फ़ाइनल्स की पहली बाउट अपनी पिंकी और चीन की पेंग के बीच थी। पिंकी, पेंग को दौड़ा-दौड़ा कर पीट रही थी। पेंग रिंग के चारों तरफ
बचती फिर रही थी। रिंग के किनारे-किनारे अगर मोटे-मोटे रस्से न बांधे गए होते तो वह
रिंग छोड़ कर कब की भाग गयी होती! वैसे चकमा देकर भाग निकलने में रस्सों के अलावा
भी एक और बहुत बड़ी दिक्कत थी। रिंग के अंदर एक हट्टी कट्टी बाउंसर जैसी महिला दोनों मुक्केबाजों की हरकतों
पर नजर रखने के लिए ही छोड़ी गयी थी। यूं कहने को तो उसे रेफ़री कहा जा रहा था, मगर उसका प्रमुख काम किसी बॉक्सर को जिताना या हराना नहीं था। इस काम के
लिए अलग से चार पाँच जजों की टोली रिंग के बाहर बिठाई गयी था। जहां तक हमें समझ
आया रेफ़री को रिंग में इस लिए रखा गया था ताकि कोई पिटता हुआ मुक्केबाज़ अगर रस्सा
टाप कर भागना चाहे तो उसे वापस घसीट कर रिंग में लाया जा सके। खैर, मुक़ाबले में मार खाते-खाते एक समय पेंग को लगा कि वह अब और ज्यादा मुक्के
नहीं झेल पाएगी। अपने सामने कोई और रास्ता न देख, वह झट से
पिंकी के गले इस अदा से पड़ गयी जैसे राहुल गांधी नरेंद्र मोदी के गले पड़ गए थे। लंबी
जद्दों-जहद के बाद रेफ़री ने बुरी तरह से गुत्थमगुत्था हो चुकी दोनों खिलाड़ियों को जैसे-तैसे
अलग किया। यह सब देख कर ही हमे रेफ़री का दूसरा अहम काम समझ आया जो कि एक-दूसरे में
अंदर तक गुंथ गयी बॉक्सरों को खींच कर अलग-अलग कर फिर से मुक्के खाने के लिए तैयार
करना था।
पेंग के अलग होते ही पिंकी ने फिर से मुक्कों की बरसात शुरू कर दी। उसे देख कर
ऐसा लग रहा था कि आज वह पेंग का भरता ही बना
कर छोड़ेगी। वो तो शुक्र मनाओ कि बाउट का समय समाप्त हो गया। रेफ़री ने पिंकी को
अपनी बांयी तरफ तो पेंग को दांयी तरफ खड़ा कर दोनों की कलाइयाँ मजबूती से पकड़ ली
ताकि नतीजा सुन कर दोनों एक दूसरे के सिर न फोड़ बैठें। पिंकी को नतीजे की इंतजार
करना मुश्किल लग रहा था। वह कभी गज-गज भर उछल कर खुद को जीता हुआ समझते हुए हवा
में मुट्ठी लहराने लगती, तो कभी उत्तेजित होकर खुशी के मारे जार-जार ही रोने लगती। लेकिन रेफ़री
ने जब पेंग का हाथ ऊपर उठा कर उसे जीता हुआ घोषित किया तब हमें पता चला कि खुद
खिलाड़ी अथवा ओडियेंस पोल पर मुक्केबाज़ी का
फैसला क्यों नहीं छोड़ा जा सकता! हम और आप जिस खिलाड़ी को जीता हुए मान रहे हों, वह हार जाए और जो हारता हुआ दिख रहा हो वह मुक्केबाज़ जीत जाए तभी समझ आता है कि
आखिर जज करना क्या होता है!!
अगला मुक़ाबला शुरू हुआ। दस्ताने टकराते ही दोनों खिलाड़ी आक्रमण की मुद्रा में
आ गयीं। किंग कोबरा की तरह घड़ी-घड़ी दोनों अपने-अपने धड़ कभी बांये लहराती, तो कभी दांये। एक दूसरे से बराबर दो-दो हाथ की दूरी रखते हुए
दोनों अपने-अपने विपक्षी की तरफ एक अरसे तक फूँ-फाँ करती रही। इस तरह पहला दौर यूं
ही डराने धमकाने में गुजर गया। दूसरा दौर शुरू हुआ। अबकी बार एक खिलाड़ी अपने असली
और नकली दोनों दाँतो की जोडियाँ ज़ोर से किटकिटाते हुए दूसरी की तरफ यूं झपटी मानों
सर्जिकल स्ट्राइक करके ही लौटेगी। किन्तु दूसरी ने चपल नेवले की तरह फुर्ती से बगल
हो कर उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया। अब दूसरी ने पहली के थोबड़े पर कस कर मुक्का
जमाया मगर बदकिस्मती से जिसे वह थोबड़ा समझ रही थी वह सामने वाली का दस्ताना निकला।
तीसरे और आखिरी दौर में बड़ा ही जंगी मुक़ाबला देखने को मिला। अब वे इस स्टाइल में
लड़ने लगीं मानों दो झगड़ालू पड़ोसनें एक दूसरे का झोंटा खीच-खींच कर उसकी दुर्गति बनाने
पर तुली हों। कभी एक बॉक्सर विपक्षी को रिंग के रस्सों पर पटक देती तो कभी दूसरी, सामने वाली को जमीन पर गिरा कर उसकी छाती पर चढ़ बैठती।
कहना मुश्किल था
कि कौन किस पर भारी है। दोनों ही साढ़े उन्नीसी नजर आ रही थी , बिलकुल ‘न तुम जीते, न हम
हारे’ की तर्ज़ पर। अब सबकी निगाहें उधर लगी थी। देखने की बात
यह थी कि वे किस पूनम के चाँद को सूरज सिद्ध करते हैं यानि किसके गले में सोना
डालते हैं, किसके हिस्से में चांदी लिखते हैं! आप समझ ही गए
होंगे कि हमारा इशारा जिन गुणीजन की तरफ है, उन्हें ही जज
कहा जाता है!
Shandaar
ReplyDeleteलाज़वाब.
ReplyDeleteSo nice madam
Deleteवाह क्या खुब परिभाषा है जज की...जीतने वाले को हरा दे और हारने वाले को जीता दे..🙏🙏
ReplyDeleteThanks Taruna ji
Deleteवाह! रोचक।
ReplyDeleteसुस्वागतम्
Deletehttps://bulletinofblog.blogspot.com/2018/12/2018-8.html?m=1
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