शादी के कार्ड पर साफ शब्दों में लिखा था-‘सरताज मेरिज गार्डन, राजीव गाँधी चौक
के पास’. राजीव गाँधी चौराहा शहर का जाना माना चौराहा था, लिहाज़ा पूछताछ की जरूरत
महसूस नहीं हुई. हाला कि मेरिज गार्डन कभी पहले देखा नहीं था पर चूँकि शहर में
रहते तीस साल हो गए थे इतना जरूर पता था कि हमारी मंजिल चार में से किन दो राहों
के बीच स्थित थी. पहले एक राह पर गाड़ी डाली. जब बहुत दूर तक गार्डन नजर नहीं आया
तो तय पाया कि किसी जानकार से पूछना बेहतर होगा. एक ठेले वाले ने बताया कि गलत
दिशा में आ गए, दूसरे वाली राह पकड़नी थी. अब हमने गाड़ी मोड़ कर दूसरी राह पर डाली
किन्तु इत्मीनान नहीं होने से सोचा पूछताछ कर लें. गाड़ी ठहराकर एक दुकानदार से पूछा तो
उसने बताया कि पहली दफा जिधर गए थे उधर ही जाना था. फिर तो अगले आधे घंटे हम शूर्पणखा
की तरह कभी राम से लक्ष्मण, तो कभी लक्ष्मण से राम की तरफ ठेले जाते रहे.
अब अपने सब्र का बाँध टूटने को था. सभी साथियों से मशविरा करना शुरू कर दिया था
कि ख़राब मौसम में अमरनाथ यात्रियों की तरह क्यूँ न घर लौट चला जाये. एक कुलीग को
सबसे लिफाफे इकठ्ठा करने को कह इंडियन कॉफ़ी हाउस चलने की भी ठान ली थी. तभी एक
नौजवान साथी ने अपने मोबाइल पर जीपीएस लगा लिया और वास्कोडिगामा की तरह मेग्नेट की
सुई सी देखते हुए हमें दिशा बताने लगा. जीपीएस ने अब हमें जिस सड़क पर डाला उसके
किनारे पर एक पुर आबाद कलाली थी जहाँ कई दीवाने किलोलें कर रहे थे. आगे का मार्ग
नीम-अँधेरे में लिपटा पड़ा था, निपट सुनसान. मन में डरावने विचार आने लगे. अपनी गाड़ी
किसी फोकटिया की तो थी नहीं जो एक लिफाफे में पूरा कुनबा जिमाने ले जा रहा हो.
दुल्हन के बाप के हम छह कुलीग थे- फ़ी बाराती एक लिफाफ़ा वाले. किसी अंतर्राष्ट्रीय
लग्ज़री कार की तरह लूट के सॉफ्ट और लुभावने टारगेट. रास्ते का ये आलम था कि गाड़ी
आगे बढ़ने के साथ-साथ मेरिज गार्डन मिलने की उम्मीद कमतर होती जा रही थी. अब तो
हमें गूगल पर भी शंका होने लगी थी कि कहीं अपहरणकर्ताओं के हाथों में तो नहीं खेल
रहा! तब जेब से निमंत्रण-पत्र निकाल कर उत्तरापेक्षियों की लम्बी सूची में से पासा
फेंक कर एक को फोन लगाया और समारोह स्थल के कोआर्डिनेट पूछने चाहे. लेकिन अपना
दुर्भाग्य कि बारात दरवाजे पर आ चुकी थी. शोर शराबे में उत्तर सुनना तो दूर,
उन्हें प्रश्न सुनाने में ही पसीना आ गया.
देखते-देखते बस्तियां भी विदा हो गयीं. दायें-बाएं खेत उग आये. मगर सर पर कफ़न
बांधे जांबाजों की तरह हम फिर भी आगे बढ़ते गए. मुड़ते-मुडाते अब हम एक मुकाम पर
पहुंचे. यही समारोह स्थल था. देख कर लगता
था कि कल अलसुबह जब लाईट और साउंड का तिलस्सिम टूट कर बिखरेगा तो यह भव्य स्थल
किसी गन्ने पेरने की चरखी या खेतों को सींचने के रहट सा नज़र आएगा.
वहां पहुँच कर हमने खैरियत मनाई. साथ ही कसम खाई कि आइन्दा समारोह स्थल की
अच्छे से रेकी कराये बगैर किसी शादी में शरीक़ नहीं होंगे.