्टी पर गयी है। उनके लौटने तक मम्मी अज्ञातवास में ही रहेंगी और किसी भी खासो-आम से मिलने बाहर नहीं आएंगी।

अब उनके घर गए थे तो जाहिर सी बात है कि किसी रोज उन्हें भी बुलाते। काफी नाजो-नखरे के बाद वे आए सही, मगर बुझे-बुझे से यूं गोया कब्रगाह से किसी को सुपुर्दे-ख़ाक कर सीधे चले आ रहे हों। हम हुलस कर उन्हें गले लगाने को आगे बढ़े तो वे मानों घबरा उठे कि कहीं उनके बड़प्पन के साथ कोई हादसा तो नहीं हो जाएगा। जवाब में उन्होने एक हाथ के फासले से ही हाथ जोड़ लिए। शायद उन्हें डॉ बशीर बद्र साहब द्वारा रचित अफसर नीति-निर्देशिका की वह कंडिका याद आ गयी, जिसमे लिखा है:  
                
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,                  
ये नए मिजाज़ का शहर है जरा फासले से मिला करो।

 खैरियत की पूछताछ के बाद पत्नी ने बड़े चाव से अपने हाथ के बने बेसन के लड्डू परोसे। मगर क्या मजाल जो लड्डू के साथ उन्होने कोई ऐसी वैसी हरकत की हो जब तक कि इन्हें छुरी काँटा नहीं दे दिया गया! मैडम को भी पानी के गिलास को हाथ न लगाते देख पत्नी ने सूझ-बूझ से काम लिया और फौरन गिलास में दो स्ट्रॉ डाल दिये।

एक होली का किस्सा है। सोचा, आज तो रुतबे के लबादे को उतार फेंक कर फाग के रंगों में डूबे, अलमस्त झूम रहे होंगे। मगर गए, तो क्या देखते हैं कि आँगन में एक तयशुदा जगह पर खड़े हुए हैं। आगंतुक बारी-बारी आते। आधी चुटकी गुलाल से मांग में सिंदूर भरने की अदा के साथ माथे पर तिलक लगाते। फिर चार कदम पीछे हट कर खड़े हो जाते। तमाम क्रियाओं के दौरान वे मात्र उतनी ही मात्रा में तरंगित होते रहे जितना कि देवी सरस्वती की मूर्ति अपने तिलक रोली कराने पर होती दिखाई पड़ती हैं। रंग के किसी छींटे ने भी इतनी जुर्रत नहीं की, जो छिटक कर इनके बदन या लिबास पर जा पड़े। घंटे भर के मिलन के समापन पर भी उनका बाना मुकम्मल तौर पर साफ शफ़्फ़ाक ही बना रहा।


खुदाया, उस दिन अगरचे छुट्टी नहीं रही होती तो वे बाहर के बाहर सीधे दफ्तर चले जाते।  

Thursday, May 1, 2014

एक घंटी की अग्नि परीक्षा



किसी को मजा चखाना हो, भरे बाज़ार पगड़ी उछालनी हो या फिर खाट ही खड़ी करनी हो, तो दुबई के भाई हैं ना! दुबई दूर लगती हो अथवा सुराज का कीड़ा काटता हो तो घर के पिछवाड़े ही सीबीआई है, आरटीआई है, पीटीआई है। इनके गुर्गे हैं, लठैत हैं, पहलवान हैं। अब हम जैसे दो कौड़ी वालों पर सीबीआई तो क्या हाथ डालेगी! हाँ, बाकी बचे देसी भाइयों में से एक की बानगी देखिये। (वाकया एकदम सच्चा है, बस लज़्ज़त बनाने की गरज से वार्तालाप की प्रस्तुति में थोड़ी ड्रेसिंग की छूट ली गयी है- बोले तो, क्रिएटिव फ़्रीडम’)

मौका-ए-वार्तालाप

एक रोज रात तकरीबन 9 बजे लेंडलाइन फोन की घंटी बजती है। रिसीवर उठाया तो पता चला कि शहर के एक नामचीन अखबार के और भी भीषण नामचीन रिपोर्टर हैं। दीगर सी बात है कि उस वक़्त हम एक बेहद तुच्छ और घरेलू क्रिया यानि खाना खाने में मुब्तला थे। वे रुतबे की ठसक में थे। सो, यह पूछने की ज़हमत उठाने का सवाल ही नहीं उठता था कि क्या हमें उस वक़्त बात करना गवारा होगा? वे तो यक-ब-यक ऐसे घुसे चले आए जैसे रेल के डब्बे में ताली बजाने वालों की उपद्रवी मंडली घुस आती है। अब अपनी भलाई इसी में थी कि फौरन जो भी बने वह नेग उनकी हथेली पर टिका कर अपना पिंड छुड़ा लें। फिर लगभग बलात जो वार्तालाप सम्पन्न हुआ वह अविकल आपके सामने प्रस्तुत है।

