Saturday, September 19, 2009
इतिहास की धोखाधडी ....उर्फ़ वो मेरा गाँधी बनते बनते रह जाना
चलो मान लिया कि मेरी जबान से अंग्रेजी बोल नहीं झरते ,बस मैं रम्भा भर लेता हूँ, और यह भी कि मैं पिज्जा- बर्गर नहीं, घास-फूस पर बसर करता हूँ। इस से क्या फर्क पड़ता है अगर मैं टॉयलेट नहीं गोबर करता हूँ, पांच -सितारा होटल में नहीं, एक देसी बाड़े में रहता हूँ और धरती पर चलने में दो की जगह चारों पैरों का सहारा लेता हूँ। लब्बो-लुआब यह कि मैं केटल क्लास का सही मगर वायुयान का टिकेट तो मेरे पास अपर क्लास का था। लेकिन ऊँचे लोगों को मेरा ऊँचे दर्जे में बैठ कर सफर करना गवारा नहीं हुआ। फिर वही हुआ जो १८९३ में दक्षिण अफ्रीका के एक रेलवे प्लेटफोर्म पर हुआ था। यानि मेरी जन्म-पत्री बांचते हुए उन्होंने सामान समेत मुझे उठा कर रनवे पर पटक दिया। मैं अपनी जाति के अपमान का कड़वा घूंट पी कर रह गया। वाकये के दिन से ही पानी पीते समय मैं बड़ी हसरत से पोखर में अपना अक्स गौर से देखता आ रहा हूँ, लेकिन हाय रे, फूटे करम ! मैं हर बार गाँधी बनते बनते रह गया। अब तो मुझे यकीन हो चला है कि इतिहास भी हमारी कौम के साथ मजाक करता है, जो एक बार दोहराना शुरू तो कर देता है पर पूरी तरह दोहराने से रह जाता है।
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aaj ke sandarbh me itihas ka badhiya istemal
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