Saturday, September 19, 2009

आत्म-बोध

स्वयंवर के लिए उधार लिया विष्णु-रूप धर कर नारद मुनि के मन में एक श्रेष्ठि-भाव घर कर गया जिसे उस युग में अहंकार कहा जाता था। इधर मैंने भी सरकारी खर्चे पर दो-चार हवाई यात्रायें क्या कर डाली कि मेरे हृदय में भी यही ग्रंथि पनपी और बाकायदा जोर भी मारने लगी। स्वयं को प्रभु-लोक का वासी मान मैं अपने ही बन्धु-बांधवों को ओछा समझने लगा। मैं खल कामी ताउम्र इसी माया में पड़ा रहता यदि संयोग से थरूर गुरु ने मुझे दिव्य दर्शन न दिए होते। यह उन्ही की असीम अनुकम्पा थी जिसकी बदौलत मैं समझ सका कि विमान के अन्दर मेरी अगल-बगल की सीटों पर जो जीव विराजमान रहा करते थे वे और कोई नहीं बल्कि जुगाली-सम्राट चौपाये ही थे। बस उसी क्षण मेरी आँखे खुल गई और मुझे अपने सच्चे यानि मवेशी स्वरुप का बोध हो उठा। मेरा झूठा अहम् भाव एक ही झटके में कहीं तिरोहित हो गया।

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