यह क्रिकेट मैच न टी-ट्वेंटी है न वन-डे है, बल्कि सन्डे है. इसे फुटबाल के आधे मैदान पर ब्रेकफास्ट से पहले खेला जाता है. पूरे
मैदान के चारों तरफ चक्कर लगा रहे सुबह की सैर करने वाले बुजुर्ग अथवा मैदान के
दूसरे आधे हिस्से में खेले जा रहे मैच के खिलाडी इसके दर्शक होते हैं. सन्डे मैच
में दोनों टीमों को मिला कर भी ग्यारह खिलाडी हो जाएँ तो बहुत माने जाते हैं. आम
तौर पर खिलाडी खेल के जरूरी सामान के अलावा अम्पायर लेकर घर से नहीं निकलते. मैदान
पर ही अम्पायर का बंदोबस्त हो भी जाये तो लोकसभा के सभापति की तरह उसकी कोई नहीं
सुनता. टीम में खिलाडी चुनने समेत सारे फैसले शोर-शराबे अर्थात ध्वनि मत से ले लिए
जाते हैं. बल्लेबाजी का क्रम अक्सर बाजुओं के बल के आधार पर तय होता है और
गेंदबाजी उस जांबाज को नसीब हो पाती है जो छीना-झपटी की कला में पारंगत हो. यही
वजह है कि टीम में कप्तान के लिए कोई खास काम नहीं बचता.
खिलाडियों के टोटे के चलते कोई टीम स्लिप पर
खिलाडी तैनात करने का नहीं सोच सकती. हाँ, विकेटों के पीछे एक विकेटकीपर और उसके
ठीक पीछे एक और बेकअप विकेटकीपर जरूर लगाया जाता है. ध्यान से देखो तो पता चलता है
कि प्रमुख विकेटकीपर का मुख्य काम बैकअप विकेटकीपर के लिए गेंदों को छोड़ना होता
है. ठीक वैसे ही जैसे दफ्तर के बॉस का प्रमुख काम बाबुओं को काम सौंपना होता है.
इन मैचों में हो सकता है मिड-विकेट हो ही ना, वरन उसकी जगह थ्री-फोर्थ विकेट हो.
डीप थर्ड मैन या लॉन्ग ऑन पर खड़ा खिलाडी फील्डिंग कम और वाट्स एप ज्यादा करता देखा
जा सकता है. इस खेल में बल्ले के प्रहार से निकली गेंद के पीछे आजू-बाजू के फील्डर नहीं भागते, बल्कि हाथ उठा कर यह बताते हैं कि किसे भागना था! जब तक यह तय हो कि फील्डिंग किसकी थी तब तक गेंद सीमा रेखा के बाहर चली जाती है. ठीक उसी तरह जैसे सम्बंधित थाने जब तक यह तय करें कि वारदात किसके क्षेत्र में हुई थी तब तक लुटेरे शहर छोड़ चुके होते हैं. यहाँ किसी फील्डर द्वारा कैच टपकाए जाने को पिछली दफा उसकी गेंद पर बॉलर खिलाडी द्वारा टपकाए गए कैच का बदला मान लिया जाता है. जिसका कोई खास बुरा भी नहीं माना जाता.
बल्लेबाजी अमूमन एक ही छोर पर की जाती है. दूसरे
छोर पर वैसे की भी नहीं जा सकती. क्योंकि उस छोर पर न तो विकेट होती हैं न ही
बल्लेबाज के हाथ में कोई बल्ला. रन आउट वगैरह के लिए डंडों की जगह चप्पल आदि बिखरा
कर काम चला लिया जाता है. यूँ एक रन लेने से बचा ही जाता है. कारण कि रन लेने के
बाद स्ट्राइकर एंड पर पहुंचे बल्लेबाज को चल कर बल्ला देने जाना होता है. सो कौन
जहमत उठाये? इस प्रकार के मैच में जीत या हार होने की नौबत के आने से पहले ही झगडा
हो जाया करता है. झगडा न भी हो तो बारी की इंतज़ार कर रहे बड़ी उम्र के खिलाडियों
द्वारा धोंस-पट्टी देकर मैदान को खाली करा लिया जाता है. इस तरह मैच बे-नतीजा
समाप्त हो जाता है. लेकिन मजेदार बात यह है कि दोनों पक्ष अपनी-अपनी टीम को विजेता
मान हंसी-ख़ुशी घर लौटते हैं. विन-विन सिचुएशन, मैच में पिछड रही टीम के लिए भी! क्यूँकि
जिस तरह लेट चल रही भारतीय रेलें समय बना कर सही समय पर भी पहुँच सकती हैं, उसी
तर्ज़ पर सोचा जाता है कि फिसड्डी टीम बचे हुए समय में तेजी से रन बना कर जीत भी
सकती थी!!