वार्तालाप: सर से पा

वे- परसों नैक (निरीक्षण) की टीम आपके विभाग के दौरे पर आ रही है और आपके यहाँ अभी भी हाथ से पुराने जमाने की घंटी बजाई जा रही है। नैक के सामने क्या इज्ज़त रह जाएगी आपके विभाग की?
हम- सर, विभाग की इज्ज़त घंटी पर ही टिकी है क्या? नैक की टीम पढ़ाई-लिखाई , शोध वगैरह भी तो देखेगी। लैब-लाइब्रेरी और प्लेसमेंट भी देखेगी। केवल घंटी ही थोड़े देखेगी!  
वे- ठीक है, पर जमाना कितना आगे निकल गया है और आप है कि जहां थे, वहीं खड़े हैं! आप नहीं समझते आको बदलते वक़्त के साथ बदलना चाहिए?
हम- जी, मगर हमारी घंटी शुद्ध पीतल की है, चन्दा सी गोल मटोल। मनभावन टनाटन आवाज़ निकालती है। ईको-फ्रेंडली है, और बिजली के भरोसे नहीं रहती। बड़ी बात यह कि ठोके लगाने वाला कर्मी इस कला में माहिर है। अपने सधे हुए हाथ से वह इस अदा से माकूल जगह चोट करता है कि घंटी की आवाज़ भवन के कोने-कोने तक तो पहुँचती है, पर आर-पार जाने की हिमाकत नहीं कर पाती। ऐसी घंटी से भला किसी को परहेज क्यूँ हो?
वे- ऐसा है तो बड़े-बड़े विभागों में आज इलेक्ट्रिक बेल क्यों यूज़ हो रही है? जब वे कर रहे हैं तो आप क्यूँ नहीं कर सकते?
हम- मान लिया हर तरफ आर्केस्ट्रा का शोर है पर इस वजह से हम अपनी बांसुरी फेंक दें, तानपुरा तोड़ दें, पेटी (हारमोनियम) बजाना छोड़ दें? यह तो कोई बात नहीं हुई!
वे- आप मुद्दे से बहक रहे हैं। मैं घंटी की बात कर रहा हूँ, आप बीच में पेटी ला रहे हैं!
हम- मेरा मतलब था कि दूसरे विभाग कल के पैदा हुए हैं। हमारा विभाग सबसे पुराना है। अपनी बिल्डिंग भी किसी पुश्तैनी हवेली जैसी है। .....और आजकल ऐसी घंटियाँ मिलती भी कहाँ हैं?
वे- ठीक है, पर एक तरफ आप कंप्यूटर चला रहे हैं और दूसरी तरफ आदम बाबा की घंटी! बाहर वालों पर क्या इंप्रेशन पड़ेगा?
हम- घंटी से भला इंप्रेशन क्यों बिगड़ेगा? क्या मंदिरों में आज भी घंटे-घड़ियाल नहीं बजते, अदालतों में खुद जज साहब हथोड़े की चोट से घंटा बजा कर आर्डर’, आर्डर नहीं करते?
वे- कुछ भी कहो, देखना आपकी यह घंटी ग्रेड की तमाम कोशिशों पर पानी फेर कर रहेगी!
हम- सर, यह कोई हमारा पहला निरीक्षण तो है नहीं! पाँच साल पहले जब हमें ग्रेड मिला था, तब भी यही घंटी थी।
वे- मिल गया होगा! मगर पीतल कि यह घटिया घंटी आपको हर बार नहीं दिलवा सकती। आखिर आप इलेक्ट्रिक बेल लगवा क्यों नहीं लेते?
हम-  देखिये जनाब! आप होते कौन हैं हमसे इस तरह जवाब तलब करने वाले? वल्लाह, आज तलक हमारे अफसरों तक ने हमसे इस बाबत कोई सफाई नहीं मांगी!
वे- पर हमारी भी तो कोई ज़िम्मेदारी बनती है कि नहीं? हम प्रैस वाले हैं। सड़ी-गली प्रथाओं का विरोध हम नहीं करेंगे, तो कौन करेगा? निज़ाम की खामियों का पर्दाफ़ाश करने का पूरा हक़ है हमें। (फोन रख देते हैं)

पश्च वार्तालाप टीप

अगले दिन सुप्रभात में नैक के सामने घंटी बजी, तो बज जाएगी घंटी नामक लेख छाप कर उन्होने आखिर घंटी बजाने की कुप्रथा का पर्दाफ़ाश कर ही दिया!
गनीमत यह रही कि अव्वल तो हमारे विभाग को एक बार फिर ग्रेड मिल गया, वरना ग्रेड का ठीकरा उस गरीब घंटी के सर जा फूटता। दूसरे, यह भी अच्छा हुआ कि नैक की तैयारियों के चलते, वक़्त की तंगी से हम इलेक्ट्रिक बेल नहीं लगवा पाये। वरना ग्रेड का सेहरा अपने सर बांधते हुए वे एक बार फिर छाप देते-
सुप्रभात ने ही सबसे पहले छापी थी खबर
नैक के सामने घंटी बजी, तो बज जाएगी घंटी